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चित्र -गूगल से साभार |
उड़ते हुए बाजों से कभी डर नहीं लगता
मुद्दत से दीवारों ने जहाँ ख्वाब न देखा
वो ताजमहल होगा मगर घर नहीं लगता
पौधे न सही फूल के ,कांटे तो उगे हैं
साबित तो हुआ बाग ये बंजर नहीं लगता
नदियों के अगर बांध ये टूटे नहीं होते
ये गांव था यारों ये समन्दर नहीं लगता
हर हर्फ़ यहाँ लिक्खा है रिश्वत की कलम से
इन्साफ करे करे ऐसा ये दफ़्तर नहीं लगता
ये शोर पटाखों के हैं कुछ चीखें दबाये
ऐ दोस्त दीवाली का ये मंजर नहीं लगता
इस पेड़ की शाखों पे अगर फल नहीं होते
इन गाते परिन्दों को ये पत्थर नहीं लगता
[मेरी यह गज़ल दैनिक जागरण के साहित्यिक परिशिष्ट पुनर्नवा में प्रकाशित हो चुकी है ]