Friday 29 April 2011

मेरे दो नवगीत

चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार
पहले जैसी  नहीं गाँव की रामकहानी है 

पहले जैसी 
नहीं गाँव की 
रामकहानी है |
जिसका है 
सरपंच उसी का 
दाना -पानी है |

परती खेत 
कहाँ हँसते अब 
पौधे धानों के ,
झील -ताल 
सब बंटे हाथ 
मुखिया -परधानों के ,
चिरई -चुनमुन नहीं 
मुंडेरों पर 
हैरानी है |

आसमान से झुंड 
गुम हुए 
उड़ती चीलों के ,
उत्सवजीवी रंग 
नहीं अब रहे 
कबीलों के ,
मुरझाये 
फूलों पर बैठी 
तितली रानी है |

मंदिर में 
पूजा होती अब 
फ़िल्मी गानों से ,
राजपुरोहित से 
टूटे रिश्ते 
यजमानों के ,
शहरों जैसे 
रंग -ढंग 
अब बोली -बानी है |

रोजगार 
गारंटी की 
यह बातें करता है ,
पीढ़ी दर 
पीढ़ी किसान बस 
कर्जा भरता है ,
कागज पर 
सदभाव`
धरातल पर शैतानी है |

दो 
आग में लिपटे हुए ये  वन चिनारों के 
आग में 
लिपटे हुए 
ये वन चिनारों के |
गीत अब 
कैसे लिखेगें 
हम बहारों के |

खेत परती 
बीडियाँ 
सुलगा रहा कोई ,
गीत बुन्देली 
हवा में 
गा रहा कोई ,
सूखती 
नदियाँ ,फटे सीने 
कछारों के |

एक चिट्ठी 
माँ !तेरी 
कल शाम आयी है ,
और यह 
चिट्ठी बहुत ही 
काम आयी है ,
शुष्क चेहरे पर 
पड़े छींटे 
फुहारों के |

यह शहर 
महँगा ,यहाँ है 
भूख -बेकारी ,
हर कदम पर 
हम हरे हैं पेड़ 
ये आरी ,
पाँव के 
नीचे दबे हम 
घुड़सवारों के |
[मेरे दोनों गीत कोलकाता से प्रकाशित जनसत्ता दीपावली वार्षिकांक २०१० में प्रकाशित हैं ]

Saturday 16 April 2011

गीत -इस सुनहरी धूप में

चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 
इस सुनहरी धूप में 

इस सुनहरी धूप में 
कुछ देर बैठा कीजिए  |
आज मेरे हाथ की 
ये चाय ताजा पीजिए |

भोर में है आपका रूटीन 
चिड़ियों की तरह ,
आप कब रुकतीं ,हमेशा 
नयी घड़ियों की तरह ,
फूल हँसते हैं सुबह 
कुछ आप भी हँस लीजिए |

दर्द पाँवों में उनींदी आँख 
पर उत्साह मन में ,
सुबह बच्चों के लिए 
तुम बैठती -उठती किचन में ,
कालबेल कहती बहनजी 
ढूध तो ले लीजिए |

मेज़ पर अखबार रखती 
बीनती चावल ,
फिर चढ़ाती देवता पर 
फूल अक्षत -जल ,
पल सुनहरे ,अलबमों के 
बीच मत रख दीजिए |
,
हैं कहाँ  तुमसे अलग 
एक्वेरियम की मछलियाँ ,
अलग हैं रंगीन पंखों में 
मगर ये तितलियाँ ,
इन्हीं से कुछ रंग ले 
रंगीन तो हो लीजिए |

तुम सजाती घर 
चलो तुमको सजाएँ ,
धुले हाथों पर 
हरी मेहँदी लगाएं ,
चाँद सा मुख ,माथ पर 
सूरज उगा तो लीजिए |
चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 

Tuesday 12 April 2011

मेरी दो गज़लें

चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 
एक 
छत बचा लेता है मेरी ,वही पाया  बनकर 
मुझको हर मोड़  पे मिलता है फरिश्ता बनकर

तेरी यादें कभी तनहा नहीं होने देतीं 
साथ चलती हैं मेरे ,धूप में साया बनकर 

तंगहाली में रही जब भी व्यवस्था घर की 
मेरी माँ उसको छिपा लेती है परदा बनकर 

आज के दौर के बच्चे भी कन्हैया होंगे 
आप पालें तो उन्हें नंद यशोदा बनकर

घर के बच्चों से नहीं मिलिये  किताबों की तरह 
उनके जज्बात को पढ़िये तो खिलौना बनकर 
दो 
वही उड़ान का का असली हुनर दिखाते हैं 
तिलस्म तोड़ के आंधी का,  घर जो आते हैं 

कभी प्रयाग के संगम को देखिये आकर 
यहाँ परिंदे भी डुबकी लगाने आते हैं 

ये बात सच है कि  दरिया से दोस्ती है मगर 
मल्लाह डूबने वालों को ही बचाते हैं 

लिबास देखके मत ढूंढिए फकीरों को 
कुछ जालसाज भी चन्दन तिलक लगाते हैं 

कब इनको खौफ़ रहा जाल और बहेलियों का 
परिंदे बैठ के पेड़ों पे चहचहाते  हैं 

हम अपने घर को भी दफ़्तर बनाये बैठे हैं 
परीकथाओं को बच्चों को कब सुनाते हैं 


किसी गरीब के घर को मचान मत कहना 
कबीले पेड़ की शाखों पे घर बनाते हैं 
चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 

Saturday 9 April 2011

एक प्रेम गीत -देखकर तुमको फिरोजी दिन हुए

चित्र -गूगल सर्च इंजन  से साभार 
देखकर तुमको फिरोजी  दिन हुए 

तुम्हें देखा 
भूल बैठा मैं 
काव्य के सारे सधे  उपमान |
ओ अपरिचित ! 
लिख रहा तुमको 
रूप का सबसे बड़ा प्रतिमान |

देख तुमको 
खिलखिलाते फूल 
जाग उठती शांत जल की झील ,
खिड़कियों को 
गन्ध कस्तूरी मिली 
जल उठी मन की बुझी कंदील ,
इन्द्रधनु सा 
रूप तेरा देखकर 
हो रहे पागल हिरन ,सीवान |


मौन  जंगल सज 
रहीं  संगीत संध्याएं  
खुले चिड़ियों के नये स्कूल,
कभी रक्खे थे 
किताबों में जिन्हें 
मोरपंखों को गये हम भूल ,
तू शरद की 
चाँदनी शीतल 
और हम दोपहर के दिनमान |


हाशिये  नीले ,हरे होने लगे 
लौट आये 
फिर कलम के दिन,
कल्पनाओं के 
गुलाबी पंख ओढ़े 
हम तुम्हें लिखने लगे पल -छिन 
हमें जाना था 
मगर हम रुक गये 
खोलकर बांधा हुआ  सामान |


देखकर तुमको 
फिरोजी दिन हुए 
हवा में उड़ता हरा रुमाल ,
फिर कहीं 
गुस्ताख भौरें ने छुआ 
फूल का बायां गुलाबी गाल ,
सज गए फिर 
मेज़ ,गुलदस्ते 
पी रहे  काफ़ी सुबह से लाँन |

चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 

Friday 8 April 2011

एक नवगीत

चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 
सुलगते सवाल  कई छोड़ गया मौसम 

सुलगते 
सवाल कई 
छोड़ गया मौसम |
मानसून 
रिश्तों को 
तोड़ गया मौसम |

धुआँ -धुँआ 
चेहरे हैं 
धान -पान खेतों के ,
नदियों में 
ढूह खड़े 
हंसते हैं रेतों के ,

पथरीली 
मिट्टी को 
गोड़  गया मौसम |

आंगन कुछ 
उतरे थे 
मेघ बिना पानी के ,
जो कुछ हैं 
पेड़ हरे 
राजा या रानी के ,

मिट्टी के 
मटके हम 
फोड़ गया मौसम |

मिमियाते 
बकरे हम 
घूरते कसाई ,
शाम -सुबह 
नागिन सी 
डंसती मंहगाई ,

चूडियाँ 
कलाई की 
तोड़ गया मौसम |
चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 

एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता

चित्र साभार गूगल  एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता सफ़र में धुंध सा बादल, कभी शजर आता इसी से चाँद मुक़म्मल नहीं नज़र आता बताता हाल मैं ...