Saturday 24 June 2017

गंगा की वेदना -एक गीत -जन -जन का पाप हरे स्वयं बुरे हाल में



चित्र -गूगल से साभार 



गंगा की वेदना -एक गीत 

गंगा से प्रेम महज 
पूजा की थाल में |
शहरों में पांव फंसे 
गाद भरे जाल में |

आंख डबडबायी है 
धार धार रोती है ,
नींद में कराह रही 
मैया कब सोती है ,
जाने कब सीता सी 
गुम हो पाताल में |

शंकर के माथे से 
धवल धार आयी थी ,
फूलों की खुशबू से 
सृष्टि महमहायी थी ,
देखता भागीरथ चुप 
माँ को इस हाल में |

वसन हुए मैले सब 
चेहरे पर तेज नहीं ,
काँटों से राह भरी 
फूलों की सेज नहीं ,
एक महासागर थी 
समा गयी ताल में |

शक्तिहीन धारा में 
पर्व हम मनाते हैं ,
टूटते कगारों पर 
स्वस्ति -मन्त्र गाते हैं ,
जन -जन का पाप हरे 
स्वयं बुरे हाल में |
चित्र -गूगल से साभार 

एक ग़ज़ल -वो अक्सर फूल परियों की तरह

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