Thursday, 30 December 2010

नये साल की उफ! कितनी तस्वीर घिनौनी है।

चित्र -गूगल से साभार 
एक नवगीत -नये साल की उफ़ !कितनी तस्वीर घिनौनी है 
नये साल की उफ़ !
उफ!  कितनी
तस्वीर घिनौनी है।
फिर
अफवाहों से ही
अपनी आंख मिचौनी है।


वही सभी
शतरंज खिलाड़ी
वही पियादे हैं,
यहां हलफनामों में भी
सब झूठे वादे हैं,
अपनी मूरत से
मुखिया की
मूरत बौनी है।


आंगन में
बंटकर तुलसी का
बिरवा मुरझाया,
मझली भाभी का
दरपन सा
चेहरा धुंधलाया,
मछली सी
आंखों में
टूटी एक बरौनी है।


गेहूं की
बाली पर बैठा
सुआ अकेला है,
कहासुनी की
मुद्राएं हैं
दिन सौतेला है,
दिन भर बजती
दरवाजे की
सांकल मौनी है।

चित्र से  गुगल सर्च से साभार

Monday, 27 December 2010

एक गीत -स्वागत आगन्तुक दिनमान का

चित्र -गूगल से साभार 
कल का सूरज
डूबा, स्वागत!
आगन्तुक दिनमान का।
यह सम्वत
शायद कुछ बदले
चेहरा रेगिस्तान का।

बहुत
बदलना चाहे लेकिन
मौसम नहीं बदलता है,
हरियाली का
स्वप्न आंख में
धू-धू करके जलता है,
चैमासे में
खेत पड़ा है
मुंह पीला खलिहान का।

हंसे कुंवारी
धूप हल्दिया
मैना आंगन चहके,
अरुणिम
आभा से पलाश की
जंगल घाटी दहके,
आछी के
फूलों सा महके
हर कोना दालान का।

सिर पर
ओढ़े रात चांदनी
लहरिल मोती झील हो,
चहल पहल में
मन का गहरा
सन्नाटा तब्दील हो,
जूड़े-जूड़े
फूल टांकता
हाथ बढ़े पवमान का।

पल्लव
अधरों से फिर ऋतुएं
छन्द पढ़ें अमराई के,
हर उत्सव में
पंडवानी के गीत
हों तीजन बाई के,
स्वागत करें
सुआ पिंजरे से
घर आये मेहमान का।

Tuesday, 9 November 2010

स्मृति-शेष पिता को याद करते हुए

स्व0 रुद्र प्रताप राय
15 अगस्त 1936 - 31 अक्टूबर 2010

मित्रों ज्योति पर्व दीपावली के ठीक पांच दिन पूर्व मुझे गहरा सदमा लगा। मेरी पत्नी मंजुला राय के सिर से पिता का साया और मेरे सिर से पिता तुल्य श्वसुर का साया उठ गया। पिता जी 31 अक्टूबर 2010 को हम सबसे विदा ले लिए। सामने दीपावली का पर्व था अतः मैं आप सबको दुखी नहीं करना चाह रहा था क्योंकि मेरा एक शेर है - किसी लमहा अगर कोई हमें खुशहाल लगता है। मैं अपने गम और उसके बीच में दीवार करता हूं। मैंने भी आप सबकी खुशी और अपने गम केबीच में एक दीवार खड़ी कर दिया। पिता की यादें ही अब हमारे पास धरोहर हैं। पिता रुद्रप्रताप राय का जनम 15 अगस्त 1936 को जनपद जौनपुर में हुआ था। लोगों के बीच में रुदल बाबू के नाम से लोकप्रिय थे। एक सहृदय इन्सान, एक ख्यातिलब्ध अधिवक्ता को हमने खो दिया। पिता रुद्रप्रताप राय उस जमाने में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी उच्च शिक्षा हासिल की थी। पत्नी पद्मा राय बेटियां अनुराधाराय, मृदुला राय, मंजुला राय बेटे अतुल कुमार राय, अजय राय बहू माया राय, नीलम राय प्रपौत्र अंकित राय, आयुष और यश की ओर से तथा मैं अपनी ओर से पिता को एक काव्यात्मक श्रद्धांजलि दे रहा हूं। यह गीत उन सबके पिता को समर्पित है जो अब स्मृति शेष हैं -

स्मृति शेष  पिता को याद करते हुए 

पिता!
घर की खिड़कियों
दालान में रहना।
यज्ञ की 
आहुति, कथा के
पान में रहना।

जब कभी
माँ को
तुम्हारी याद आयेगी,
अर्घ्य 
देगी तुम्हें
तुम पर जल चढ़ायेगी,
और तुम भी
देवता
भगवान में रहना।

अब नहीं
आराम कुर्सी,
बस कथाओं में रहोगे,
प्यार से
छूकर हमारा मन
समीरन में बहोगे,
फूल की
इन खुशबुओं में
लॉन  में रहना।

माँ!
हुई जोगन
तुम्हारा चित्र मढ़ती है,
भागवत 
के पृष्ठ सा 
वह तुम्हें पढ़ती है ,
स्वर्ग में
तुम भी 
उसी के ध्यान में रहना |

चाँद-तारों से 
निकलकर
कभी तो आना, 
हम अगर
भटकें, हमें फिर
राह दिखलाना,
सात सुर में
बांसुरी की
तान में रहना।

पिता!
हमने गलतियां की हैं
क्षमा करना,
हमें दे
आशीष
घर धन-धान्य से भरना,
तुम
हमारे गीत में
ईमान में रहना।

चित्र  avdevantimes.blogspot.com से साभार


Tuesday, 26 October 2010

दो रचनाएं : सन्दर्भ - करवा चौथ


जयकृष्ण राय तुषार 
उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर के सम्मुख
एक
आज करवा चौथ का दिन है

आज करवा चौथ
का दिन है
आज हम तुमको संवारेंगे।
देख लेना
तुम गगन का चांद
मगर हम तुमको निहारेंगे।

पहनकर
कांजीवरम का सिल्क
हाथ में मेंहदी रचा लेना,
अप्सराओं की
तरह ये रूप
आज फुरसत में सजा लेना,
धूल में
लिपटे हुए ये पांव
आज नदियों में पखारेंगे।

हम तुम्हारा
साथ देंगे उम्रभर
हमें भी मझधार में मत छोड़ना,
आज चलनी में
कनखियों देखना
और फिर ये व्रत अनोखा तोड़ना ,
है भले
पूजा तुम्हारी ये
आरती हम भी उतारेंगे।

ये सुहागिन
औरतों का व्रत
निर्जला, पति की उमर की कामना
थाल पूजा की
सजा कर कर रहीं
पार्वती शिव की सघन आराधना,
आज इनके
पुण्य के फल से
हम मृत्यु से भी नहीं हारेंगे।

दो 
जमीं के चांद को जब चांद का दीदार होता है

कभी सूरत कभी सीरत से हमको प्यार होता है
इबादत में मोहब्बत का ही इक विस्तार होता है

तुम्हीं को देखने से चांद करवा चौथ होता है
तुम्हारी इक झलक से ईद का त्यौहार होता है

हम करवा चौथ के व्रत को मुकम्मल मान लेते हैं
जमीं के चांद को जब चांद का दीदार होता है

निराजल रह के जब पति की उमर की ये दुआ मांगें
सुहागन औरतों का स्वप्न तब साकार होता है

यही वो चांद है बच्चे जिसे मामा कहा करते
हकीकत में मगर रिश्तों का भी आधार होता है

शहर के लोग उठते हैं अलार्मों की आवाजों पर
हमारे गांव में हर रोज ही जतसार होता है

हमारे गांव में कामों से कब फुरसत हमें मिलती
कभी हालीडे शहरों में कभी इतवार होता है।
चित्र -गूगल से साभार 

चित्र  ganeshaspeaks.com 

Sunday, 26 September 2010

सच के बारे में


 शैलेन्द्र
कवि एवं प्रभारी, जनसत्ता कोलकाता संस्करण
हिन्दी कविता में शैलेन्द्र किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। हिन्दी पत्रकारिता के पेशे से लम्बे समय से जुड़े शैलेन्द्र इस समय जनसत्ता के कोलकाता संस्करण के प्रभारी हैं। शैलेन्द्र जितने उत्कृष्ट कवि और पत्रकार हैं उतने ही सहज इंसान भी हैं। ५ अक्टूबर १९५६ को बलिया के मनियार नाम के कस्बे में शैलेन्द्र का जन्म हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर इस कवि की रचनाएं देश की समस्त प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। हम उनकी सुप्रसिद्ध पुस्तक ''अपने ही देश में'' से एक कविता अपने पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं।

पता- २ किशोर पल्ली, बेलघरिया
कोलकाता - ७०००५६



सच के बारे में

आओ
थोड़ा छत पर टहल लें
मकान मालिक के
लौटने तक
चांदनी तले
थोडा हंस-खिलखिला लें
तारों की ओर नजर कर लें

कितना अच्छा लगता है
तुम्हारे हाथ में हाथ डालकर
थिरकता खुले आसमान के नीचे
अभी पड़ोस की इमारतें
ऊंचा उठने ही वाली है
और उस तरफ
बस रही बस्ती
ऊफ!


हर तरफ उठ रही हैं लाठियां
कमजोर जिस्मों को तलाशती
आओ
थोड़ा और करीब आओ
कदम-कदम पर हारते
सच के बारे में
थोडा बतिया लें।

Wednesday, 22 September 2010

हम तो मिट्‌टी के खिलौने थे गरीबों में रहे


कोई पूजा में रहे कोई अजानों में रहे
हर कोई अपने इबादत के ठिकानों में रहे

अब फिजाओं में न दहशत हो, न चीखें, न लहू
अम्न का जलता दिया सबके मकानों में रहे

हम तो मिट्टी के खिलौने थे ग़रीबों में रहे 
चाबियों वाले बहुत ऊँचे मकानों में रहे 

ऐ मेरे मुल्क मेरा ईमां बचाये रखना
कोई अफवाह की आवाज न कानों में रहे

मेरे अशआर मेरे मुल्क की पहचान बनें
कोई रहमान मेरे कौमी तरानें में रहे

बाज के पंजों न ही जाल, बहेलियों से डरे
ये परिन्दे तो हमेशा ही उड़ानों में रहे


वो तो इक शेर था जंगल से खुले में आया
ये शिकारी तो हमेशा ही मचानों में रहे।

चित्र photos.merinews.com से साभार

Saturday, 11 September 2010

मेरी दो ग़ज़लें

एक 
मैं सूफ़ी हूँ दिलों के दरमियाँ ही प्यार करता हूँ
मैं जिस्मानी मुह्ब्बत में कहाँ ऐतबार करता हूँ


कँटीली झाड़ियों के फूल हाथों से नहीं छूते
मैं शीशे के दरीचों से तेरा दीदार करता हूँ


खुली ज़ुल्फ़ों झुकी नज़रों को जब भी देखता हूँ मैं
ग़ज़ल के आईने में बस तेरा श्रंगार करता हूँ


किसी लम्हा अगर कोई मुझे खुशहाल लगता है
मैं अपने ग़म और उसके बीच में दीवार करता हूँ


मैं एक बादल का टुकड़ा हूँ बरसता हूँ जमीनों पर
तपिश में सूखते पेड़ो को सायादार करता हूँ


ऐ मँहगाई खिलौनों के लिये आना पड़ा मुझको
मैं वरना ईद और होली में बाज़ार करता हूँ


सियासत गिरगिटानों की तरह रंगत बदलती है
मैं इक शायर जो कहता हूँ कहाँ इंकार करता हूँ


दो 


हरेक बागे अदब में बहार है हिन्दी
कहीं गुलाब कहीं हरसिंगार है हिन्दी


ये रहीम, दादू और रसखान की विरासत है
कबीर सूर और तुलसी का प्यार है हिन्दी


फिजी, गुयाना, मॉरीशस में इसकी खुश्बू है
हजारों मील समन्दर के पार है हिन्दी


महक खुलूस की आती है इसके नग्मों से
किसी हसीन की वीणा का तार है हिन्दी


चित्र hindi.webdunia.com से साभार
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Friday, 3 September 2010

दो प्रेम गीत

चित्र -गूगल से साभार 

एक 
जाने क्या होता
इन प्यार भरी बातों में?
रिश्ते बन जाते हैं
चन्द मुलाकातों में।
मौसम कोई हो
हम अनायास गाते हैं,
बंजारे होठ मधुर
बांसुरी बजाते हैं,
मेंहदी के रंग उभर आते हैं
हाथों में
खुली-खुली आंखों में
स्वप्न सगुन होते हैं,
हम मन के क्षितिजों पर
इन्द्रधनुष बोते हैं,
चन्द्रमा उगाते हम
अंधियारी रातों में।
सुधियों में हम तेरे
भूख प्यास भूले हैं
पतझर में भी जाने
क्यो पलाश फूले हैं
शहनाई गूंज रही
मंडपों कनातों में।




दो 
इस मौसम की
बात न पूछो
लोग हुए बेताल से।
भोर नहायी
हवा लौटती
पुरइन ओढ़े ताल से।
चप्पा चप्पा
सजा धजा है
संवरा निखरा है
जाफरान की
खुश्बू वाला
जूड ा बिखरा है
एक फूल
छू गया अचानक
आज गुलाबी गाल से ।
आंखें दौड
रही रेती में
पागल हिरनी सी,
मुस्कानों की
बात न पूछो
जादूगरनी सी,
मन का योगी
भटक गया है
फिर पूजा की थाल से
सबकी अपनी
अपनी जिद है
शर्तें हैं अपनी,
जितना पास
नदी के आये
प्यास बढ ी उतनी,
एक एक मछली
टकराती जानें
कितने जाल से।

Thursday, 5 August 2010

मेरी दो ग़ज़लें

चित्र -गूगल सर्च इंजन  से साभार 
एक 
सलीका बांस को बजने का जीवन भर नहीं होता।
बिना होठों के वंशी का भी मीठा स्वर नहीं होता॥


ये सावन गर नहीं लिखता हसीं मौसम के अफसाने।
कोई भी रंग मेंहदी का हथेली पर नहीं होता॥


किचन में मां बहुत रोती है पकवानों की खुशबू में।
किसी त्यौहार पर बेटा जब उसका घर नहीं होता॥


किसी बच्चे से उसकी मां को वो क्यों छीन लेता है।
अगर वो देवता होता तो फिर पत्थर नहीं होता ॥


परिंदे वो ही जा पाते हैं ऊंचे आसमानों तक।
जिन्हें सूरज से जलने का तनिक भी डर नहीं होता॥




चित्र -गूगल से साभार 


दो 
नये घर में पुराने एक दो आले तो रहने दो,
दिया बनकर वहीं से मां हमेशा रोशनी देगी।


ये सूखी घास अपने लान की काटो न तुम भाई,
पिता की याद आयेगी तो ये फिर से नमी देगी।


फरक बेटे  औ बेटी  में है बस महसूस करने का,
वो तुमको रोशनी देगा ये तुमको चांदनी देगी।


ये मां से भी अधिक उजली इसे मलबा न होने दो,
ये गंगा है यही दुनिया को फिर से जिंदगी देगी॥

Wednesday, 14 July 2010

एक गज़ल -कोई भी रंग हो मौसम का वो हंसकर निकलती है।

चित्र -गूगल से साभार 
एक ग़ज़ल -वो अक्सर फूल -परियों की तरह
 
वो अक्सर फूल परियों की तरह सजकर निकलती है
मगर आँखों में इक दरिया का जल भरकर निकलती है।

कँटीली झाड़ियाँ उग आती हैं लोगों के चेहरों पर

ख़ुदा जाने वो कैसे भीड़  से बचकर निकलती है.

जमाने भर से इज्जत की उसे उम्मीद क्या होगी

खुद अपने घर से वो लड़की बहुत डरकर निकलती है.

बदलकर शक्ल हर सूरत उसे रावण ही मिलता है 

लकीरों से अगर सीता कोई बाहर निकलती है .

सफर में तुम उसे ख़ामोश गुड़िया मत समझ लेना

ज़माने को झुकी नज़रों  से वो पढ़ कर निकलती है.

खुद जिसकी कोख में ईश्वर भी पलकर जन्म लेता है

वही लड़की  खुद अपनी कोख से मरकर निकलती है.

जो बचपन में घरों की जद हिरण सी लांघ आती थी

वो घर से पूछकर हर रोज अब दफ़्तर  निकलती है।

छुपा लेती है सब आंचल में रंजोग़म  के अफ़साने

कोई भी रंग हो मौसम का वो हंसकर निकलती है।

Saturday, 19 June 2010

एक गीत -लैपटाप में जंगल

एक गीत -लैपटॉप मे जंगल 
फूल खिले बाग हैं
तितलियां हैं
बच्चों की कलम पर
उंगलियां हैं!

पीठ लदे बस्तों में
दिन सारा बीता
लैपटाप में जंगल
देखती सुनीता
शीशे के ताल में
मछलियां हैं!

बात-बात पर छोटू
मम्मी से लड़ता
रिश्तों का मतलब भी
समझाना पड़ता
चश्मे के नम्बर में
कैद ये पुतलियां हैं!

वासन्ती भोर कहां
चंदा की रातें
खत्म हुई लोककथा
परियों की बातें
मोबाइल गेमों की कैद में
पसलियां हैं!

चित्र http://www.istockphoto.com/file_thumbview_approve/1497559/2/istockphoto_1497559-children-laptop.jpg से साभार

Wednesday, 2 June 2010

एक आलेख -हिन्दी नवगीतों में बादल


हिंदी नवगीतों मे बादल -एक आलेख 
ये सूखे बादल
लगते बेहाल से।
मानसून कब लौटेगा
बंगाल से? -जयकृष्ण राय तुषार

आदिम युग से विश्व साहित्य तथा साहित्य की विविध विधाओं में बादलों का विभिन्न रूपों में वर्णन मिलता है। संस्कृत के महान कवि कालिदास का 'मेघदूतम्‌' एक सर्वोत्तम काव्य कृति है। अलाव की तरह तपती हुई धरती पर जब बारिश की अमृतमयी बूंदें छन-छन गिरती हैं तो प्यासी पथराई आंखों में हरियाली के स्वप्न सजने लगते हैं। पेड़ों की शीतल छांह से लौटती हवाओं की आवारगी बढ  जाती है। दूर तक हंसते खिलखिलाते फूलों की मनोहारी छटा देखकर मन रूमानियत से भर उठता है। किशोरियां खुद को आदमकद दर्पण में निहारने लगती हैं और मेंहदी रचे हाथों की चित्रकारी देखकर आसमान में इठलाते इन्द्रधनुष की चमक फीकी पड़  जाती है। चैत-वैशाख में कवियों की लेखनी की सूखी स्याही सदावाहिनी नदियों की तरह तटबन्ध तोड़ने  लगती है। ऐसे में कविता में प्राण फूंकने वाले कवि कैलाश गौतम ननद से भाभी की शरारत बादल के माध्यम से कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
बादल टूटे ताल पर
आटा सनी हथेली जैसे
भाभी पोंछ गयी
शोख ननद के गाल पर (जोड़ा ताल से)

हिन्दी के सुप्रसिद्ध गीत कवि माहेश्वर तिवारी भी बादलों को अपनी कविता का विषय बनाते हैं- 
काले-काले पंख
शिलाओं पर फैलाये 
बादल आये।

आजकल के वरिष्ठ सम्पादक और हिन्दी के खयातिलब्ध गीत कवि श्री योगेन्द्र दत्त शर्मा की सोच इन बादलों के बारे में कुछ इस प्रकार है-
सूर्य बिम्ब
धुंध में धुंधलकों में
खो रहा
मन घिरते मेघों का
शामों को हो रहा (योगेन्द्र दत्त शर्मा)



हिन्दी के सुपरिचित नवगीतकार डॉ० बुद्धिनाथ मिश्र भी बड़े रूमानी अंदाज में कह उठते हैं -
प्यास हरे 
कोई घन बरसे
तुम बरसो या सावन बरसे

वर्षा में लय, प्रलय, संयोग, वियोग, प्रेम, विछोह सब कुछ समाहित होता है। जिस क्षण जैसा कवि महसूस करता है वैसा ही भाव वह अपने गीतों के माध्यम से प्रस्तुत करता है। प्रेमशंकर रघुवंशी की सोच कुछ इस तरह है-
पहले मेघ आषाढ  के
बरसेंगे किसके आंगन में
सारी उमस बुहार के

इसी प्रकार गीतकार उमाकांत मालवीय जी जो कुछ दिन तक 'बादल' उपनाम से कतिताएं भी लिखते थे, बड़े ही शास्त्रीय अंदाज में बादल का वर्णन अपने नवगीतों में करते हैं-
बादल जो
शाम से घिरा 
पानी कल रात भर गिरा
पिघल गये मान के उलाहने
घेरा जब कमलतंतु बांह ने
नीले नभ के नयनों में
घन शावक स्वप्न बन तिरा (उमाकान्त मालवीय)

विनोद श्रीवास्तव भी बादलों को कुछ इस तरह से महसूस करते हैं और कह उठते हैं-
बादलों ने कह दिया
आओ चलें घर छोड कर
चाहकर भी हम
निकल पाये न पिंजरे तोड कर

प्रो० विद्यानंदन राजीव बादल में नये अर्थ तलाशते हुए नजर आते हैं और कह उठते हैं-
कितने नये अर्थ देता है
प्यासी धरती को
बादल का आना



बादलों का मानवीकरण गीतकवि विभिन्न रूपों में करते रहे हैं। गीत कविता की आदिम जमीन है। गीत शाश्वत होता है। प्रकृति की प्रत्येक लय में गीत समाहित है और गीतों में प्राकृतिक सुषमा। पारंपरिक गीतों/लोकगीतों में भी बादलों का जीवंत और भरपूर वर्णन मिलता है। हिन्दी के महत्वपूर्ण गीत कवि यश मालवीय को सावन की पहली बरखा आशीष देती हुई नजर आती है-
अभिवादन बादल-बादल
खबर लिए वन उपवन की
कितने आशीर्वाद लिए
पहली बरखा सावन की

मधुकर अष्ठाना तो बादलों के माध्यम से भारतीय राजनीति का विद्रूप चेहरा उजागर करते हैं-
सीख लिया है
मेघों ने भी
लटके झटके बड़े बड़ो के
सींच रहे हैं फुनगी केवल
सगे नहीं हो सके
जड़ो के
बांट दिया है इन्द्रधनुष को
कुछ अगड़ो में
कुछ पिछड़ो में

भोपाल में बैठे गीतकवि मयंक श्रीवास्तव झीलों और तालों के बीच कुछ अलग भाव-भूमि की रचना करते नजर आते हैं-
मेरे गांव घिरे ये बादल
जाने कहां कहां बरसेंगे
अल्हड पन लेकर पछुआ का
घिर आयी निर्दयी हवाएं
दूर-दूर तक फैल गयी है
घाटी की सुरमई जटाएं
ऐसे मदमाते मौसम में
जाने कौन कौन तरसेंगे

डॉ० महाश्वेता चतुर्वेदी बादलों के बीच खुद को यक्षिणी सा महसूस करती हैं।
बादलों मुझ यक्षिणी की बात कहना
नीरगंगा जल बनाकर
मैं तुम्हारे पद पखारूं
चेतना की भव्य प्रतिमा
जानकर तुमको निहारूं



हिन्दी नवगीत के शिखर पुरुष ठाकुर प्रसाद सिंह बादल में पिता की अनुभूति करते हैं-
मां हमारी दूध का तरु
बाप बादल
और बहन हर बोल पर
बजती हुई मादल
उतर आ हंसी
कि मैं वंशी (ठाकुर प्रसाद सिंह)

वरिष्ठ हिन्दी गीत कवि सत्यनारायण बादल को बावरा कहने में तनिक भी संकोच नही करते हैं और कह उठते हैं-
अजब ये बावरे बादल
सलोने सांवरे बादल
कहां से आ गये तिरते
गरजते घुमड़ते घिरते
किसी की ये खुली अलकें
किसी के आंख का काजल (सत्यनारायण)

दिनेश प्रभात बच्चों के स्कूल जाने का बिम्ब बादलों के माध्यम से बड़े  अनोखे अंदाज में प्रस्तुत करते हैं-
काम काज पर लौटे बादल
छुट्‌टी खत्म हुई
नन्ही नन्ही सी बूंदों ने
बस्ते टांग लिए
फिर पापा से गले लिपटकर
पैसे मांग लिए (दिनेश प्रभात)

बृजनाथ श्रीवास्तव की चिंता कुछ इस प्रकार की है। 
मेघ फटे मायानगरी में
जिए गांव ने सूखे
हम कहां-कहां चूके

जहीर कुरेशी घटाओं की तुलना नायिका के जूडे   से करते हैं-
फिर खुले आकाश में जूड़े घटाओं के
फिर हवाओं के दुपट्‌टे हो गये भीने


हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि गुलाब जो अपने आंचलिक गीतों के लिए भी जाने और पहचाने जाते है बादलों की तुलना बंजारों की टोली से करते हैं -
शिखर -शिखर पर 
डोले बादल 


इस पल जमे 
कि उस पल उखड़े 
सुबह बसे 
दुपहर को उजड़े 
बंजारों के टोले बादल 



हिन्दी के कठिन काव्य के कवि चन्द्रसेन विराट भी यहां थोड़ा सरल और सहज दिखते हैं- 
निमंत्रण यह घटाओं का नहीं है आज बेमानी
चलो छत पर बुलाता है प्रथम बरसात का पानी

वरिष्ठ गीत कवि देवेन्द्र शर्मा इन्द्र की सोच कुछ अलग है-
बादल तुम संस्कृत में गरज रहे
क्या न कभी प्राकृत में बरसोगे

इसी प्रकार मुकुट बिहारी सरोज कहते हैं-
आंधी ज्यादा पानी कम है
ये कोई बादल में बादल हैं
यों देखो तो कोई कमी नहीं
लेकिन आचरणों में नमी नहीं

बादल संस्कृत कवियों के परमप्रिय विषय रहे हैं तो छायावादी कवियों के भी प्राणाधार रहे हैं। महाप्राण निराला, पंत, प्रसाद, महादेवी, दिनकर सभी कवियों ने बादल को कविता का विषय बनाया। जब तक प्रकृति रहेगी धरती पर मानव सभ्यता रहेगी कवियों में चातक प्यास रहेगी तब तक बादल कविता में आलम्बन और उद्‌दीपन बनते रहेंगे।

Sunday, 9 May 2010

एक गीत -मां तुम गंगाजल होती हो

एक गीत -माँ तुम गंगाजल होती हो 
मेरी ही यादों में खोयी
अक्सर तुम पागल होती हो
मां तुम गंगा जल होती हो!
मां तुम गंगा जल होती हो!

जीवन भर दुःख के पहाड़ पर
तुम पीती आंसू के सागर
फिर भी महकाती फूलों सा
मन का सूना सा संवत्सर
जब-जब हम लय गति से भटकें
तब-तब तुम मादल होती हो।

व्रत, उत्सव, मेले की गणना
कभी न तुम भूला करती हो
सम्बन्धों की डोर पकड  कर
आजीवन झूला करती हो
तुम कार्तिक की धुली चांदनी से
ज्यादा निर्मल होती हो।

पल-पल जगती सी आंखों में
मेरी खातिर स्वप्न सजाती
अपनी उमर हमें देने को
मंदिर में घंटियां बजाती
जब-जब ये आंखें धुंधलाती
तब-तब तुम काजल होती हो।

हम तो नहीं भगीरथ जैसे
कैसे सिर से कर्ज उतारें
तुम तो खुद ही गंगाजल हो
तुमको हम किस जल से तारें।
तुझ पर फूल चढ़ायें कैसे
तुम तो स्वयं कमल होती हो।

Friday, 7 May 2010

गजल : वो एक खत है

चित्र -गूगल से साभार 


एक गज़ल -वो चुप रहे खुदा की तरह 

उसी के कदमों की आहट सुनाई देती है
कभी-कभार वो छत पर दिखाई देती है

मैं उससे बोलूं तो वो चुप रहे खुदा की तरह
मैं चुप रहूं तो खुदा की दुहाई देती है

वो एक खत है जिसे मैं छिपाये फिरता हूं
जहां खुलूस की स्याही दिखाई देती है

तमाम उम्र उंगलियां मैं जिसकी छू न सका
वो चूड़ी वाले को अपनी कलाई देती है

वो एक बच्ची खिलौनों को तोड  कर सारे
बड़े सलीके से मां को सफाई देती है

जयकृष्ण राय तुषार

Wednesday, 28 April 2010

भारत-पाक मैत्री के लिए



हिन्दी में कहें या कहें उर्दू में ग़ज़ल हो
ऐ दोस्त गले मिल तो हरेक बात का हल हो


आंखों में मेरे देख तू लाहौर, कराची
जब ख़्वाब तू देखे तो वहां ताजमहल हो


तू फूल की खुश्बू का दीवाना है तो मैं भी
अब कौन चाहता है कि कांटों की फसल हो


हम भेज रहे हैं खत में गुलाबों की पंखुरियां
अब तेरा भी खत आये तो खुश्बू हो कंवल हो


तू ईद मना हम भी मना लेंगे दीवाली
जज़्बात का मसला है ये जज़्बात से हल हो


हम इससे आचमन करें या तू वजू करे
झेलम का साफ पानी हो या गंगा का जल हो


इस चांद को देखें चलो रंजिश को भुला दें
जो बात मोहब्बत की है उसपे तो अमल हो


ऐ दोस्त अगर सुबह का भूला है तो घर आ
कुछ आंख मेरी भीगें कुछ तेरी सजल हो


इक रोज तेरे घर पे तबीयत से मिलेंगे
ये धुंध हटे राह से कुछ राह सरल हो


यह गजल अक्षर पर्व 'उत्सव अंक' २००८ में प्रकाशित हो चुकी है।

Tuesday, 23 February 2010

एक गज़ल -तबीयत से यहाँ गंगा नहाकर देखिए साहब

चित्र -गूगल से साभार 
तबीयत से यहां गंगा नहाकर देखिए साहब
फकीरों की तरह धूनी रमाकर देखिए साहब
तबीयत से यहां गंगा नहाकर देखिए साहब

यहां पर जो सुकूं है वो कहां है भव्य महलों में
ये संगम है यहां तम्बू लगाकर देखिये साहब

हथेली पर उतर आयेंगे ये संगम की लहरों से
परिन्दों को मोहब्बत से बुलाकर देखिए साहब

ये गंगा फिर बहेगी तोड़कर मजबूत चट्‌टानें
जो कचरा आपने फेंका हटाकर देखिये साहब

गाल गुलाबी हुए धूप के


इस मौसम में
आज दिखा है
पहला-पहला बौर आम का।

गाल गुलाबी
हुए धूप के
इन्द्रधनुष सा रंग शाम का।

सांस-सांस में
महक इतर सी
रंग-बिरंगे फूल खिल रहे,

हल्दी अक्षत के
दिन लौटे
पंडित से यजमान मिल रहे,
हर सीता के
मन दर्पण में
चित्र उभरने लगा राम का।

खुले-खुले
पंखों में पंछी
लौट रहे हैं आसमान से
जगे सुबह
रस्ते चौरस्ते
मंदिर की घंटी अजान से।

बर्फ पिघलने
लगी धूप से
लौट रहा फिर दिन हमाम का।
खुली-बन्द
ऑंखों में आते
सतरंगी सपने अबीर के।

द्वार-द्वार गा रहा
जोगिया मौसम
पद फगुआ कबीर के
रूक-रूक कर
चल रहा बटोही
इंतजार है किस मुकाम का

गंगा हमको छोड़ कभी मत इस धरती से जाना

चित्र गूगल से साभार 
गंगा हमको छोड़ कभी मत
इस धरती से जाना।
तू जैसे कल तक बहती थी
वैसे बहती जाना।

तू है तो ये पर्व अनोखे
वेद मंत्र सन्यासी,
तुझसे कनखल हरिद्वार है
तुझसे पटना काशी,
जहॉं कहीं हर हर गंगे हो
पल भर तू रुक जाना

भक्तों के उपर जब भी
संकट गहराता है
सिर पर तेरा हाथ
और आंचल लहराता है
तेरी लहरों पर है मॉं
हमको भी दीप जलाना

तू मॉं नदी सदानीरा हो
कभी न सोती हो
गोमुख से गंगासागर तक
सपने बोती हो
जहॉं कहीं बंजर धरती हो
मॉं तुम फूल खिलाना।

राजा रंक सभी की नैया
मॉं तू पार लगाती
कंकड  पत्थर शंख सीपियॉं
सबको गले लगाती
तेरे तट पर बैठ अघोरी
सीखे मंत्र जगाना

छठे छमासे मॉं हम
तेरे तट पर आयेंगे
पान फूल सिन्दूर चढ़ाकर
दीप जलायेंगे
मझधारों में ना हम डूबें
मॉं तू पार लगाना।

यह वर्ष बेमिसाल है होली मनाइये

यह वर्ष बेमिसाल है होली मनाइये
हर शखस फटेहाल है होली मनाइये

मनमोहनी हॅंसी ने रुला करके रख दिया
सौ रुपये में दाल है होली मनाइये

कुर्सी महल पवार के हिस्से में दोस्तों
अपने लिए पुआल है होली मनाइये

घर में नहीं है चीनी तो गुझिया न खाइये
अफसर के घर में माल है होली मनाइये

रंगों में घोटाला है मिलावट अबीर में
मौसम भी ये दलाल है होली मनाइये

हाथों में ले अबीर अमर सिंह न बैठिए
घर में भले बवाल है होली मनाइये

राहुल भी ठाकरे से हैं होली के मूड में
सादा बस एक गाल है होली मनाइये

जनता का जिस्म पड़ गया नीला तो क्या हुआ
सत्ता का चेहरा लाल है होली मनाइये

पाले में नंगा जिस्म ले मरता रहे किसान
मस्ती में लेखपाल है होली मनाइये

पी करके भंग सो रही संसद विधायिका
अपना किसे खयाल होली मनाइये

बहुमत में बहिन जी हैं विरोधी शिकस्त में
हाथी का सब कमाल है होली मनाइये
कैसा है इन्कलाब कोई शोर तक नहीं
बुझती हुई मशाल है होली मनाइये

एक युद्धगान -अब धर्मयुद्ध छोड़ो अर्जुन

  श्री कृष्ण अर्जुन अब धर्मयुद्ध छोड़ो अर्जुन  केशव की गीता  कहती है  युग के जैसा व्यवहार करो. अब धर्मयुद्ध  छोड़ो अर्जुन  दुश्मन पर प्रबल प्र...