चित्र साभार गूगल |
एक गीत-पहले वाली काशी उसको और मुझे है याद
पहले वाली
काशी मुझको
और उसे है याद ।
अब वह
काशी नहीं
पढ़ रहा हूँ उसका अनुवाद।
बिना कचौड़ी गली
यहाँ का
मौसम फीका है,
वही बनारस
जहाँ घाट पर
चन्दन टीका है,
कोतवाल
भैरव,शिव जी का
दर्शन है अहलाद ।
इसमें कन्नड़
गुजराती,
मलयालम, उड़िया है,
यह संतों
का तीर्थ-
तीर्थ जादू की पुड़िया है,
वैष्णव
और अघोरी
का माँ गंगा से संवाद ।
नुक्कड़- नुक्कड़
इडली -सांभर
रसगुल्ला,छोला,
नृत्य -गीत
का परीलोक
है बंगाली टोला,
ठुमरी का
आलाप सिखाते
विदुषी को उस्ताद ।
करपात्री -
तैलंग,
विशुद्धानन्द नहीं है आज,
नहीं संत रविदास
न कीनाराम
और कविराज,
घाट -घाट पर
कैसे गूंजे
सुंदर अनहद नाद ।
भाषा बहुत
अनूठी,मौजी
काशी वाली है,
मुंह में
मघई पान दबाए
मीठी गाली है,
का हो गुरू
नमस्ते पहिले
हँसी -ठहाका बाद ।
कवि -जयकृष्ण राय तुषार
चित्र साभार गूगल |
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-04-2022) को चर्चा मंच "दिनकर उगल रहा है आग" (चर्चा अंक-4415) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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हार्दिक आभार आपका शास्त्री जी।सादर अभिवादन
Deleteकाशी की महिमा अपार है, सुंदर रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका।सादर अभिवादन
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