Saturday 28 May 2022

एक गीत -कोई तो वंशी को स्वर दे

 

चित्र साभार गूगल 

एक गीत -कोई तो वंशी को स्वर दे

मन के सूने

वृंदावन को

कोई तो वंशी का स्वर दे.

यह पठार था

फूलों वाला

मौसम फिर फूलों से भर दे.


सुविधाओं के

कोलाहल में

कविताओं के अर्थ खो गए,

साजिन्दे

सारंगी लेकर

रंगमहल के बीच सो गए,

ठुमरी का

आलाप सुनाकर

कोई जादू -टोना कर दे.


अभिशापित

किष्किन्धाओं को

कोई साथी मिले राम सा,

शबरी जैसा

प्रेम जहाँ हो

वह वन प्रांत्रर पुण्य धाम सा,

धूल भरे

मौसम में उड़ना

कोई तो जटायु सा पर दे.


कहाँ खो गए

कमल पुष्प वो

झीलों से बतियाने वाले,

बिछिया पहने

नज़र झुकाकर

मंद मंद मुस्काने वाले,

आँगन -आँगन

रंग खिलेंगे

कोई पाँव महावर धर दे.


अबके सावन

गीत लिखूँगा

जूड़े -जूड़े बेला महके,

चातक प्यास

बुझाए अपनी

डाल -डाल पर पंछी चहके,

कोई दरपन में

अपने ही

अधरों पर अधरों को धर दे.

कवि जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल 


Wednesday 25 May 2022

एक ग़ज़ल -भारत की ये तस्वीर है

भारत माता 


एक ग़ज़ल -भारत माँ को समर्पित


फ़िर साफ़ करो हो गयी तस्वीर पुरानी

भारत की ये तस्वीर है गौरव की निशानी


ये कृष्ण की वंशी है सियाराम की गाथा

इस देश में अमृत सा सभी नदियों का पानी


तस्वीर ये छोटी है ये तस्वीर बढ़ा दो

कुछ और बड़ी कर दो इकहत्तर की कहानी


इस देश का की सरहद कभी इतनी न थी छोटी

इस बार बदल देना पी.ओ.के के मानी


इस मुल्क को फ़िर सोने की चिड़िया में बदल दो

कुछ रंग नया भर दो फज़ाएँ हों सुहानी

जयकृष्ण राय तुषार 

माननीय प्रधानमंत्री 


Sunday 22 May 2022

एक गीत -कवि माहेश्वर तिवारी



गीतकवि माहेश्वर तिवारी अपनी पत्नी श्रीमती बाल सुंदरी तिवारी संग 


मुरादाबाद यात्रा के दौरान हिंदी के अप्रतिम गीतकार आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी ने अपना गीत संग्रह हरसिंगार कोई तो हो भेंट किया. माहेश्वर जी जो लिखते हैँ वही मंच पर गुनगुनाते भी हैँ अर्थात गीत का स्तर नहीं गिरने देते. यह उन गीतकारों में हैँ जिन्होंने हिंदी नवगीत ही न हीं कविता के मंचों को भी फूहड़ होने से बचाया. भवानी प्रसाद मिश्र, गोपाल सिंह नेपाली, नीरज, रमानाथ अवस्थी, वीरेंद्र मिश्र, डॉ शम्भूनाथ सिंह, डॉ शिव बहादुर सिंह भदौरिया ठाकुर प्रसाद सिंह, उमा शंकर तिवारी, श्रीकृष्ण तिवारी बुद्धिनाथ मिश्र उमाकांत मालवीय कैलाश गौतम, बच्चन, शिव मंगल सिंह सुमन जैसे कवियों का सानिध्य माहेश्वर जी का रहा. माहेश्वर जी  यश भारती से सम्मानित कवि हैँ, माहेश्वर जी के गीत हरसिंगार, बेला और गुड़हल की मोहक सुगंध लिए पाठकों के दिल में उतरते जाते हैँ. माहेश्वर जी यायावर

गीत कवि रहे, जन्म बस्ती शिक्षा गोरखपुर, बनारस मध्य प्रदेश भ्रमण करते करते पीतल नगरी मुरादाबाद में बस गए.सादर 


एक गीत -श्री माहेश्वर तिवारी


सारे दिन पढ़ते अख़बार

बीत गया यह भी इतवार


गमलों में 

पड़ा नहीं पानी

पढ़ी नहीं गई

संत वानी


दिन गुजरा

बिलकुल बेकार

सारे दिन

पढ़ते अख़बार

पुंछी नहीं

पत्रों की गर्द

खिड़की -

दरवाज़े बेपर्द


कोशिश की है

कितनी बार

सारे दिन

पढ़ते अख़बार


मुन्ने का

तुतलाता गीत

अनसुना

गया बिलकुल बीत


कई बार

करके स्वीकार

सारे दिन

पढ़ते अख़बार

कवि /गीतकार माहेश्वर तिवारी

पुस्तक 


एक ग़ज़ल -नगर अनजान है प्यारे


महाप्राण निराला 


एक ग़ज़ल -
निराला से निराला का नगर अनजान है प्यारे

निराला से निराला का नगर अनजान है प्यारे
जमी है धूल जिस पर मीर का दीवान है प्यारे

इलाहाबाद में अकबर सा अब शायर कहाँ कोई
गलाबाज़ी हो जिसमें कुछ वो गौहरज़ान है प्यारे

मुनादी है कहीं फिर आलमी शोअरा की महफ़िल है
गली, कूचों में भी जिनकी नहीं पहचान है प्यारे 

ग़ज़ल में, गीत में कोई बहर या क़ाफिया कुछ हो
किताबों के वरक पर ख़ुशनुमा उनवान है प्यारे

निज़ामत मसखरों की और सदारत भी सियासी है 
अदब की शायरी इस दौर में बेज़ान है प्यारे

उसे हर एक जुमले पर मुसलसल दाद मिलती है
नयन तीखे गुलाबी फूल सी मुस्कान है प्यारे

विचारों से नहीं मतलब वो हर दरबार में हाजिर
यहाँ शायर बिना चूने का मगही पान है प्यारे

कला, संस्कृति, की संस्थाएं भी पोषित चाटुकारों से
इन्हीं कव्वालों की होली भी औ रमजान है प्यारे 

नए शागिर्द महफ़िल में बड़े उस्ताद घर बैठे
बनारस के घराने में भी अब सुनसान है प्यारे 

जयकृष्ण राय तुषार 

मीर तकि मीर 


Sunday 15 May 2022

एक ग़ज़ल -मुझको बदलते दौर की वो हीर चाहिए

चित्र साभार गूगल 


एक ग़ज़ल -
हिन्दी ग़ज़ल को भी तो कोई मीर चाहिए

अपनी ज़मीन पर नई तामीर चाहिए
शेर-ओ- सुखन को इक नई तस्वीर चाहिए

महफ़िल में अब भी सुनता हूं दुष्यन्त की ग़ज़ल
हिन्दी ग़ज़ल को अब भी  कोई मीर चाहिए

गैंता, कुदाल मेरे,जिसे बाँसुरी लगें
मुझको बदलते दौर की वो हीर चाहिए

पंडित हों, जिसमें, डोंगरी, कश्मीरियत भी हो
मुझको वही चिनाब वो कश्मीर चाहिए

भाषा, कहन नई, नया सौंदर्य बोध हो
हिन्दी ग़ज़ल की सीता को रघुवीर चाहिए 

पिंजरे को तोड़कर के परिंदे उड़ान भर
बस हौसले को थोड़ी सी तक़दीर चाहिए

अपने ख़याल ख़्वाब बुलंदी के वास्ते
ग़ालिब, न, दाग, जौक़ नहीं मीर चाहिए 

कवि जयकृष्ण राय तुषार
चित्र साभार गूगल 


एक ग़ज़ल -धारा समास लगती है

गंगा माँ 


एक ग़ज़ल -

कहीं पे गंगा, कहीं पर बनास लगती है


कहीं पे गंगा, कहीं पर बनास लगती है

सफ़र में अब तो नदी को भी प्यास लगती है


न वैसे वन, न परिंदे न वैसा पानी रहा

हमारी माँ अब,भगीरथ उदास लगती है


नदी से मिलके नदी का वजूद बाकी रहा

प्रयागराज में धारा समास लगती है


कभी घड़ा थी ये अमृत का आचमन के लिए

समय की गाद में टूटा गिलास लगती है 


जहाँ पे धार धवल  है ये खिलखिलाती भी है

वहाँ पे फूल तितलियाँ ये घास लगती है 


नदी पहाड़ से उतरी कमल के फूल सी थी

सफ़र के आखिरी क्षण में कपास लगती है


तमाम आस्था, उत्सव के दीप जलते रहें

नदी तो सृष्टि का मोहक सुवास लगती है 

कवि जयकृष्ण राय तुषार

संगम प्रयागराज 


Saturday 14 May 2022

एक ग़ज़ल -हिन्दोस्ताँ का रंग

चित्र साभार गूगल 


एक ग़ज़ल  -भींगे  वदन  के साथ


भींगे वदन के साथ मुसाफ़िर सफ़र में था

उसकी नज़र झुकी थी वो सबकी नज़र में था


बारिश, हवाएं, बिजलियां सब छेड़ते रहे

खुशबू लिए ये फूल  सभी की ख़बर में था


ख़त भी लिखा तो मेरा ठिकाना गलत लिखा

वरना मैं डाकिए के मुताबिक शहर में था


दौलत तमाम, बेटे थे शोहरत भी कम न थी

तनहा तमाम उम्र वो बूढ़ा ही घर में था


साया, दातून, घोंसला सब लेके गिर गया

बस्ती बहुत उदास थी कुछ तो शज़र में था


संतूर का वो शिव था उसे अलविदा कहो

हिन्दोस्ताँ का रंग उसी के नज़र में था


चेहरे को सच बता दिया लेकिन तमाम रात

आईना हर दीवार पे दहशत में, डर में था


बुझता हुआ चराग वहीं देखता रहा

दुनिया के साथ मैं भी हवा के असर में था


जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल

स्मृति शेष पंडित शिव कुमार sharma

Friday 13 May 2022

एक ग़ज़ल -आपको लगता है ये मुज़रा बहुत आसान है

 

चित्र साभार गूगल

एक ग़ज़ल -

आपको लगता है ये मुज़रा बहुत आसान है


आँधियों से अब दरख़्तों को बचाना चाहिए

हमको मीठे फल परिंदो को ठिकाना चाहिए


आपकी दिल्ली में बांग्लादेशी,रोहिंग्या बसे

आप समझें मुल्क को कैसे बचाना चाहिए


बादलों में चाँदनी छिपती रही हर चौथ में

चाँद की साजिश से अब पर्दा उठाना चाहिए


आपके गमले में पौधे बोनसाई हैँ सभी

और घटाएं जलभरी मौसम सुहाना चाहिए


धूप को उसने खबर में धुंध का मौसम लिखा

आँख में अख़बार को काजल लगाना चाहिए


अब सियासत भी स्वयंवर घूमती मछली वही

जीतना है अगर अर्जुन सा निशाना चाहिए


नींद में अब चाँद ,परियों की कहानी मत सुना

अब तुम्हें कुछ भूख का किस्सा सुनाना चाहिए


आपको लगता है ये मुज़रा बहुत आसान है

एक दिन घुँघरू में इस महफ़िल में आना चाहिए

कवि /शायर जयकृष्ण राय तुषार



Wednesday 11 May 2022

एक गीत- वरिष्ठ गीत कवि माहेश्वर तिवारी के लिए

 

गीत कवि श्री माहेश्वर तिवारी जी धर्मपत्नी संग

एक गीत -वरिष्ठ गीतकवि माहेश्वर तिवरी के गीत


गीत,ग़ज़लें

नज़्म,

भाषा के सरल अनुवाद में।

एक वंशी

बज रही

अब भी मुरादाबाद में।


गीत का

डमरू

बजाते यहीं माहेश्वर,

भाव,भाषा

को सजाते

स्वर्ण के अक्षर,

इन्हें पढ़ना

खुली छत पर

पंचमी के चांद में ।


गीत वन हैँ

ये कनेरों,

हरसिंगारों के

उड़ रहे

हारिल

यहाँ मौसम बहारों के,

आरती की

चाय टेबल पर

मुख़र संवाद में ।


भोर में

मासूम सा

दिनमान उगता है,

यहाँ बस्ती

का सुनहरा 

स्वप्न जगता है,

नया पंछी

पंख खोले 

उड़ रहा आहलाद में।


पीतलों का

शहर अपने

पर्व,उत्सव जी रहा है,

बुन रहा है

वस्त्र सुंदर

खोंच को भी सी रहा है,

आज की

यह बज़्म है

त्यागी ज़िगर की याद में।


कवि जयकृष्ण राय तुषार

कुटुंब की देखभाल करने वाली आरती



Monday 9 May 2022

एक देशगान -प्यारे हिन्दुस्तान को

 

चित्र सभार गूगल

एक देशगान -फिर सोने की चिड़िया कर दो


जागो हिंदुस्तान

के वीरों

जागो साधू-

संत,फ़क़ीरों

फिर सोने की 

चिड़िया कर दो

प्यारे हिंदुस्तान को ।


वन्देमतरम,वन्देमातरम,वन्देमातरम्


पहचानों 

दुश्मन की मंशा

साजिश और फरेबों को

वीर शिवाजी

बनकर कुचलो

सारे औरंगजेबों को,

तोड़ न पाये

सारी -दुनिया

भारत के अभिमान को ।


हिमगिर,हिमनद

सागर,नदियाँ

हरे-भरे हैँ खेत ये,

माथ लगा 

मेवाड़ की मिट्टी

कितनी पावन रेत ये,

याद करो 

ज़ौहर की गाथा

 राणा के सम्मान को ।


झलकारी,

झाँसी की रानी

याद करो बुन्देलों को,

भगत सिंह

सुखदेव,राजगुरु

के फाँसी के खेलों को,

उधम सिंह बन

कभी न सहना 

डायर के अपमान को ।


उनको माला क्यों

जिनके सम्बन्ध

रहे गद्दारों से,

ऐसी हर

तस्वीर हटा दो

संसद के गलियारों से,

सबको

मंत्र समझना होगा

जन गण मन के गान को ।


कवि जयकृष्ण राय तुषार

चित्र सभार गूगल


Sunday 8 May 2022

एक गीत -अँगारों से फूल न मांगो

 

चित्र सभार गूगल

एक गीत - अँगारों से फूल न मांगो


अँगारों से

फूल न माँगो

दरिया से बरसात नहीं ।

सफऱ

धूप में जब हो अपना

शोख चाँदनी रात नहीं ।


नंगे पाँव

कंटीले पथ में 

उफ़ मत करना चलते जाना,

शोक गीत

मत लिखना प्यारे

हँसकर सबसे मिलते जाना,

बुझ बुझ कर भी

जलना दीपक

जीवन भर यह मात नहीं ।


वंशी छूटे

नहीं होंठ से

जग दीवाना हो जाएगा,

सूरज तो

कल निकलेगा ही

तम का दानव खो जाएगा

दुनिया आँसू

नहीं पोछती

पढ़ती है जज़्बात नहीं ।


नींद रहे या

रहे जागरण 

कभी छोड़ना मत सपना,

मौसम कोई

राग सुनाये

तुम आशा के स्वर लिखना,

मिट्टी की

महिमा से बेहतर

चन्दन की सौगात नहीं ।

जयकृष्ण राय तुषार

चित्र सभार गूगल


Saturday 7 May 2022

एक प्रेम गीत -डाकिए पढ़ने लगे हैं

 

चित्र सभार गूगल

एक प्रेमगीत-डाकिए पढ़ने लगे हैँ

(मै दक्षिण भारत देखा नहीं हुँ बस मन की कल्पना है)

सादर


मदुरई,

मीनाक्षी के 

खूबसूरत हैं नज़ारे ।

आबनूसी

बंधे जूड़े  में

सुगन्धित फूल सारे ।


हाथ में

दर्पण उठाए

नींद जागी सज रही है,

एक घंटी-

पंखुरी सी

उँगलियों में बज रही है,

कर नहीं

सकता सहज

अनुवाद कितने बिम्ब सारे ।


रेत के प्यासे

अधर भी

 छू रहीं लहरें सयानी,

हंस के जोड़े

मनोहर,वृद्ध

योगी और ज्ञानी,

दूर तक

जलयान सुंदर

मोर मुख वाले शिकारे।


हर नगर का

शिल्प अपना

सभ्यताओं की कहानी,

प्रेम की हर

लोकगाथा

पढो नूतन या पुरानी,

डाकिये 

पढ़ने लगे हैं

प्रेम के अब पत्र सारे ।


पर्ण केले के

हरे हैं नयन

खंजन,माथ चंदन ,

द्वार आये 

अतिथियों है

कर रही मुस्कान वंदन,

रात्रि में

मौसम सुहाना

चाँदनी के संग सितारे ।

कवि -जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल


एक ग़ज़ल -उड़ता रहे हवा में या उतरे ज़मीन पर

 

चित्र सभार गूगल

एक ग़ज़ल -

जिसमें वतनपरस्ती थी बिस्मिल की हो गयी


हुस्न-ओ-शबाब की ग़ज़ल महफ़िल की हो गई 

जिसमें वतनपरस्ती थी बिस्मिल की हो गई


उड़ता रहे हवा में या उतरे ज़मीन पर

जो भी हरी थी टहनी वो हारिल की हो गई


फ़रियाद अपनी लेके अदालत से लौट आ

मुंसिफ़ से गुफ़्तगू सुना क़ातिल की हो गई


बेवक्त तेरे घर पे अब आता तो किस तरह

शोहरत शहर में अब तेरी महफ़िल की हो गई


काशी कभी ये तुलसी,कबीरा के नाम थी

अब तो प्रसाद,शुक्ल और धूमिल की हो गई


बैठे थे आज हम भी इसी शाम के लिए

तुमने कही जो बात मेरे दिल की हो गई


सब चैट कर रहे हैँ मगर अजनबी के संग

अब चाँदनी छतों की भी संगदिल की हो गई

कवि/शायर

जयकृष्ण राय तुषार

चित्र सभार गूगल


Thursday 5 May 2022

एक ग़ज़ल -सुर्खाब ग़ज़ल


चित्र सभार गूगल


 ग़ज़ल को परिभाषित करने की एक छोटी कोशिश

एक ग़ज़ल -सुर्खाब ग़ज़ल


शोख इठलाती हुई परियों का है ख़्वाब ग़ज़ल

झील के पानी में उतरे तो है महताब ग़ज़ल


वन में हिरनी की कुलांचे है ये बुलबुल की अदा

चाँदनी रातों में हो जाती है सुर्खाब ग़ज़ल


उसकी आँखों का नशा ,जुल्फ की ख़ुशबू,टीका

रंग और मेहंदी रचे हाथों का आदाब ग़ज़ल


ये तवायफ की,अदीबों की,है उस्तादों की

हिंदी,उर्दू के गुलिस्ताँ में है शादाब ग़ज़ल


कूचा-ए-जानाँ,भी मज़दूर भी,साक़ी ही नहीं

एक शायर की ये दौलत यही असबाब ग़ज़ल


खुल के सावन में मिले और बहारों में खिले

ग़म समंदर का है दरियाओं का सैलाब ग़ज़ल


इसमें मौसीक़ी भी दरबारों की महफ़िल भी यही

अपने महबूब के दीदार को बेताब ग़ज़ल


मेरे सीने में भी कुछ आग,मोहब्बत है तेरी

मेरी शोहरत भी तुझे करती है आदाब ग़ज़ल


कवि/शायर 

जयकृष्ण राय तुषार

चित्र सभार गूगल

Wednesday 4 May 2022

एक गीत माँ तुम गंगाजल होती हो

 

माननीय योगी जी माँ जी से आशीर्वाद लेते हुए


एक गीत -माँ तुम गंगाजल होती हो 


मेरी ही यादों में खोयी
अक्सर तुम पागल होती हो
मां तुम गंगा जल होती हो!
मां तुम गंगा जल होती हो!

जीवन भर दुःख के पहाड़ पर
तुम पीती आंसू के सागर
फिर भी महकाती फूलों सा
मन का सूना संवत्सर
जब-जब हम लय गति से भटकें
तब-तब तुम मादल होती हो।

व्रत, उत्सव, मेले की गणना
कभी न तुम भूला करती हो
सम्बन्धों की डोर पकड  कर
आजीवन झूला करती हो
तुम कार्तिक की धुली चाँदनी से
ज्यादा निर्मल होती हो।

पल-पल जगती सी आँखों में 
मेरी खातिर स्वप्न सजाती
अपनी उमर हमें देने को
मंदिर में घंटियां बजाती
जब-जब ये आँखें धुंधलाती
तब-तब तुम काजल होती हो।

हम तो नहीं भगीरथ जैसे
कैसे सिर से कर्ज उतारें
तुम तो खुद ही गंगाजल हो
तुमको हम किस जल से तारें।
तुझ पर फूल चढ़ायें कैसे
तुम तो स्वयं कमल होती हो।

कवि -जयकृष्ण राय तुषार

चित्र सभार गूगल

चित्र सभार गूगल


Sunday 1 May 2022

एक ग़ज़ल -खुदा उनसे मुलाक़ात न हो

 

चित्र सभार गूगल

ऐसी महफ़िल में खुदा उनसे मुलाक़ात न हो

सिर्फ़ नज़रें ही मिलें और कोई बात न हो


हाथ में फिर से कोई फूल लिए लौट गया

और ऐसा भी नहीं था की उसे याद न हो


ज़िंदगी पहले मोहब्बत की कहानी लिखना

वक्त के साथ ये मंज़र ये ख़यालात न हो


इस तरह पेड़ हरे कटते रहे तो शायद

अबकी सावन के महीने में ये बरसात न हो


मुझसे वो पूछता है मेरी कहानी अक्सर

और खुद चाहता है उससे सवालत न हो


फिर नहीं मिलने के वादे को निभाते हैँ चलो

फैसला करते समय फ़िर वही जज्बात न हो


बिक रहे फूल,हवा,पानी ये शायर ये कलम

चांद बाज़ार में बिक जाए ये हालात न हो


कवि/शायर जयकृष्ण राय तुषार

चित्र सभार गूगल


एक ग़ज़ल -झीलों में सुर्खाब

 

चित्र सभार गूगल

एक ग़ज़ल -झीलों में सुर्खाब


गालों पर गेसू बिखरे हैँ आँखों में कुछ ख़्वाब

खिड़की में हैँ चांद चांदनी दरिया में सुर्खाब


देख रहे थे हम भी जादू मंतर महफ़िल में

उसकी मुट्ठी में सिक्का था कैसे हुआ गुलाब


उससे मेरा रिश्ता -नाता फिर भी दूरी है

नज़रें नीचे करके वो भी करती है आदाब


उसको अब भी खत लिखता हूँ लेकिन मुश्किल ये

खत भी लौटा नहीं नहीं है खत का कोई जवाब


उसकी आँखे झील सी उस पर दरिया में पानी

फूलों वाली कश्ती उसकी लाती है सैलाब

जयकृष्ण राय तुषार

चित्र सभार गूगल


एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता

चित्र साभार गूगल  एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता सफ़र में धुंध सा बादल, कभी शजर आता इसी से चाँद मुक़म्मल नहीं नज़र आता बताता हाल मैं ...