Saturday, 19 July 2025

एक ग़ज़ल -अब तो बाज़ार की मेहंदी लिए बैठा सावन

  

चित्र साभार गूगल

एक ग़ज़ल 


ग़ुम हुए अपनी ही दुनिया में सँवरने वाले 

हँसके मिलते हैं कहाँ राह गुजरने वाले 


घाट गंगा के वही नाव भी केवट भी वही 

अब नहीं राम से हैं पार उतरने वाले 


फैसले होंगे मगर न्याय की उम्मीद नहीं 

सच पे है धूल गवाहान मुकरने वाले 


अब तो बाज़ार की मेहंदी लिए बैठा सावन

रंग असली तो नहीं इससे उभरने वाले


ढूँढता हूँ मैं हरेक शाम अदब की महफ़िल

जिसमें कुछ शेर तो हों दिल में उतरने वाले



कवि जयकृष्ण राय तुषार

सभी चित्र साभार गूगल

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