Sunday, 22 May 2022

एक ग़ज़ल -नगर अनजान है प्यारे


महाप्राण निराला 


एक ग़ज़ल -
निराला से निराला का नगर अनजान है प्यारे

निराला से निराला का नगर अनजान है प्यारे
जमी है धूल जिस पर मीर का दीवान है प्यारे

इलाहाबाद में अकबर सा अब शायर कहाँ कोई
गलाबाज़ी हो जिसमें कुछ वो गौहरज़ान है प्यारे

मुनादी है कहीं फिर आलमी शोअरा की महफ़िल है
गली, कूचों में भी जिनकी नहीं पहचान है प्यारे 

ग़ज़ल में, गीत में कोई बहर या क़ाफिया कुछ हो
किताबों के वरक पर ख़ुशनुमा उनवान है प्यारे

निज़ामत मसखरों की और सदारत भी सियासी है 
अदब की शायरी इस दौर में बेज़ान है प्यारे

उसे हर एक जुमले पर मुसलसल दाद मिलती है
नयन तीखे गुलाबी फूल सी मुस्कान है प्यारे

विचारों से नहीं मतलब वो हर दरबार में हाजिर
यहाँ शायर बिना चूने का मगही पान है प्यारे

कला, संस्कृति, की संस्थाएं भी पोषित चाटुकारों से
इन्हीं कव्वालों की होली भी औ रमजान है प्यारे 

नए शागिर्द महफ़िल में बड़े उस्ताद घर बैठे
बनारस के घराने में भी अब सुनसान है प्यारे 

जयकृष्ण राय तुषार 

मीर तकि मीर 


8 comments:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-5-22) को "ज्ञान व्यापी शिव" (चर्चा अंक 4440) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    ------------
    कामिनी सिन्हा

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    1. हार्दिक आभार आपका. सादर प्रणाम

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  2. बहुत प्रभावी, बहुत सार्थक, बहुत सराहनीय ग़ज़ल कही है तुषार जी आपने।

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    Replies
    1. हार्दिक आभार आपका. सादर प्रणाम

      Delete
  3. कला, संस्कृति, की संस्थाएं भी पोषित चाटुकारों से
    इन्हीं कव्वालों की होली भी औ रमजान है प्यारे
    सही कहा चाटुकार ही पहचान बना पाते हैं साहित्य में भी...
    बहुत ही लाजवाब सृजन।

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    Replies
    1. हार्दिक आभार आपका. सादर प्रणाम

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  4. हार्दिक आभार आपका सादर प्रणाम

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