चित्र -गूगल से साभार |
प्यार के हम गीत रचते हैं इन्हीं कठिनाइयों में
खिल रहा है
खिल रहा है
फूल कोई
धान की परछाइयों में |
सो रहे
खरगोश से दिन
पर्वतों की खाइयों में |
ज्वार पर
देखो समय के
गीत पंछी गा रहे हैं ,
बादलों के
नर्म फाहे
चाँद को सहला रहे है ,
देखकर
तुमको यहीं हम
खो गए पुरवाइयों में |
हलद
बांधे चल रहा
मौसम हरे रूमाल में ,
बांधे चल रहा
मौसम हरे रूमाल में ,
लगे हैं
खिलने गुलाबी-
कँवल मन के ताल में ,
साँझ ढलते
मन हमारा
खो गया शहनाइयों में |
कास -बढ़नी
को लगे फिर
चिठ्ठियाँ लिखने उजाले ,
आँख पर
सीवान के
चश्में चढ़े हैं धूप वाले ,
एक आंचल
इत्र भींगा
उड़ रहा अमराइयों में |
झील की
लहरें नहाकर
रेशमी लट खोलती हैं ,
चुप्पियों
के वक्त भी
ऑंखें बहुत कुछ बोलती हैं ,
प्यार के
हम गीत
वाह...
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर गीत....
मनभावन प्रस्तुति...
सादर
अनु
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 4/9/12 को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच http://charchamanch.blogspot.inपर की जायेगी|
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteबहुत-बहुत सुन्दर प्रस्तुति....
बेहतरीन....
:-)
वाह! बहुत ही सुन्दर वा अनूठे बिम्ब उकेरती एक उत्कृष्ट रचना ...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कविता..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत....
ReplyDeleteप्यार के गीत रचकर आपने मन मोह लिया है। बिम्बों का उत्तम प्रयोग लुभाता है।
ReplyDeleteवाह! बेहतरीन नवगीत है।..बधाई।
ReplyDeleteमेरा पागलपन देखिए..मैं बहुत देर तक सांझ की अनुभूति लाने के लिए रेशमी में स्वर्ण घोलने के चक्कर में पड़ा था लेकिन घोल नहीं पाया। :(
अंतिम बंद लाज़वाब है।
एक आंचल
ReplyDeleteइत्र भींगा
उड़ रहा अमराइयों में |
तुषार भाई की जय हो
आप सभी का बहुत -बहुत आभार |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत....
ReplyDeleteबेहतरीन सरस रसमयी सृजन जलतरंग सा मन को उद्वेलित करते हुए ...... प्रशंसनीय ....बधाईयाँ जी, राय साहब
ReplyDeletenamaskaat tushar ji
ReplyDeletebahut sundar pyar ka geet ...
बादलों के
नर्म फाहे
चाँद को सहला रहे है ,
देखकर
तुमको यहीं हम
खो गए पुरवाइयों में |
..man bhavan..badhai aapko
सुंदर प्रेम गीत के लिए बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteएक खूबसूरत एहसास भरा गीत !
ReplyDeleteअति सुन्दर गीत..मन को महकाता हुआ..
ReplyDeleteकास -बढ़नी
ReplyDeleteको लगे फिर
चिठ्ठियाँ लिखने उजाले ,
आँख पर
सीवान के
चश्में चढ़े हैं धूप वाले ,
एक आंचल
इत्र भींगा
उड़ रहा अमराइयों में |
इस बंद पर मैं तो अवाक् हूँ. चूँकि यह आपका बंद है सो हृदय कह रहा है कि संयत हो जाऊँ..
झील की
लहरें नहाकर
रेशमी लट खोलती हैं ,
चुप्पियों
के वक्त भी
ऑंखें बहुत कुछ बोलती हैं ,
प्यार के
हम गीत
रचते हैं इन्हीं कठिनाइयों में |
इस बंद पर ढेरम्ढेर बधाइयाँ स्वीकारें, तुषारभाईजी. यदि रचना के लिये इस तरह के वातावरण का होना जरूरी है तो काश आपकी कठिनाइयाँ सदा बनी रहें..
बधाई-बधाई-बधाई........
--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
प्यार के
ReplyDeleteहम गीत
रचते हैं इन्हीं कठिनाइयों में |
sundar soch.....bahut sundar aur sakaratmak rachna ...badhaii aapko ...
सुन्दर ... बहुत ही मधुर गीत ... मनभावन प्रस्तुति ...
ReplyDeleteझील की
ReplyDeleteलहरें नहाकर
रेशमी लट खोलती हैं ,
चुप्पियों
के वक्त भी
ऑंखें बहुत कुछ बोलती हैं ,
...वाह! बहुत भावपूर्ण और मनभावन...
श्रृंगारिकता से ओतप्रोत एक और प्रभावी रचना ..मुझे फुर्सत से जरा फोन करियेगा ! आपका नबर गायब है !
ReplyDeleteसो रहे खरगोश से दिन पर्वतों की खाइयों में'
ReplyDeleteवाह! क्या बात कही है.
बहुत ही मनमोहक गीत.
वाह! तुषार जी, शृंगार रस सराबोर आपकी रचनाएँ अतुलनीय हैं। कई रचनाएँ पढ़ी। इन पक्तियों कोपढकर विस्मित हूँ---
ReplyDeleteएक आंचल
इत्र भींगा
उड़ रहा अमराइयों में !
बेजोड़ हैं ये पंक्तियाँ👌👌👌
हार्दिक शुभकामनायें🙏🙏
हार्दिक आभार आपका आदरणीया रेणु जी
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