Monday 30 December 2013

एक गीत -तारीख़ें बदलेंगी सन् भी बदलेगा

चित्र -गूगल से साभार 
एक गीत -
तारीख़ें बदलेंगी सन् भी बदलेगा 
तारीख़ें 
बदलेंगी 
सन्  भी बदलेगा |
सूरज 
जैसा है 
वैसा ही निकलेगा |

नये रंग 
चित्रों में 
भरने वाले होंगे ,
नई कहानी 
कविता 
नये रिसाले होंगे ,
बदलेगा 
यह मौसम 
कुछ तो बदलेगा |

वही 
प्रथाएं 
वही पुरानी रस्में होंगी ,
प्यार 
मोहब्बत -
सच्ची ,झूठी क़समें  होंगी ,
जो इसमें 
उलझेगा  
वह तो फिसलेगा |

राजतिलक 
सिंहासन की 
तैयारी होगी ,
जोड़- तोड़ 
भाषणबाजी 
मक्कारी होगी ,
जो जीतेगा 
आसमान 
तक उछलेगा |

धनकुबेर 
सब पेरिस 
गोवा जायेंगे ,
दीन -हीन 
बस 
रघुपति राघव गायेंगे ,
बच्चा 
गिर गिर कर 
जमीन पर सम्हलेगा  |

Sunday 22 December 2013

एक गीत -खिड़कियों के पार का मौसम

चित्र -गूगल से साभार 
खिड़कियों के पार का मौसम 


खिड़कियों के 
पार का 
मौसम बदलता है |
मगर 
मन के शून्य में 
कुछ और चलता है |

यह दिसम्बर 
रहे या फिर 
जनवरी आये ,
भीड़ को 
गोवा या केरल ,
मदुरई भाये ,
जहाँ 
दरिया है वहीं 
टापू निकलता है |

फूल से 
जादा उँगलियों की 
महक भाती ,
धुंध में 
आकाश में 
चिड़िया नहीं गाती ,
घने बादल 
चीरकर 
सूरज निकलता है |

ये पेड़ 
आंधी या 
बवंडर से नहीं डरते ,
विषम 
मौसम में 
नहीं ये ख़ुदकुशी करते ,
मौन से 
संवाद 
कर लेना सफलता है |
चित्र -गूगल से साभार 

Monday 25 November 2013

एक गीत -बहुत दिनों से इस मौसम को बदल रहे हैं लोग

चित्र -गूगल से साभार 

एक गीत -बहुत दिनों से इस मौसम को 
बहुत दिनों से 
इस मौसम को 
बदल रहे हैं लोग |
अलग -अलग 
खेमों में बंटकर 
निकल रहे हैं लोग |

हम दुनिया को 
बदल रहे पर 
खुद को नहीं बदलते ,
अंधे की 
लाठी लेकर के 
चौरस्तों पर चलते ,
बिना आग के 
अदहन जैसे 
उबल रहे हैं लोग |

धूप ,कुहासा ,
ओले ,पत्थर 
सब जैसे के तैसे ,
दुनिया पहुंची  
अन्तरिक्ष में 
हम आदिम युग जैसे ,
नासमझी में 
जुगनू लेकर 
उछल रहे हैं लोग |

गाँव सभा की 
दूध ,मलाई 
परधानों के हिस्से ,
भोले भूखे 
बच्चे सोते 
सुन परियों के किस्से ,
ईर्ष्याओं की 
नम काई पर 
फिसल रहे हैं लोग |

हिंसा ,दंगे 
राहजनी में 
उलझी है आबादी ,
कितनी कसमें 
कितने वादे 
सुधर न पायी खादी ,
नागफ़नी वाली 
सड़कों पर 
टहल रहे हैं लोग |

Wednesday 13 November 2013

एक गीत -धरती की उलझन सुलझाओ -तब साथी मंगल पर जाओ

चित्र -गूगल से साभार 

एक गीत -तब साथी मंगल पर जाओ 
धरती की 
उलझन सुलझाओ |
तब साथी 
मंगल पर जाओ |

दमघोंटू 
शहरों से ऊबे ,
गाँव अँधेरे में 
सब डूबे ,
सारंगी लेकर 
जोगी सा 
रोशनियों के 
गीत सुनाओ |

जाति -धरम 
रिश्तों के झगड़े ,
पत्थर रोज 
बिवाई रगड़े ,
बाजों के 
नाखून काटकर 
चिड़ियों को 
आकाश दिखाओ |

नीली ,लाल 
बत्तियां छोड़ो ,
सिंहासन से 
जन को जोड़ो ,
गागर में 
सागर भरने में 
मत अपना 
ईमान गिराओ |

मंगल पर 
मत करो अमंगल ,
वहां नहीं 
यमुना ,गंगाजल ,
विश्व विजय 
करने से पहले 
खुद को 
तुम इन्सान बनाओ |

Sunday 4 August 2013

एक गीत -एक साहसी चिड़िया उलझी

चित्र -गूगल से साभार 

एक गीत -एक साहसी चिड़िया उलझी 
एक साहसी 
चिड़िया उलझी
राजनीति के जाल में |
मगरमच्छ
जबड़े फैलाए
नीलकमल के ताल में |

पथ में
घने बबूलों वाली
उलझी हुई टहनियाँ हैं ,
हम सैलानी
बंधे हाथ हैं
घायल हुई कुहनियाँ हैं ,
रेत भुरभुरी
उलझ गई है
घने रेशमी बाल में |

नया सूर्य
घिर गया बादलों से
धुंधला -धुंधला हर दिन ,
फूलों के
मौसम के सपने
रहे देखते हम पल -छिन ,
इंदर राजा
उलझे केवल
जाँच और पड़ताल में |

सच कहना
ईमान दिखाना
कितना भारी पड़ता है ,
भगत सिंह
सत्ता की आँखों में
हर युग में गड़ता है ,
परजा बहती
रहे बाढ़ में
हाकिम बैठे माँल में |

चुप रहने पर 
मौन उभरता 
गाओ तो जंगल डरता है ,
देखो अब 
मत कहना साथी 
एक अकेला क्या करता है ,
जब चाहोगे 
राह मिलेगी 
आसमान ,पाताल में |

[यह कविता अमर उजाला के साहित्य पेज नई ज़मीन में [18-08-2013]प्रकाशित है |हम सम्पादक श्री यशवंत व्यास जी के आभारी हैं ]

Sunday 30 June 2013

एक गीत -फूलों की घाटी में मौसम

चित्र -गूगल से साभार 
एक गीत 
फूलों की घाटी में मौसम 

फूलों की 
घाटी में मौसम की 
हथेलियाँ रंगीं खून से |
ओ सैलानी !
अब मत जाना 
प्रकृति रौदने इस जूनून से |

बे-मौसम 
फट गए झील में 
कालिदास के विरही बादल ,
नहीं आचमन 
के लायक अब 
मंदाकिनियों के पवित्र जल ,
मंगल कलश 
अमंगल लेकर 
लौटे घाटी और दून से |

देवदार से 
आच्छादित वन 
शोक गीत गाने में उलझे ,
इस रहस्यमय 
जलप्लावन के 
प्रश्न अभी भी हैं अनसुलझे ,
ओ हिमगिरि 
क्यों इतनी नफ़रत 
तुम्हेँ हो गयी मई -जून से |

ओ बदरी -केदार !
तुम्हारी शांति -भंग 
के हम हैं दोषी ,
अब बुरुंश के 
फूलों ने भी 
तोड़ दिया अपनी ख़ामोशी ,
रस्ते वही 
अगम्य हो गए 
बरसों तक जो थे प्रसून से |

इन्द्रधनुष की 
मोहक आभा 
पल-भर में ही प्रलय हो गई ,
अंतहीन 
लालच मानव की 
देख प्रकृति की भृकुटी तन गई ,
दर्द पहाड़ों का 
भी पढ़ना होगा 
अब हमको सुकून से |
चित्र -गूगल से साभार 

Sunday 2 June 2013

एक ग़ज़ल -अफ़सोस परिंदे यहाँ मर जायेंगे भूखे

चित्र -गूगल से साभार 
ग़ज़ल -इस बार किसी जाल में दाना भी नहीं है 
इन आँखों ने देखा है अफ़साना भी नहीं है 
वो यारों मोहब्बत का दीवाना भी नहीं है 

अफ़सोस परिंदे यहाँ मर जायेंगे भूखे 
इस बार किसी ज़ाल में दाना भी नहीं है 

इक दिन की मुलाकात से गफ़लत में शहर है 
सम्बन्ध मेरा उससे पुराना भी नहीं है 

वो ढूंढ़ता फिरता है हरेक शै में ग़ज़ल को 
अब मीर ओ ग़ालिब का जमाना भी नहीं है 

फूलों से भरे लाँन में दीवार उठा मत 
मुझको तो तेरे सहन में आना भी नहीं है 

हर मोड़ पे वो राह बदल लेता है अपनी 
गर दोस्त नहीं है तो बेगाना भी नहीं है 

इस सुबह की आँखों में खुमारी है क्यों इतनी 
इस शहर में तो कोई मयखाना भी नहीं है 

[कुछ दिनों से व्यस्तता वश लिखना नहीं हो पा रहा है ,एक पुरानी कामचलाऊ ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ ]

Monday 6 May 2013

समकालीन हिंदी ग़ज़ल -संग्रह -प्रकाशक साहित्य अकादेमी -एक अवलोकन

समकालीन हिंदी ग़ज़ल- संग्रह 
समकालीन हिंदी ग़ज़ल -संग्रह -

साहित्य अकादेमी नई दिल्ली द्वारा अभी समकालीन हिंदी ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है | हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में यह एक सराहनीय पहल है और इसका श्रेय जाता है इसके सम्पादक और चयनकर्ता भाई माधव कौशिक जी को | कौशिक जी स्वयं एक अच्छे ग़ज़ल कवि हैं और उम्दा सम्पादकीय दृष्टि से लैस हैं | विगत दिनों में कई ग़ज़ल विशेषांक आए उनमें सर्वाधिक लोकप्रिय नया ज्ञानोदय का ग़ज़ल महाविशेषांक था जिसमें हिंदी के साथ उर्दू के शायर भी शामिल किये गये थे |ग़ज़ल आज भी साहित्य की सबसे कारगर और लोकप्रिय विधा है |कम शब्दों में इसके द्वारा बहुत कुछ कहा जाता है और कहा जा सकता है |इस संग्रह की पृष्ठभूमि कुछ वर्ष पूर्व बनी थी जो अब फलीभूत हुई है |माधव कौशिक द्वारा लिखे गये सम्पादकीय के आलावा इसमें कुल सतहत्तर कवि शामिल किये गये हैं | कुछ नाम इस प्रकार हैं -दुष्यन्त कुमार ,हस्तीमल हस्ती ,अशोक रावत ,माधव कौशिक ,अदम गोंडवी ,उदय प्रताप सिंह ,हरजीत सिंह ,हरेराम समीप ,राजेन्द्र तिवारी ,ममता किरन ,वशिष्ठ अनूप ,एहतराम इस्लाम,कमलेश भट्ट कमल , जयकृष्ण राय तुषार ,कुँवर बेचैन ,आलोक श्रीवास्तव ,कुमार विनोद ,विज्ञान व्रत ,सुरेन्द्र सिघल ,चन्द्रसेन विराट ,तुफैल चतुर्वेदी ,लक्ष्मी शंकर बाजपेई ,सत्यप्रकाश शर्मा ,अखिलेश तिवारी ,विजय किशोर मानव ,हरिओम ,नूर मुहम्मद नूर कमलेश द्विवेदी दीक्षित दनकौरी ,दरवेश भारती आदि कवि शामिल हैं 

कुल दो सौ चालीस पृष्ठों का यह संकलन पठनीय और संग्रहणीय है | माधव कौशिक जी का यह प्रयास सराहनीय है | हिंदी ग़ज़ल के पाठकों के लिए साहित्य अकादेमी द्वारा दिया गया यह एक अनमोल तोहफ़ा है |


सम्पादकीय अंश -
कुल मिलाकर यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है की हिन्दी ग़ज़ल के सरोकार कविता की तरह युगीन यथार्थ तथा व्यवस्था -विरोध के साथ -साथ आज के समाज की दुर्दशा ,भ्रष्टाचार ,स्वार्थपरता तथा नैतिक मूल्यों के निरंतर गिरते जाने से उत्पन्न उहापोह के विवेचन तथा विश्लेषण से जुड़े हैं |सामाजिक विसंगतियों तथा विद्रूपताओं को अभिव्यक्त करते हुए व्यंग्य की धार अत्यंत तुर्श बनी रहती है |यह तुर्शी भरा तेवर ग़ज़ल का प्राणतत्व है |साफ़ -सुथरी आम बोलचाल की भाषा में लिखी जाने वाली इन गजलों में पूरा जीवन अपनी सम्पूर्णता तथा गरिमा के साथ चित्रित हुआ है |

एक ग़ज़ल  -कवि/ गज़लकार - माधव कौशिक 
कवि / सम्पादक -माधव कौशिक 
सम्पर्क -09888535393

बस एक काम यही बार -बार करता था 
भंवर के बीच से दरिया को पार करता था |

अजीब शख्स था ख़ुद अलविदा कहा लेकिन 
हर एक शाम मेरा इंतज़ार करता था |

उसी की पीठ पर उभरे निशान ज़ख्मों के 
जो हर लड़ाई में पीछे से वार करता था |

हवा ने छीन लिया अब तो धूप का जादू 
नहीं तो पेड़ भी पत्तों से प्यार करता था |

सुना है वक्त ने उसको बना दिया पत्थर 
जो रो वक्त को भी संगसार करता था |

पुस्तक का नाम -समकालीन हिंदी ग़ज़ल -संग्रह 
प्रकाशक -साहित्य अकादेमी 
सम्पादक एवं चयन -माधव कौशिक 
मूल्य -रु० एक सौ पचास 
पता -साहित्य अकादेमी 
रवीन्द्र भवन ,35 फ़िरोजशाह मार्ग ,नई दिल्ली -110001
विक्रय विभाग -स्वाति मन्दिर मार्ग ,नई दिल्ली -110001

Thursday 2 May 2013

मेरी शब्द यात्रा - रवीन्द्र कालिया

साहित्य समाज के पीछे लंगड़ाता हुआ चल रहा है -
                                                   रवीन्द्र कालिया 

साहित्यिक आयोजन

मेरे निर्माण और रचनाषीलता में इलाहाबाद का है अहम रोल:
 रवींद्र कालिया
हिंदी की सारी शब्द  यात्रा पर गौर करने का समय आ गया है:
 लाल बहादुर वर्मा

हिंदी विवि के इलाहाबाद केंद्र में आयोजित हुई मेरी शब्दयात्राश्रृंखला

श्री रवीन्द्र कालिया को पुष्प गुच्छ और शाल देकर सम्मानित करते समारोह के
अध्यक्ष प्रो० लाल बहादुर वर्मा और सबसे दायें श्री अजित पुष्कल 
      महात्मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा के इलाहाबाद क्षेत्रीय केंद्र में दिनांक 27 अप्रैल 2013 को मेरी शब्द यात्रा श्रृंखला के तहत आयोजित तीसरे कार्यक्रम में वरिष्‍ठ साहित्यकार एवं ज्ञानोदय के संपादक श्री रवींद्र कालिया ने अपनी रचना प्रक्रिया को साझा करते हुए कहा कि अब साहित्‍य, समाज के आगे चलने वाली मशाल नहीं रही, अब वह समाज से बहुत ज्‍यादा पीछ रहकर लंगड़ाते हुए चल रहा है। कालिया जी अपनों से मुखातिब हुए तो फिर पूरी साफगोई से कल से आज तक का सफरनामा सुनाया। कहा, आज हिंदी का वर्चस्‍व बढ़ रहा है और इसका भविष्‍य उज्‍ज्‍वल है। आने वाले कल में लोग हिंदी के अच्‍छे स्‍कूलों के लिए भागेंगे। मेरा सौभाग्‍य है कि इसी हिंदी के सहारे मैंने पूरी दुनिया की सैर की। जहां तक लिखने के लिए समय निकालने की बात है तो मैंने जो कुछ भी लिखा, अपने व्यस्ततम क्षणों में ही लिखा। जितना ज्‍यादा व्‍यस्‍त रहा, उतना ही ज्‍यादा लिखा। अपने आसपास की जिंदगी को जितना अच्‍छा समझ सकेंगे, उतना ही अच्‍छा लिख सकेंगे। कई बार समय को जानने के लिए टीनएजर्स को समझना जरूरी है, उनकी ऊर्जा और सोच में समय का सच होता है।

कहानी पाठ करते रवीन्द्र कालिया सबसे बाएं चर्चित कथाकार ममता कालिया
कालिया जी के बाएं क्रमशः प्रो० लाल बहादुर वर्मा और प्रो० सन्तोष भदौरिया 

      मेरा मनना है कि जो बीत जाता है, उसे भुला देना बेहतर है, उसे खोजना अपना समय व्‍यर्थ करना है। लोग जड़ों के पीछे भागते हैं, मैं अपनी जड़े खोजने जालंधर गया, पर वहां इतना कुछ बदल चुका था कि बीते हुए कल के निशान तक नहीं मिले। मेरी स्‍मृतियों में इलाहाबाद आज भी जिंदा है, रानी मंडी को मैं आज भी महसूस करता हूं। मैं जब पहली बार इलाहाबाद पहुंचा था तो मेरी जेब में सिर्फ बीस रुपये थे और जानने वाले के नाम पर अश्‍क जी, जो उन दिनों शहर से बाहर थे। माना जाता था कि जिसे इलाहाबाद ने मान्‍यता दे दी, वह लेखक मान लिया जाता था। इसी शहर ने मुझे पर बांधना सिखाया और उड़ना भी। यहां सबसे ज्‍यादा कठिन लोग रहते हैं। यहां सबसे ज्‍यादा स्‍पीड ब्रेकर हैं, सड़कों पर और जिंदगी में भी। इस शहर में प्रतिरोध का स्‍वर है। हालांकि आज हम दोहरा चरित्र लेकर जीते हैं, ऐसा नहीं होता तो दिखने वाले प्रतिरोध के स्‍वर के बाद दिल्‍ली जैसी कोई घटना दोबारा नहीं होती। अब प्रतिरोध का शोकगीत लिखने का समय आ गया है। जरूरत है उन चेहरों के शिनाख्‍त की जो मुखौटे लगाकर प्रतिरोध करते हैं। साहित्‍यकार होने के नाते मैं भी शर्मिंदा हूं। जो साहित्‍य जिंदगी के बदलाव की तस्‍वीर पेश करता है, वही सच्‍चा साहित्‍य है। यदि हमारा साहित्‍य लेखन समाज को नहीं बदलता है तो वह झक मारने जैसा ही है। प्रेमचंद का लेखन जमीन से जुड़ा था, इसीलिए वह आज भी सबसे ज्‍यादा प्रासंगिक और पठनीय है। मेरी कोशिश रहेगी कि मैं अपने लेखन में समाज से ज्‍यादा जुड़ा रह सकूं।
      अतीत की स्‍मृतियों को सहेजते हुए उन्‍होंने हिंदी और लेखन से नाता जोड़ने की दिलचस्‍प दास्‍तां सुनाई। बोले, घर में आने वाले हिंदी के अखबार में बच्‍चों का कोना के लिए कोई रचना भेजी थी, तब मुझे सलीके से अपना नाम भी लिखना नहीं आता था। चंद्रकांता संतति जैसी कुछ किताबें लेकर पढ़ना शुरू किया। कुछ लेखकों के नाम समझ में आने लगे। जाना कि अश्‍क जी जालंधर के हैं तो एक परिचित के माध्‍यम से उनसे मिलना हुआ, साथ में मोहन राकेश भी थे। इस बीच एक बार बहुत हिम्‍मत करके अश्‍क जी का इंटरव्‍यु लेने पहुंचा तो उनका बड़प्‍पन कि उन्‍होंने मुझसे कागज लेकर उस पर सवाल और जवाब दोनों ही लिखकर दे दिए। उनका इंटरव्‍यु साप्‍ताहिक हिंदुस्तान में छपा। सिलसिला शुरू हुआ तो एक गोष्‍ठी में पहली कहानी पढ़ी। साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान और फिर आदर्श पत्रिका में कहानी छपी तो पहचान बनने लगी। परिणाम यह कि जालंधर आने पर एक दिन मोहन राकेश जी मुझे ढूंढते हुए घर तक आ पहुंचे। उन्‍होंने ही मुझे हिंदी से बीए आनर्स करने को कहा। हालांकि मेरी बहनों ने पालिटिकल साइंस में पढ़ाई की। शुरूआत में विरोध तो हुआ लेकिन बाद में सब ठीक होगा। कपूरथला के सरकारी कालेज में पहली नौकरी की। आरंभिक दौर में मेरी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में जिस गति से जाती, उसी गति से लौट आती। बाद में वे सभी उन्‍हीं पत्रिकाओं में छपीं, जहां से लौटी थीं। आकाशवाणी में भी कार्यक्रम मिलने लगे जहां जगजीत सिंह जैसे दोस्‍त भी मिले। इससे पहले कालिया जी ने अपनी कहानी एक होम्योपैथिक कहानीका पाठ किया। बतौर अध्यक्ष लाल बहादुर वर्मा ने कहा कि, आज कालिया जी को सुनना जितना अच्‍छा लगा, अब से पहले कभी नहीं। यह इसलिए सुखद लगा क्‍योंकि शब्‍दों में अर्थ विलीन होता रहा, लेकिन आज जरूरत है कि समाज और साहित्‍य को लेकर उनकी चिंताएं साझा की जाएं। 

कार्यक्रम का संयोजन एवं संचालन क्षेत्रीय केंद्र के प्रभारी प्रो. संतोष भदौरिया द्वारा किया गया। लाल बहादुर वर्मा एवं अजित पुश्कल ने शाल, पुष्‍पगुच्छ प्रदान कर साहित्यकार रवींद्र कालिया का स्वागत किया एवं धनन्जय चोपड़ा ने रवींद्र कालिया के जीवन वृत्त पर प्रकाश डाला। प्रो. ए.ए. फातमी ने अतिथियों का स्वागत किया।
            गोष्ठी में प्रमुख रूप से ममता कालिया, अजीत पुश्कल, ए.ए. फातमी, वरिष्ठ अधिवक्ता उमेश नारायण शर्मा ,स्थाई अधिवक्ता ए० पी० मिश्र ,असरफ अली बेग, अनीता गोपेश, दिनेश ग्रोवर, रमेश ग्रोवर, एहतराम इस्लाम, रविनंदन सिंह, अनिल रंजन भौमिक, अजय प्रकाश, विवेक सत्यांशु, नीलम शंकर, बद्रीनारायण, हरीशचन्द पाण्डेय, जयकृष्‍ण राय तुषार, नन्दल हितैषी, फखरूल करीम, जेपी मिश्रा, सुबोध शुक्ला, धनंजय चोपड़ा, अविनाश मिश्र, श्रीप्रकाश मिश्र, आमोद माहेश्‍वरी, फज़ले हसनैन, सुरेन्द्र राही, अमरेन्द्र सिंह सहित तमाम साहित्य प्रेमी उपस्थित रहे।

[रिपोर्ट अंश साभार अमर उजाला ब्यूरो इलाहाबाद ]

एक देशगान -मुखिया अपनी चुप्पी तोड़ो

एक गीत 
भारत का राष्ट्रीय ध्वज 

एक गीत -मुखिया अपनी चुप्पी तोड़ो  


मुखिया 
अपनी चुप्पी तोड़ो |
अब दुश्मन की 
बाँह मरोड़ो |

हिम्मत बढ़ती 
पाक- चीन की ,
तुम्हें नहीं 
चिंता जमीन की ,
भारत माँ के 
पुत्र करोड़ो |

रघुपति राघव 
अभी न गाओ .
संकट में है 
देश बचाओ ,
आंधी -तूफानों 
को मोड़ो |

हिन्दू ,मुस्लिम ,
सिक्खों जागो ,
देश एकता में 
फिर तागो ,
हर भारतवासी 
को जोड़ो |

उठो -उठो सिंहों 
ललकारो ,
अजगर को 
अब पंजे मारो ,
सिर को कुचलो 
ऑंखें फोड़ो |

Sunday 28 April 2013

एक कविता 'सपने में शहर' -कवि अरुण आदित्य


कवि / कथाकार  -अरुण आदित्य
सम्पर्क -08392920836
एक कविता -सपने में शहर / कवि अरुण आदित्य 
सपने में शहर 
[चंडीगढ़ में बिताए दिनों की स्मृति में ]

पत्थरों का बगीचा देखता है स्वप्न 
कि वह सुख की झील बन जाए 
झील का स्वप्न है कि नदी बन बहती रहे 

नदी की लहरें सुर लहरियां बन जाना चाहती हैं 
सुर लहरियां थिरकते पांवों में तब्दील हो जाना चाहती हैं 

यहाँ जो लाल है 
वह हरा हो जाने कि उम्मीद में है 
जो हरा है ,वह चटख पीला हो जाना चाहता है 

फूल के मन में है तितली बन जाने का ख़्वाब 
तितली चाहती है हवा हो जाए 
हवा सोचती है वह क्या हो जाए ?

इस शहर में जो है 
वह जैसा है से कुछ और हो जाना चाहता है 
पर क्या यह इसी शहर की बात है ?



अरुण आदित्य चंडीगढ़ प्रवास के समय 
परिचय -अरुण आदित्य समकालीन हिंदी कविता के सजग और संवेदनशील कवि है | कवि होने के साथ ही एक बड़े उपन्यासकार और एक ईमानदार पत्रकार भी हैं |अरुण जी का जीवन विविधताओं से भरा है |उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जनपद में 02-03-1965 को इनका जन्म हुआ था |लेकिन पत्रकारिता की शुरुआत इन्दौर से हुई ,काफी दिनों तक अमर उजाला के साहित्य सम्पादक भी रहे |इस समय इलाहाबाद में अमर उजाला के सम्पादक हैं |उत्तर वनवास इनका सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है जिसकी तारीफ कई बार जाने -माने आलोचक नामवर सिंह भी कर चुके हैं |हमारे समय का यह महत्वपूर्ण उपन्यास है |इनका एक कविता संग्रह यह सब रोज नहीं होता प्रकाशित हो चुका है |स्वभाव से हंसमुख और विनम्र इस बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि की एक कविता हम आपके साथ साझा कर रहे हैं |आभार सहित |

Thursday 25 April 2013

एक देश गान -जाग रहा है हिन्दुस्तान


भारतीय राष्ट्रध्वज 


एक गीत -जाग रहा है हिन्दुस्तान 

हमें चीनियों 
मत दिखलाओ 
अपनी ताकत का अभिमान |
सन बासठ में 
सोया था जो 
जाग रहा है हिन्दुस्तान |

छेड़ो मत 
लद्दाख ,हिमालय 
छेड़ो मत कश्मीर हमारा ,
सवा लाख ते 
एक लड़ाऊँ ऐसा 
है  हर  वीर हमारा ,
युद्ध थोपते 
नहीं किसी पर 
हम करते सबका सम्मान |

सत्य ,अहिंसा 
दया ,धर्म की 
बातें हम अक्सर करते हैं ,
इसका मतलब 
यह मत समझो
हम हथियारों से डरते हैं ,
दुनिया भर को 
सिखलाया है 
हमने गणित और विज्ञान |

जल ,थल -
नभ की सीमाओं में 
नहीं कहीं हम डरने वाले ,
सवा अरब से 
भी जादा हम 
मातृभूमि पर मरने वाले ,
हम सब अपने 
शौर्य ,शक्ति का 
रोज नहीं करते गुणगान |

अगर अहिंसा 
फेल हो गई 
भगत सिंह की राह चलेंगे ,
छूटा गर 
ब्रह्मास्त्र हमारा 
दुनिया के सब शहर जलेंगे ,
नहीं झुका है 
नहीं झुकेगा 
सदियों तक यह हिन्दुस्तान |

Saturday 6 April 2013

एक गीत -यह तो वही शहर है


चित्र -गूगल से साभार 

एक गीत -यह तो वही शहर है 
यह तो 
वही शहर है 
जिसमें गंगा बहती थी |
एक गुलाबी -
गंध हवा के 
संग -संग बहती थी |

पन्त ,निराला 
यहीं निराली 
भाषा गढ़ते थे ,
इसकी 
छाया में बच्चन 
मधुशाला पढ़ते थे ,
एक महादेवी 
कविता की 
इसमें रहती थी |

अब इसमें 
कुछ धूल भरे 
मौसम ही आते हैं ,
छन्दहीन 
विद्यापति 
बनकर गीत सुनाते हैं ,
उर्वर थी 
यह मिट्टी 
इतनी कभी न परती थी |

संगम है 
लेकिन धारा तो 
मलिन हो गयी है ,
इसकी 
लहरों की भाषा 
कुछ कठिन हो गयी है ,
यही शहर है 
जिसमें 
शाम कहानी कहती थी |

मंच-
विदूषक अब 
दरबारों के नवरत्न हुए ,
मंसबदारी 
हासिल 
करने के बस यत्न हुए ,
यही 
शहर है जहाँ 
कलम भी दुर्दिन सहती थी |

Wednesday 3 April 2013

'अनभै साँचा 'हिंदी त्रैमासिक का समकालीन हिंदी ग़ज़ल विशेषांक -एक नज़र


हिंदी त्रैमासिक पत्रिका 'अनभै साँचा 'का ग़ज़ल विशेषांक -एक नज़र 


साहित्य और संस्कृति की त्रैमासिक पत्रिका अनभै साँचा कल डाक से मिली सुखद अनुभूति हुई |यह पत्रिका का उनतीसवां अंक है ,जो समकालीन हिन्दी ग़ज़ल विशेषांक है |यह विशेषांक भी नया ज्ञानोदय की तर्ज [हाल ही में प्रकाशित ग़ज़ल महाविशेषांक ] पर नये -पुराने ग़ज़लकारों की गजलों से सजा एक संग्रहणीय अंक बन पड़ा है |पत्रिका में मेरी दो पुरानी ग़ज़लें सम्पादक द्वारा कहीं से प्राप्त कर प्रकाशित कर दी गयीं हैं ,पता में मामूली त्रुटि भी है |लेकिन पढ़कर अच्छा लगा इस पत्रिका के परामर्श दाता जाने -माने कवि डॉ 0 केदारनाथ सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी जी हैं |अंक का विशेष सम्पादन ज्ञानप्रकाश विवेक  ने किया है |सम्पादन सहयोग अनामिका ,जगमोहन राय ,विक्रम सिंह ,हरियश राय ,बली सिंह ,मनोज सिंह और ऋचा का है |पत्रिका के सम्पादक द्वारिका प्रसाद चारुमित्र हैं |यह पत्रिका खुबसूरत कवर से सजी कुल एक सौ बयानबे पृष्ठ की है |पत्रिका को सम्पादकीय के अतिरिक्त कुल तीन खण्डों में विभाजित किया गया है |प्रथम खण्ड में आलेख के अन्तर्गत शलभ श्रीराम सिंह ,डॉ मधुकर खराटे ,महेश अश्क और सुल्तान अहमद के आलेख हैं |विशेष सम्पादकीय में ज्ञानप्रकाश विवेक की कलम से जो कुछ उचित समझा गया है लिखा गया है |छन्द विधा में गीत हो या ग़ज़ल आलेख कहीं न कहीं मित्रों दोस्तों तक सिमट जाते हैं |इस सन्दर्भ में लेखकों को कुछ और ईमानदार होने की आवश्यकता है | हमारी विरासत के अन्तर्गत अमीर खुसरो ,कबीर ,प्यारेलाल शोकी ,किशोरीलाल 'प्रेमघन 'स्वामी रामतीर्थ 'सनेही ',मैथिलीशरण गुप्त ,जयशंकर प्रसाद ,निराला ,भारतेन्दु हरिश्चंद्र और शमशेर बहादुर सिंह की ग़ज़लें शामिल हैं |समकालीन ग़ज़लें शीर्षक के अन्तर्गत दुष्यन्त कुमार से लेकर कुल 78 शायर शामिल किये गए हैं |  चारुमित्र जी के सम्पादन में एक उत्कृष्ट पत्रिका निकल रही है और यह अंक तो विशेष रूप से सराहनीय है |

पत्रिका का नाम -अनभै साँचा 
सम्पादक -द्वारिका प्रसाद चारुमित्र 
अंक -समकालीन हिंदी ग़ज़ल विशेषांक 
मूल्य -साठ रूपये 
सम्पादकीय पता -
148,कादंबरी ,सेक्टर -9,रोहिणी ,दिल्ली -110085
mob.no.09811535148

Sunday 24 March 2013

एक गीत -इन्द्रधनुष लगता गोरी का गाल कि होली आई है

चित्र -गूगल से साभार 
मित्रों आप सभी को सपरिवार होली की शुभकामनाएँ -इस बार चाह कर भी कोई गीत नहीं लिख सका ,डायरी में एक बहुत पुराना गीत मिला ,वही पोस्ट कर रहा हूँ |गाँव जा रहा हूँ अब कुछ दिन अंतर्जाल से दूर रहूँगा |आशा है आप अपना स्नेह बनाए रक्खेंगे |आभार सहित -

एक गीत -होली आई है 
हवा उड़ाती 
घर -घर रंग -
गुलाल कि होली आई है |
लाज -शरम से 
हुई दिशाएं लाल 
कि होली   आई है |

साँस -साँस में 
गीत समाये ,
नैन इशारे 
हवा बुलाये ,
नदिया गाये फाग 
कबीरा ताल
कि   होली आई है |

मौसम में 
आवारापन है ,
खिली धूप में 
क्वारापन है ,
रंगी अबीरों से 
सूनी चौपाल 
कि होली आई है |

दरपन से भी 
हंसी -ठिठोली ,
शहद हो गयी 
सबकी बोली ,
इन्द्रधनुष लगता 
गोरी का गाल 
कि होली आई है |

गली -गली 
गोकुल -बरसाने ,
बच्चे -बूढ़े 
और सयाने ,
फेंक रहे 
मछली के ऊपर जाल 
कि   होली आई है |

Monday 11 March 2013

भोपाल से प्रकाशित अन्तरा का गीत विशेषांक -एक अवलोकन

सम्पादक -नरेन्द्र दीपक 
अन्तरा का गीत विशेषांक -एक समीक्षा 

भोपाल मध्य प्रदेश की राजनैतिक राजधानी ही नहीं वरन साहित्यिक और सांस्कृतिक राजधानी भी है | इस शहर की साहित्यिक गतिविधिया समूचे देश को प्रभावित करती हैं | कुछ दिन पूर्व ही जाने -माने कवि भाई नरेन्द्र दीपक ने गीत विधा पर केन्द्रित पत्रिका अन्तरा के प्रकाशन का शुभारम्भ किया था ,जो पाठको के बीच अपनी अलग छवि बनाने में कामयाब रही है | अन्तरा का छठा अंक बहुत ही पठनीय और संग्रहनीय है |यह अंक गीत विशेषांक है | हाल ही में गीत विधा पर कई विशेषांक प्रकाशित हुए है सबकी अपनी -अपनी सम्पादकीय दृष्टि और सोच है ,इसी तरह भाई नरेन्द्र दीपक की अपनी सोच है | अन्तरा के अंक के बारे में यही कहना उचित होगा -सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर ......वास्तव में यह कोई भारी -भरकम अंक नहीं है लेकिन इस अंक में अन्य गीत अंको से बहुत कुछ अलग है | पत्रिका के आरम्भ में तीन महत्वपूर्ण आलेख हैं -हिंदी गीतों का व्यापक वितान लेखक कैलाशचन्द्र पन्त ,नवगीत गीत है पर डॉ0 भारतेन्दु मिश्र का आलेख ,गीतों की सदानीरा नदी नर्मदा पर चन्द्रसेन विराट  का आलेख | ग्यारह छायावादोत्तर प्रमुख कवियों के एक -एक गीत के साथ उन पर चर्चा [आलेख ] इस अंक को संग्रहनीय बनाता है | ये वो कवि है जिनसे गीत विधा को गौरव हासिल हुआ है -रामेश्वर शुक्ल अंचल पर दिवाकर वर्मा का आलेख ,हरिवंशराय बच्चन पर राम अधीर का आलेख ,गोपाल सिंह नेपाली पर डॉ 0 सुरेश गौतम का आलेख शिवमंगल सिंह सुमन पर श्रीराम परिहार का आलेख ,बलवीर सिंह रंग पर डॉ 0 प्रेम कुमारी कटियार का आलेख रमानाथ अवस्थी पर डॉ सुरेश गौतम का आलेख ,वीरेन्द्र मिश्र पर शिवशंकर शर्मा का आलेख पदमविभूषण गोपालदास नीरज पर डॉ0 पशुपतिनाथ उपाध्याय का आलेख ,मुकुटबिहारी सरोज पर सुमेर सिंह शैलेश का आलेख और डॉ0 शिव बहादुर सिंह भदौरिया पर मधु शुक्ला का पठनीय आलेख है | गीत खण्ड के अंतर्गत कुछ चुनिन्दा गीतकारों को ही शामिल किया गया है जिनके नाम इस क्रम में हैं -यश मालवीय ,कुमार रवीन्द्र ,शान्ति सुमन ,मधु शुक्ला ,राजकुमारी रश्मि ,दिनेश शुक्ल ,राम सेंगर ,जयकृष्ण राय तुषार ,रजनी मोरवाल ,किशोर काबरा ,जगदीश श्रीवास्तव ,सत्येन्द्र तिवारी और चन्द्रसेन विराट ,स्तम्भ के अंतर्गत ज्योत्स्ना प्रवाह का आलेख प्रेम एक गीत है पठनीय है |बिलकुल प्रारम्भ में नीरज जी का एक गीत है | कुल मिलाकर सम्पादक नरेन्द्र दीपक का यह बेजोड़ कार्य सराहनीय है और उनकी सम्पादकीय टीम साधुवाद की हक़दार है |गीतों के पतन में स्वयं गीत कवियों की भूमिका प्रमुख रही है मंचीय स्वभाव एक दूसरे पर गद्य में कुछ न लिखना ,अपने से बड़ा गीत कवि किसी को न मानना भी एक कारण है |लेकिन गीत तो प्रकृति की हर लय में समाहित है ,यह कभी ख़त्म ही नहीं हो सकता बस इसका तेवर और कलेवर बदल सकता है |यह विरहाकुल नायिका का दोस्त है तो प्रेम मग्न नायक नायिका को रिझाता है |कभी खेत में काम करते मजदूर का साथ निभाता है तो कभी क्रांति का काम करता है | गीत हमेशा जीवित रहेगा और इसे जीवित रखेगें भाई नरेन्द्र दीपक जैसे जीवट वाले सम्पादक उसे जीवित रखेगें कलम के सिपाही | वाचिक परम्परा का होने के कारण भी गीत कभी खत्म नहीं होगा | गीत की यह मशाल युगों -युगों तक जलती रहे |अन्तरा निरन्तर अपने प्रयास में दिनमान की तरह प्रकाशमान रहे |
-मेरी कलम से 


सिद्ध गीतकार नरेन्द्र दीपक के सम्पादन में निकलने वाली गीतधर्मी पत्रिका अन्तरा का ताज़ा विशेषांक गीत केन्द्रित ही रखा गया है | दीपक जी की रचनात्मक प्रखर दृष्टि और संयोजन में इसे एक सर्जनात्मक चेहरा दे दिया |गीत में हमारी परम्परा और आज का गीत दोनों का ही प्रतिनिधित्व हुआ है | शिवमंगल सुमन जी से लेकर मधु शुक्ला के गीतात्मक संसार से पत्रिका हमें परिचित कराती है |निश्चित रूप से यह अपने समय में दर्ज एक रचनात्मक आन्दोलन है ,जिसकी एक विलक्षण भाव- भूमि अभिभूत करती है |
सुप्रसिद्ध गीत कवि -यश मालवीय 

एक गीत -मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार 
कवि -शिवमंगल सिंह सुमन 
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार 
पथ ही मुड़ गया था |

गति मिली मैं चल पड़ा 
पथ पर कहाँ रुकना मना था 
राह अनदेखी ,अजाना देश 
संगी अनसुना था |
चाँद -सूरज की तरह चलता 
न जाना रात -दिन है 
किस तरह हम तुम गए मिल 
आज भी कहना कठिन है 
तन न आया मांगने अभिसार 
मन ही जुड़ गया था |

देख मेरे पंख चल ,गतिमय 
लता भी लहलहाई 
पत्र आंचल में छिपाए मुख 
कली भी मुस्कुराई |
एक क्षण को थम गए  डैने 
समझ विश्राम का पल 
पर प्रबल संघर्ष बनकर 
आ गयी आंधी सदल -बल |
डाल झूमी पर न टूटी 
किन्तु पंछी उड़ गया था |

कवि -शिवमंगल सिंह सुमन 

एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता

चित्र साभार गूगल  एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता सफ़र में धुंध सा बादल, कभी शजर आता इसी से चाँद मुक़म्मल नहीं नज़र आता बताता हाल मैं ...