Friday, 15 January 2021

एक ताज़ा ग़ज़ल -चाँदनी का रंग भी सादा न था

 

 

चित्र -साभार गूगल 


एक ग़ज़ल-चाँदनी का रंग भी सादा न था
प्यार करने का कोई वादा न था
पर तेरी नफ़रत का अंदाजा न था

बाद की जंगों में रावण बच गए
फिर कभी वनवास में राजा न था

सारी महफ़िल खुशबुओं के नाम थी
फूल कोई भी वहाँ ताज़ा न था

कुछ पतंगे घर में रक्खी रह गईं
छतें खाली थीं मगर माझा न था

उसके दर पर सर पटकता क्यों भला
वह भी हम जैसा ही था ख़्वाजा न था

वो बिछाता किस तरह शतरंज पर
मैं वजीरों का कभी प्यादा न था

इस बदलते दौर में रंगीन सब
चाँदनी का रंग भी सादा न था

मौत पर उसके मोहल्ला था जमा
सगे बेटों का मगर काँधा न था
चित्र -साभार गूगल 

22 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज शुक्रवार 15 जनवरी 2021 को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    Replies
    1. आपका हृदय से आभार भाई साहब

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  2. वाह सराहनीय सृजन सर।

    सादर।

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  3. इस बदलते दौर में रंगीन सब
    चांदनी का रंग भी सादा ना था

    अपने समय की विडंबना यही है. सटीक वर्णन.

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  4. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(१६-०१-२०२१) को 'ख़्वाहिश'(चर्चा अंक- ३९४८) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  5. लाजवाब अशआरों से सजी बेहतरीन ग़ज़ल ।

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  6. सभी शेर मर्मांतक , पर अंतिम शेर से आह सी निकल गई----

    मौत पर उसके मोहल्ला था जमा
    सगे बेटों का मगर काँधा न था
    सभी शेर एक कहानी प्रस्तुत करते हैं। हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏

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  7. बहुत सुंदर रचना

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  8. बेहतरीन रचना

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