चित्र सभार गूगल |
ग़ज़ल को परिभाषित करने की एक छोटी कोशिश
एक ग़ज़ल -सुर्खाब ग़ज़ल
शोख इठलाती हुई परियों का है ख़्वाब ग़ज़ल
झील के पानी में उतरे तो है महताब ग़ज़ल
वन में हिरनी की कुलांचे है ये बुलबुल की अदा
चाँदनी रातों में हो जाती है सुर्खाब ग़ज़ल
उसकी आँखों का नशा ,जुल्फ की ख़ुशबू,टीका
रंग और मेहंदी रचे हाथों का आदाब ग़ज़ल
ये तवायफ की,अदीबों की,है उस्तादों की
हिंदी,उर्दू के गुलिस्ताँ में है शादाब ग़ज़ल
कूचा-ए-जानाँ,भी मज़दूर भी,साक़ी ही नहीं
एक शायर की ये दौलत यही असबाब ग़ज़ल
खुल के सावन में मिले और बहारों में खिले
ग़म समंदर का है दरियाओं का सैलाब ग़ज़ल
इसमें मौसीक़ी भी दरबारों की महफ़िल भी यही
अपने महबूब के दीदार को बेताब ग़ज़ल
मेरे सीने में भी कुछ आग,मोहब्बत है तेरी
मेरी शोहरत भी तुझे करती है आदाब ग़ज़ल
कवि/शायर
जयकृष्ण राय तुषार
चित्र सभार गूगल |
गज़ब! ग़ज़ल पर ग़ज़ल सुंदर उपमाओं से सुसज्जित।
ReplyDeleteउम्दा सृजन।
हार्दिक आभार आपका।सादर अभिवादन
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteहार्दिक आभार।सादर अभिवादन
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