Sunday, 1 May 2022

एक ग़ज़ल -झीलों में सुर्खाब

 

चित्र सभार गूगल

एक ग़ज़ल -झीलों में सुर्खाब


गालों पर गेसू बिखरे हैँ आँखों में कुछ ख़्वाब

खिड़की में हैँ चांद चांदनी दरिया में सुर्खाब


देख रहे थे हम भी जादू मंतर महफ़िल में

उसकी मुट्ठी में सिक्का था कैसे हुआ गुलाब


उससे मेरा रिश्ता -नाता फिर भी दूरी है

नज़रें नीचे करके वो भी करती है आदाब


उसको अब भी खत लिखता हूँ लेकिन मुश्किल ये

खत भी लौटा नहीं नहीं है खत का कोई जवाब


उसकी आँखे झील सी उस पर दरिया में पानी

फूलों वाली कश्ती उसकी लाती है सैलाब

जयकृष्ण राय तुषार

चित्र सभार गूगल


No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी हमारा मार्गदर्शन करेगी। टिप्पणी के लिए धन्यवाद |

कुछ सामयिक दोहे

कुछ सामयिक दोहे  चित्र साभार गूगल  मौसम के बदलाव का कुहरा है सन्देश  सूरज भी जाने लगा जाड़े में परदेश  हिरनी आँखों में रहें रोज सुनहरे ख़्वाब ...