Sunday, 24 August 2014

एक नवगीत -हरे वन की चाह में

चित्र -गूगल से साभार 

एक गीत -

हरे वन की चाह में 

हरे वन की 
चाह में फिर 
पंख चिड़ियों के जले हैं |
यहाँ ऋतुएं 
हैं तिलस्मी 
और मौसम दोगले हैं |

प्यास होंठों पर 
सजाए हम 
नदी से लौट आए ,
कौन है ये 
आसमां में 
धूम्र के बादल सजाए ,
हो गया 
जनतंत्र बहरा 
या कि हम सब तोतले हैं |

हम पठारों पर 
बसे हैं 
फूल इन पर क्या खिलेंगे ,
हर कदम पर 
हमें कुछ 
कांटे बबूलों के मिलेंगे ,
हम सुरंगों 
में घिरे हैं 
भले मीलों तक चले हैं |

हम हँसे तो 
इस व्यवस्था ने 
हमारे होंठ काटे ,
रो दिए तो 
धर्मगुरुओं ने 
हमारे रुदन बांटे ,
हमें रहने दो 
महज इन्सान 
हम इसमें भले हैं |
चित्र -गूगल से साभार 

आज़मगढ़ के गौरव श्री जगदीश प्रसाद बरनवाल कुंद

 श्री जगदीश प्रसाद बरवाल कुंद जी आज़मगढ़ जनपद के साथ हिन्दी साहित्य के गौरव और मनीषी हैं. लगभग 15 से अधिक पुस्तकों का प्रणयन कर चुके कुंद साहब...