चित्र -साभार गूगल |
एक ग़ज़ल-चाँदनी का रंग भी सादा न था
प्यार करने का कोई वादा न था
पर तेरी नफ़रत का अंदाजा न था
बाद की जंगों में रावण बच गए
फिर कभी वनवास में राजा न था
सारी महफ़िल खुशबुओं के नाम थी
फूल कोई भी वहाँ ताज़ा न था
कुछ पतंगे घर में रक्खी रह गईं
छतें खाली थीं मगर माझा न था
उसके दर पर सर पटकता क्यों भला
वह भी हम जैसा ही था ख़्वाजा न था
वो बिछाता किस तरह शतरंज पर
मैं वजीरों का कभी प्यादा न था
इस बदलते दौर में रंगीन सब
चाँदनी का रंग भी सादा न था
मौत पर उसके मोहल्ला था जमा
सगे बेटों का मगर काँधा न था
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 15 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका हृदय से आभार भाई साहब
Deleteवाह सराहनीय सृजन सर।
ReplyDeleteसादर।
आपका बहुत बहुत आभार
Deleteइस बदलते दौर में रंगीन सब
ReplyDeleteचांदनी का रंग भी सादा ना था
अपने समय की विडंबना यही है. सटीक वर्णन.
आपका हार्दिक आभार
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत आभार
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(१६-०१-२०२१) को 'ख़्वाहिश'(चर्चा अंक- ३९४८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
आपका हार्दिक आभार
Deleteसुन्दर रचना।
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत आभार
Deleteलाजवाब अशआरों से सजी बेहतरीन ग़ज़ल ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Deleteसभी शेर मर्मांतक , पर अंतिम शेर से आह सी निकल गई----
ReplyDeleteमौत पर उसके मोहल्ला था जमा
सगे बेटों का मगर काँधा न था
सभी शेर एक कहानी प्रस्तुत करते हैं। हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏
हार्दिक आभार आपका
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Deleteबहुत ही सुन्दर सृजन - -
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Delete