Saturday, 7 May 2022

एक ग़ज़ल -उड़ता रहे हवा में या उतरे ज़मीन पर

 

चित्र सभार गूगल

एक ग़ज़ल -

जिसमें वतनपरस्ती थी बिस्मिल की हो गयी


हुस्न-ओ-शबाब की ग़ज़ल महफ़िल की हो गई 

जिसमें वतनपरस्ती थी बिस्मिल की हो गई


उड़ता रहे हवा में या उतरे ज़मीन पर

जो भी हरी थी टहनी वो हारिल की हो गई


फ़रियाद अपनी लेके अदालत से लौट आ

मुंसिफ़ से गुफ़्तगू सुना क़ातिल की हो गई


बेवक्त तेरे घर पे अब आता तो किस तरह

शोहरत शहर में अब तेरी महफ़िल की हो गई


काशी कभी ये तुलसी,कबीरा के नाम थी

अब तो प्रसाद,शुक्ल और धूमिल की हो गई


बैठे थे आज हम भी इसी शाम के लिए

तुमने कही जो बात मेरे दिल की हो गई


सब चैट कर रहे हैँ मगर अजनबी के संग

अब चाँदनी छतों की भी संगदिल की हो गई

कवि/शायर

जयकृष्ण राय तुषार

चित्र सभार गूगल


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