गंगा माँ |
एक ग़ज़ल -
कहीं पे गंगा, कहीं पर बनास लगती है
कहीं पे गंगा, कहीं पर बनास लगती है
सफ़र में अब तो नदी को भी प्यास लगती है
न वैसे वन, न परिंदे न वैसा पानी रहा
हमारी माँ अब,भगीरथ उदास लगती है
नदी से मिलके नदी का वजूद बाकी रहा
प्रयागराज में धारा समास लगती है
कभी घड़ा थी ये अमृत का आचमन के लिए
समय की गाद में टूटा गिलास लगती है
जहाँ पे धार धवल है ये खिलखिलाती भी है
वहाँ पे फूल तितलियाँ ये घास लगती है
नदी पहाड़ से उतरी कमल के फूल सी थी
सफ़र के आखिरी क्षण में कपास लगती है
तमाम आस्था, उत्सव के दीप जलते रहें
नदी तो सृष्टि का मोहक सुवास लगती है
कवि जयकृष्ण राय तुषार
संगम प्रयागराज |
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार 16 मई 2022 को 'बुद्धम् शरणम् आइए, पकड़ बुद्धि की डोर' (चर्चा अंक 4432) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
हार्दिक आभार आपका
Deleteतमाम आस्था, उत्सव के दीप जलते रहें
ReplyDeleteनदी तो सृष्टि का मोहक सुवास लगती है
.. बिलकुल सही, बहुत सुन्दर महिमा चित्रण
सादर अभिवादन. हार्दिक आभार आपका
Deleteबेहतरीन गज़ल सर। शब्द रचना अत्यंत प्रभावशाली है।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Deleteवाह... उम्दा, बेहतरीन
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
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