Tuesday 17 April 2012

एक गज़ल -फूल से मिलना तो फूलों सी तबीयत रखना

चित्र -गूगल से साभार 
एक गज़ल -फूल से मिलना तो फूलों सी तबीयत रखना 
खार से रिश्ता भले खार की सूरत रखना 
फूल से मिलना तो फूलों सी तबीयत रखना 

जब भी तकसीम किया जाता है हँसते घर को 
सीख जाते हैं ये बच्चे भी अदावत रखना 

हम किसे चूमें किसे सीने पे रखकर रोयें 
दौर -ए -ईमेल में मुमकिन है कहाँ खत रखना 

जिन्दगी बाँह में बांधा  हुआ  तावीज नहीं 
गर मिली है तो इसे जीने की कूवत  रखना 

रेशमी जुल्फ़ें ,ये ऑंखें ,ये हँसी के झरने 
किस अदाकार से सीखा ये मुसीबत रखना 

चाहता है जो तू दरिया से समन्दर होना 
अपना अस्तित्व मिटा देने की फितरत रखना 


जिसके सीने में सच्चाई के सिवा कुछ भी नहीं 
उसके होठों पे उँगलियों को कभी मत रखना 

जब उदासी में कभी दोस्त भी अच्छे न लगें 
कैद -ए -तनहाई की इस बज्म में आदत रखना  

इसको सैलाब भी रोके तो कहाँ रुकता है 
इश्क की राह, न दीवार, न ही छत रखना 
[ मेरी यह ग़ज़ल नया ज्ञानोदय के ग़ज़ल महाविशेषांक में प्रकाशित है ]
चित्र -गूगल से साभार 

Friday 13 April 2012

एक गीत -शहरों के नामपट्ट बदले

चित्र -गूगल से साभार
एक गीत -शहरों के नामपट्ट बदले 
चाल -चलन 
जैसे  थे वैसे 
शहरों के नामपट्ट बदले |
भेदभाव 
बाँट रही सुबहें 
कोशिश हो सूर्य नया निकले |

दमघोंटू 
शासन है 
जनता के हिस्से ,
विज्ञापनजीवी 
अख़बारों के 
किस्से ,
हैं कोयला 
खदानों के 
सब दावे उजले |

मीरा के 
होठों पर 
जहर भरी प्याली ,
है औरत के 
हिस्से का 
आसमान खाली ,
बस आंकड़े 
तरक्की के 
कागज पर उछले |

लूटमार 
हत्याएँ 
घपले -घोटाले ,
हम केवल 
मतदाता 
वोट गए डाले ,
हैं गंगाजल 
भरे हुए 
पात्र सभी गँदले |

आंधी का 
मौसम है 
फूलों में गंध कहाँ ,
कबिरा की 
बानी में 
अब वैसा  छन्द कहाँ ,
शहर 
हुए चांदी के 
गाँव रहे  तसले |
चित्र -गूगल से साभार 

Sunday 8 April 2012

एक गीत -बांध रहे नज़रों को फूल हरसिंगार के

चित्र -गूगल से साभार 
बांध रहे नज़रों को फूल हरसिंगार के
बाँध रहे 
नज़रों को 
फूल हरसिंगार के |
तुमने 
कुछ बोल दिया 
चर्चे हैं प्यार के |

मौसम का 
रंग -रूप 
और अधिक निखरा है ,
सैलानी 
मन मेरा 
आसपास बिखरा है ,
आज 
मिला कोई 
बिन चिट्ठी ,बिन तार के |

उतरे हैं 
पंछी ये 
झुकी हुई डाल से ,
रिझा गया 
कोई फिर 
नैन ,नक्श ,चाल से |
टीले 
मुस्तैद खड़े 
जुल्फ़ को संवार के |

बलखाती 
नदियों के संग 
आज बहना है ,
अनकहा 
रहा जो कुछ 
आज वही कहना है ,
अब तक 
हम दर्शक थे 
नदी के कगार के |
[मेरा यह गीत नवगीत की पाठशाला में हाल ही में प्रकाशित हो चुका है -साभार ]

Wednesday 4 April 2012

एक गीत -आदिम युग से चिड़िया गाना गाती है

चित्र -गूगल से साभार 
एक गीत
आदिम युग से चिड़िया गाना गाती है
मौसम की  
आँखों से 
आँख मिलाती है |
आदिम 
युग से 
चिड़िया गाना गाती है |

आँधी -
ओले ,बर्फ़ 
सभी कुछ सहती है ,
पर अपनी 
मुश्किल 
कब हमसे कहती है ,
बच्चों को 
राजा को 
सबको भाती है |

एक घोंसले 
में चिड़िया 
रह लेती है ,
अंडे -बच्चे 
सभी उसी 
में सेती है ,
नर से 
मादा अपनी 
चोंच लड़ाती है |

चिड़िया 
जंगल की 
आँखों का ऐनक है ,
सुबहों 
संध्याओं की 
इससे रौनक है ,
सुख -
दुःख की 
चिट्ठी -पत्री पहुँचाती है |

आसमान 
यादों का 
जब भी नीला हो ,
सना हुआ 
आटा 
परात में गीला हो ,
मुंडेरों से 
उड़कर 
चिड़िया आती है |
चित्र -गूगल से साभार 

एक गीत -इनसे कुछ मत कहना साथी

चित्र -गूगल से साभार 
गीत -इनसे कुछ मत कहना साथी 
परधानों के 
हिस्से आई 
खेतों की हरियाली |
मजदूरों के 
हिस्से स्लम की 
बहती गन्दी नाली |

इनसे कुछ 
मत कहना साथी 
मौसम हुए पठारी ,
जंगल को 
झुलसा देने की 
है पूरी  तैयारी ,
रोटी -दाल 
हमें क्या देंगे 
छीन रहे ये थाली |

सिर पर 
भारी बोझ 
हवा का रुख खिलाफ़ है ,
सत्ता 
जिसकी- उसका 
सारा कर्ज  माफ़ है ,
सूदखोर 
के लिए फसल की 
हम करते रखवाली |

खेल तमाशा 
और सियासत 
चाहे जितना कर लो ,
लेकिन इस 
निरीह जनता का 
कुछ दुःख राजा हर लो ,
जनता होगी 
तब होंगे ये 
इन्द्रप्रस्थ ,वैशाली |


हम तो 
हारी प्रजा, हमेशा 
लाक्षागृह में जलते ,
कितने  बड़े 
अभागे हमसे 
विदुर तक नहीं मिलते ,
हम सुकरात 
हमारे हिस्से 
सिर्फ़ जहर की प्याली |
चित्र -गूगल से साभार 

एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता

चित्र साभार गूगल  एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता सफ़र में धुंध सा बादल, कभी शजर आता इसी से चाँद मुक़म्मल नहीं नज़र आता बताता हाल मैं ...