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चित्र -साभार गूगल |
एक गीत -कहीं देखा गाछ पर गाती अबाबीलें
ढूँढता है
मन हरापन
सूखतीं झीलें |
कटे छायादार
तरु अब
ठूँठ ही जी लें |
धूप में
झुलसे हुए
चेहरे प्रसूनों के ,
घर -पते
बदले हुए हैं
मानसूनों के ,
कहीं देखा
गाछ पर
गाती अबाबीलें |
खेत -वन
आँगन
हवा में भी उदासी है ,
कृष्ण का
उत्तंग -
बादल भी प्रवासी है ,
प्यास
चातक चलो
अपने होंठ को सी लें |
मई भूले
जून का
चेहरा लवर सा है ,
हर तरफ़
दावाग्नि
मौसम बेख़बर सा है ,
सुबह -संध्या
दिवस चुभती
धूप की कीलें |
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चित्र -साभार गूगल |
वाह्ह्ह्ह... अति सुंदर लाज़वाब गीत👌
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-06-2019) को “प्रीत का व्याकरण” तथा “टूटते अनुबन्ध” का विमोचन" (चर्चा अंक- 3356) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सामायिक चिंतन पर शानदार भाव रचना।
ReplyDeleteसमय को दर्पण दिखाता बहुत ही सुन्दर गीत
ReplyDeleteसादर
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ जून २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह! बहुत संवेदनशील रचना।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteवाह!!! बहुत सुन्दर!!
ReplyDeleteबहुत सटीक अहसास। लाज़वाब अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteवाह वाह आपकी लेखनी बहुत ही प्रभावशील है
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