Friday, 15 April 2022

एक ग़ज़ल-रेत का दरिया हूँ

 

सुर्खाब

एक ग़ज़ल-रेत का दरिया हूँ


कोई कश्ती नहीं,पानी नहीं ,गिर्दाब नहीं

रेत का दरिया हूँ मुझमें कोई सैलाब नहीं


जिसमें पानी था उसी झील पे बरसात हुई

नींद में भी अब हरेपन का कोई ख्वाब नहीं


छत पे आ जाओ तो कुछ बात की खुशबू महके

आसमानों में कोई बोलता महताब नहीं


ये भी सहारा है यहाँ नागफ़नी के जंगल

फूल,फल,पेड़,तितलियाँ नहीं सुर्खाब नहीं


आज के दौर के बच्चे नहीं मिलते हँसकर

मिल भी जाएं तो सलीके से वो आदाब नहीं


जब  भी नाराज़ हुआ लहरों पे कंकड़ फेंका

अब मेरे गाँव में पुरखों का वो तालाब नहीं


किसको फुरसत है किसी पेड़ के नीचे बैठे

अब इशारों में कोई मिलने को बेताब नहीं

चित्र साभार गूगल



जयकृष्ण राय तुषार

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१६-०४ -२०२२ ) को
    'सागर के ज्वार में उठता है प्यार '(चर्चा अंक-४४०२)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार आपका।सादर प्रणाम

      Delete

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