Monday 31 October 2011

एक गज़ल -इन नन्हें परिन्दों को

चित्र -गूगल से साभार 
इन नन्हें परिन्दों को अगर पर नहीं लगता 
उड़ते हुए बाजों से कभी डर नहीं लगता 

मुद्दत से दीवारों ने जहाँ ख्वाब न देखा 
वो ताजमहल होगा मगर घर नहीं लगता 

पौधे न सही फूल के ,कांटे तो उगे हैं 
साबित तो हुआ बाग ये बंजर नहीं लगता 

नदियों के अगर बांध ये टूटे नहीं होते 
ये गांव था यारों ये समन्दर नहीं लगता 

हर हर्फ़ यहाँ लिक्खा है रिश्वत की कलम से 
इन्साफ करे करे ऐसा ये दफ़्तर नहीं लगता 

ये शोर पटाखों के हैं कुछ चीखें दबाये 
ऐ दोस्त दीवाली का ये मंजर नहीं लगता 

इस पेड़ की शाखों पे अगर फल नहीं होते 
इन गाते परिन्दों को ये पत्थर नहीं लगता 

[मेरी यह गज़ल दैनिक जागरण के साहित्यिक परिशिष्ट पुनर्नवा में प्रकाशित हो चुकी है ]

Monday 24 October 2011

एक गीत -महक रहा खुशबू सा मन

चित्र -गूगल से साभार 
मित्रों आप सभी को दीपावली की सपरिवार शुभकामनाएं |एक ताज़ा गीत आज सुबह लिखकर आपके लिए पोस्ट कर रहा हूँ |आज गांव जाना है तीस अक्टूबर तक अंतर्जाल से दूर रहूँगा तब तक के लिए विदा ले रहा हूँ |आज एक आश्चर्य हुआ मेरे ब्लॉग सुनहरी कलम पर किसी ने टिप्पड़ी किया मेरे ही ईमेल जैसा नाम बस एक अक्षर नहीं था |मैंने कमेंट्स डिलीट कर दिया |लेकिन यदि किसी ब्लॉग पर मेरे नाम से कोई भद्दा कमेंट्स हो तो मुझे क्षमा करेंगे |मैं लौटकर निगरानी करूँगा |मेरा कम्प्यूटर का ज्ञान  बस ब्लोगिंग तक सीमित है |लेकिन किसी ने दुबारा गलत हरकत किया तो साईबर क्राईम के अंतर्गत मुकदमा करने में भी नहीं हिचकूंगा |आप सभी का स्नेहाकांक्षी -जयकृष्ण राय तुषार 
आँगन में चंद्रमा उगा 
गेंदा के 
फूलों सी देह 
महक रहा खुशबू सा मन |
आंगन में 
चन्द्रमा उगा 
भर गया प्रकाश से गगन |

घी डूबी 
मोम सी उँगलियाँ 
रह -रह के बाती को छेड़तीं ,
लौ को जब 
छेड़ती हवाएँ 
दरवाजा हौले से भेड़तीं ,
टहनी में 
उलझा है आंचल 
पुरवाई तोड़ती बदन |

भाभी सी 
सजी हुई किरनें 
इधर उधर  चूड़ियाँ बजातीं ,
चौके से 
पूजाघर तक 
उत्सव के गीत गुनगुनातीं ,
लौटे कजरौटों 
के दिन 
काजल का आँख से मिलन |

मौन पिता 
बैठे दालान में 
आज हुए किस तरह मुखर ,
गंगासागर 
जैसी माँ 
गोमुख सी लग रही सुघर |
खिला -खिला 
गुड़हल सा मन 
संध्या के माथे चन्दन |
चित्र -गूगल से साभार 

Friday 21 October 2011

एक गीत -सन्दर्भ -घर से दूर खड़ी दीवाली

चित्र -गूगल से साभार 
घर से दूर खड़ी दीवाली
घर से दूर 
खड़ी दीवाली 
सारी रात अमावस काली |

महालक्ष्मी 
गणपति बाबा 
धनकुबेर हो गए प्रवासी ,
फिर भी 
ले पूजा की थाली 
बाट जोहती पूरनमासी ,
संवरी बहू 
न बिंदिया चमकी 
फीकी है होठों की लाली |

मन में बस 
फुलझड़ियां छूटीं 
महंगाई के डर के मारे ,
घर -आंगन 
खपरैल -खेत में 
अंधकार ने पांव पसारे ,
घर की मलकिन 
उलटे -पलटे 
खाली जेबें बटुआ खाली |

हुई पीलिया ग्रस्त 
रोशनी 
सिकुड़ गयी दीये की बाती ,
उतर न पाया 
भूत कर्ज का 
उतर न पाई साढ़ेसाती ,
जितने भी 
सपने देखे थे 
सबके सब हो गए मवाली |
चित्र -गूगल से साभार 
[मेरा यह गीत जनसत्ता वार्षिकांक 2010[ कोलकाता से ]में प्रकाशित है ]

Sunday 16 October 2011

महाप्राण निराला की पचासवीं पुण्य तिथि-एक यादगार आयोजन

हिन्दी के महान कवि पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 
निराला जी की पचासवीं पुण्य तिथि पर निराला जी की कलम, पत्र ,टोपी, कुर्ता और डाक टिकट इलाहबाद संग्रहालय को सुपुर्द करते महाप्राण निराला के पौत्र  डॉ० अमरेश त्रिपाठी -सबसे बाएं कथाकार प्रो० दूधनाथ सिंह उनके पीछे कवयित्री अनामिका सिंह ,मध्य में संग्रहालय के निदेशक डॉ० राजेश पुरोहित उनके दायें डॉ० अमरेश त्रिपाठी उनके दायें मंगलेश डबराल एकदम दायें निराला संस्थान के अध्यक्ष चन्द्र विजय चतुर्वेदी 
महाप्राण  निराला की पचासवीं पुण्य तिथि-एक यादगार आयोजन
विगत शनिवार 15-10-2011 हिन्दी के महान कालजयी कवि महाप्राण निराला की पुण्यतिथि गरिमापूर्ण ढंग से इलाहाबाद संग्रहालय में  मनायी गयी | इस अवसर पर निराला जी की कलम ,उनका कुर्ता ,टोपी ,कुछ पत्र और महादेवी द्वारा हस्ताक्षरित भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट महाप्राण निराला  के पौत्र  डॉ० अमरेश त्रिपाठी द्वारा संग्रहालय के निदेशक डॉ० राजेश पुरोहित को भेंट किया गया | इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार प्रोफेसर दूधनाथ सिंह ने किया | कार्यक्रम के मुख्य वक्ता जाने -माने कवि मंगलेश डबराल थे |कार्यक्रम में भोपाल से आये चर्चित कथाकार हरि भटनागर का कहानी पाठ ,मंगलेश डबराल और दिल्ली से आयी चर्चित कवयित्री अनामिका सिंह का काव्य पाठ भी हुआ |इस कार्यक्रम का संचालन इलाहाबाद विश्व विद्यालय के हिन्दी विभाग के रीडर  सूर्यनारायण ने किया |अतिथियों का स्वागत संग्रहालय के निदेशक डॉ० राजेश पुरोहित ने किया तत्पश्चात कार्यक्रम का शुभारम्भ महाप्राण निराला जी द्वारा लिखित सरस्वती वन्दना 'वर दे ----के सस्वर पाठ से हुआ ,जिसे निराला जी के ही पौत्र डॉ० अमरेश त्रिपाठी ने किया |मंच पर निराला साहित्य संसथान के अध्यक्ष श्री चन्द्र विजय चतुर्वेदी जी भी उपस्थित थे |कार्यक्रम में निराला जी के प्रपौत्र युवा कवि विवेक निराला महाप्राण निराला की पौत्र वधू और अमरेश त्रिपाठी जी की धर्मपत्नी एवं असोसिएट प्रोफेसर  डॉ० अर्चना त्रिपाठी [एस० एस० खन्ना डिग्री कालेज ,इलाहाबाद ]एवं निराला जी के ही एक अन्य पौत्र डॉ० अखिलेश त्रिपाठी जी मौजूद थे |प्रमुख श्रोताओं में डॉ० एस० के० शर्मा ,श्री राजेश मिश्र ,श्री रंजन शुक्ल ,डॉ० प्रभाकर पाण्डेय [संग्रहालय से ]उर्दू विभागाध्यक्ष प्रो० अली अहमद फातमी [इलाहाबाद यूनिवर्सिटी ]प्रोफेसर अनीता गोपेश ,अनिल सिद्धार्थ ,कमल किशोर यश मालवीय ,हरीश चन्द्र पांडे अजित पुष्कल आदि मौजूद थे |
महाप्राण निराला की पचासवीं पुण्य तिथि पर इलाहाबाद संग्रहालय में आयोजित कार्यक्रम  में कहानी पाठ करते कथाकार हरि भटनागर एकदम बाएं कवयित्री अनामिका सिंह उनके दायें क्रमश वरिष्ठ कथाकार और कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रोफेसर दूधनाथ सिंह ,मंगलेश डबराल और चन्द्र विजय चतुर्वेदी अध्यक्ष निराला साहित्य संस्थान इलाहाबाद 

Wednesday 12 October 2011

एक गीत -चुप्पी ओढ़ परिन्दे सोये सारा जंगल राख हुआ

चित्र -गूगल से साभार 
चुप्पी ओढ़ परिंदे सोये सारा जंगल राख हुआ 
राजनीति के 
नियम न जानें 
फिर भी राजदुलारे हैं |
राजमहल की 
बुनियादों पर 
गिरती ये दीवारें हैं |

सबकी प्यास 
बुझाने वाले 
मीठे झरने सूखे हैं ,
गोदामों में 
सड़ते गेहूँ 
और प्रजाजन भूखे हैं ,
अब तो 
केवल अपनी प्यास 
बुझाते ये फव्वारे हैं |

चुप्पी ओढ़ 
परिन्दे सोये 
सारा जंगल राख हुआ ,
वनराजों का 
जुर्म हमेशा ही 
जंगल में माफ़ हुआ ,
कैसे -कैसे 
राजा ,मंत्री 
कैसे अब हरकारे हैं |

क्रान्ति 
सिताब -दियारा से हो 
या दांडी के रस्ते हो ,
संसद में 
जाकर के प्यारे 
बस जनता पर हँसते हो ,
रथयात्राएं 
कितनी भी हों 
हम हारे के हारे हैं |

राजघाट भी 
जाना हो तो चलें 
लिमोजिन कारों से ,
अब  समाजवादी, 
जननायक ,
आते  पांच सितारों से ,
हम शीशे की 
बन्द दीवारों में 
धुंधलाए पारे हैं |

जब भी हम 
चेहरे को देखें 
धुँधले दरपन आते हैं ,
सिर्फ़ 
रागदरबारी 
सत्ता के खय्याम सुनाते हैं ,
परिवर्तन 
विकास की बातें 
महज किताबी नारे हैं |

Monday 10 October 2011

एक गीत -कालिख पुते हुए हाथों में

चित्र -गूगल से साभार 
कालिख पुते 
हुए हाथों में 
दिये दीवाली के |
कापालिक की 
कैद सभी
मंतर खुशहाली के |

हल टूटे हैं 
खेत रेहन में 
भरते मालगुजारी ,
सूदखोर 
के हाथ सरौते 
हम सब पान -सुपारी ,
पत्तल भी 
अदृश्य क्या देखें 
सपने थाली के ?

जादू -टोने 
तन्त्र -मंत्र सब 
करके हार गये ,
और अधिक 
पीड़ादायक 
निकले बेताल नये ,
इन्द्रप्रस्थ के 
रहें प्रजाजन 
या वैशाली के |

सरपंचों के 
घर -आंगन 
रोशनी नियानों की ,
हम 
बस्ती में रहते 
खस्ताहाल मकानों की ,
सोने में 
उछाल कान 
सूने घरवाली के |

सब नकली 
घी ,हव्य -
आचमन हवनकुंड में ,
बसे पुरोहित 
गांव छोड़ 
दादर ,मुलुण्ड में ,
ढूँढे से भी 
फूल नहीं 
मिलते शेफाली के |

Monday 3 October 2011

एक प्रेम गीत -बीत गया दिन मौसम को पढ़ते

चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 
बीत गया दिन मौसम को पढ़ते -एक गीत 
खुली किताबें 
बीत गया दिन 
मौसम को पढ़ते |
अनगढ़ 
चट्टानों में बैठे 
तुमको हम गढ़ते |

कभी अजंता 
कभी एलोरा 
खजुराहो आये ,
लेकिन तेरा 
रम्य रूप हम 
कहीं नहीं पाये ,

शीशे मिले 
खरोचों वाले 
कहाँ तुम्हें मढ़ते |

कहीं महकते 
फूल कहीं पर 
उगे कास ,बढ़नी ,
हिरन न भटके 
पीछे मुड़कर 
देख रही हिरनी ,

प्यास देखती 
रही झील को 
पर्वत पर चढ़ते |

हरी घास पर 
बैठी चिड़िया 
खुजलाती पाँखें ,
सतरंगी 
सपनों में उलझी 
दो  जोड़ी ऑंखें ,

इच्छाओं के 
रूमालों पर 
फूलों सा कढ़ते |

बंजारन का 
बोझ न उतरे 
सपने अभी कुंवारे ,
मन के जंगल 
हमीं अकेले 
किसको करे इशारे ,

हाथ थामकर 
संग -संग उसके 
हम आगे बढ़ते |
चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 

Sunday 2 October 2011

लोकभाषा में कविता -गान्ही जी- कवि कैलाश गौतम

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी 
यह गाँधी जी को संबोधित लोकभाषा [भोजपुरी ]में लोकप्रिय कवि कैलाश गौतम की पुरानी कविता है इसका पाठ वह कवि सम्मेलनों में भी किया करते थे |आज भी यह कविता उतनी ही प्रासंगिक है |
तोहरे घर के रामै मालिक सबै कहत हौ गान्ही जी 
सिर फूटत हो गला कटत हौ लहू बहत हौ गान्ही जी 
देश बटत हौ जैसे हरदी धान बटत हौ गान्ही जी 
वेर विसवतै ररुवा चिरई रोज ररत हौ गान्ही जी 
तोहरे घर के रामै मालिक सबै कहत हौ गान्ही जी


हिंसा राहजनी हौ बापू हौ गुंडई डकैती हउवै 
देसी खाली बम बनूक हौ कपड़ा ,घडी बिलैती हउवै 
छुआछूत हौ ऊँच -नीच हौ जात -पांत पंचइती हउवै
का बतलाई कहै सुनै में सरम लगत हौ गान्ही जी 
केहू क नाहीं चित्त ठेकाने बरम लगत हौ गान्ही जी 
अइसन तारू चटकल अबकी गरम लगत हौ गान्ही जी 
गाभिन हौ कि ठाँठ मरकही भरम लगत हौ गान्ही जी 

जे अलले बेईमान इहाँ ऊ डकरै किरिया खाला 
लम्बा टीका मधुरी बानी पंच बनावल जाला 
चाम ,सोहारी काम सरौता पेटै -पेट घोटाला 
एक्को करम न छूटल लेकिन चौचक कंठी -माला 
नोना लगल भीत हौ सगरौ गिरत -परत हौ गान्ही जी 
हाड़ परल हौ अंगनै -अंगना मार टरत हौ गान्ही जी 
झगरा कई जर अनखुन खोजै जहाँ लहत हौ गान्ही जी 
खसम मार के धूम -धाम से गया करत हौ गान्ही जी 

उहै अमीरी उहै गरीबी उहै जमाना अब्बौ  हौ 
कब्बो गयल न जाई जड़ से रोग पुराना अब्बौ हौ 
दुसरे के कब्जा में आपन दाना -पानी अब्बौ हौ 
जहाँ खजाना रहल हमेशा उहैं खजाना अब्बौ हौ 
कथा -कीर्तन बाहर ,भीतर जुआ चलत हौ गान्ही जी 
माल गलत हौ दुई नंबर क दाल गलत हौ गान्ही जी 
चाल गलत -चउपाल गलत हर फाल गलत हौ गान्ही जी 
ताल गलत ,हड़ताल गलत पड़ताल गलत हौ गान्ही जी 

घूस पैरवी जोर सिफ़ारिस झूठ नकल मक्कारी वाले 
देखतै -देखत चार दिना में भइलै महल अटारी वाले 
इनके आगे भकुआ जैसे फरसा अउर कुदारी वाले 
देहलै खून पसीना देहलै तब्बौ बहिन -मतारी वाले 
तोहरै नाम बिकत हौ सगरौ मांस बिकत हौ गान्ही जी 
ताली पीट रहल हौ दुनियां खूब हँसत हौ गान्ही जी 
केहू कान भरत हौ केहू मूंग दरत हौ गान्ही जी 
कहई के हौ सोर धोवाइल पाप फरत हौ गान्ही जी 

जनता बदे जयंती बाबू नेता बदे निशाना हउवै
पिछला साल हवाला वाला अगिला साल बहाना हउवै
आज़ादी के माने खाली राजघाट तक जाना हउवै 
साल भरे में एक बेर बस रघुपति राघव गाना हउवै
अइसन चढल भवानी सीरे ना उतरत हौ गान्ही जी 
आग लगल हौ धुवां उठत हौ नाक बजत हौ गान्ही जी 
करिया अच्छर भइंस बरोब्बर वेद लिखत हौ गान्ही जी 
एक समय क बागड़बिल्ला आज भगत हौ गान्ही जी 
कवि -कैलाश गौतम 
समय [08-01-1944से 09-12-2006]
[कवि -कैलाश गौतम का परिचय हमारे दोनों ही ब्लाग में दिया गया है -]

Saturday 1 October 2011

गंगा हमको छोड़ कभी मत इस धरती से जाना


यह गीत मेरी बिलकुल प्रारम्भिक पोस्ट में था उस समय ब्लॉगर मित्रों /पाठकों  का ध्यान शायद इस पर नहीं जा सका था ,इसलिए पुन: इसे पोस्ट कर रहा हूँ -
गंगा हमको छोड़ कभी मत इस धरती से जाना 
गंगा हमको छोड़ कभी मत
इस धरती से जाना।
तू जैसे कल तक बहती थी
वैसे बहती जाना।

तू है तो ये पर्व अनोखे
ये साधू , सन्यासी,
तुझसे कनखल हरिद्वार है
तुझसे पटना, काशी,
जहॉं कहीं हर हर गंगे हो
पल भर तू रुक जाना |

भक्तों के उपर जब भी
संकट गहराता है ,
सिर पर तेरा हाथ
और आंचल लहराता है,
तेरी लहरों पर है मॉं
हमको भी दीप जलाना |

तू मॉं नदी सदानीरा हो
कभी न सोती हो,
गोमुख से गंगासागर तक
सपने बोती हो,
जहॉं कहीं बंजर धरती हो
मॉं तुम फूल खिलाना।

राजा रंक सभी की नैया
मॉं तू पार लगाती
कंकड़- पत्थर, शंख -सीपियॉं
सबको गले लगाती
तेरे तट पर बैठ अघोरी
सीखे मंत्र जगाना    |

छठे छमासे मॉं हम
तेरे तट पर आयेंगे
पान -फूल ,सिन्दूर-
चढ़ाकर दीप जलायेंगे 
मझधारों में ना हम डूबें
मॉं तू पार लगाना।
दोनों ही चित्र गूगल से साभार 

एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता

चित्र साभार गूगल  एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता सफ़र में धुंध सा बादल, कभी शजर आता इसी से चाँद मुक़म्मल नहीं नज़र आता बताता हाल मैं ...