Sunday, 22 December 2024

एक ग़ज़ल -ख़्वाब किसने भर दिया

 

ग़ज़ल 

चित्र साभार गूगल 

एक ग़ज़ल -

जब कभी थककर के लौटा गोद में सर धर दिया 

माँ ने अपने जादुई हाथों से चंगा कर दिया 


फूल, खुशबू, तितलियाँ, नदियाँ, परी सब रंग थे 

नींद में आँखों में ऐसा ख़्वाब किसने भर दिया 


मौन रहकर भी किसी के दिल का किस्सा पढ़ लिए 

आँखों से आँखों को उसने सब इशारा कर दिया 


बर्फबारी, अग्निवर्षा, धूप, ओले, आधियाँ 

मौसमों ने बस हरे पेड़ों को सारा डर दिया 


नर्मदा, गिरिनार, सिद्धाश्रम है संतों की जगह 

जिसको जैसी है जरूरत उसको वैसा घर दिया 


जो भी माँगा दे दिए परिणाम की चिंता न थी 

देवताओं ने हमेशा राक्षसों को वर दिया 


पाँव हिरणों को मछलियों को नदी का जल दिया 

आसमाँ छूना था जिसको बस उसी को पर दिया 


बांसुरी और शंख होठों पर सजाकर देखिए 

वक़्त ने बेज़ान चीजों को भी मीठा स्वर दिया 


कवि /शायर 

जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 



Wednesday, 18 December 2024

कुछ सामयिक दोहे


कुछ सामयिक दोहे 

चित्र साभार गूगल 



मौसम के बदलाव का कुहरा है सन्देश 

सूरज भी जाने लगा जाड़े में परदेश 


हिरनी आँखों में रहें रोज सुनहरे ख़्वाब 

सबके मन उपवन रहें खुशबू और गुलाब 


कोई भी अपना नहीं दुनिया माया जाल 

ख़्वाब कमल के देखता दिनभर सूखा ताल 


जिससे मन की बात हो वह ही सबसे दूर 

आओ मन फिर से पढ़ें तुलसी, मीरा, सूर 


कुछ क्षण ही आकाश में चाँद, चाँदनी, नूर 

सुख के दिन उड़ते रहे जैसे खुले कपूर 


फिर से जगमग हो गए गंगा -यमुना तीर 

घाटों पर जलते दिए खुशबू लिए समीर 


महिमा गाते कुम्भ की सारे वेद -पुरान 

तीर्थराज में कीजिए दान और स्नान 


राम मिलेंगे आपको बनिए खुद हनुमान 

भक्तों के आधीन हैं देव और भगवान 


सबसे हाथ मिलाइये सबसे करिए प्यार 

बुलडोज़र से टूटता नफ़रत का बाजार 


कुहरे से डरिये नहीं इसके बाद वसंत 

मिलते हैं मधुमास में सुंदर फूल अनंत


इस चिड़िया को याद है हर मौसम का गीत 

अधरों में जैसे छुपा वंशी का संगीत


चित्र साभार गूगल 
कवि जयकृष्ण राय तुषार 


Saturday, 14 December 2024

ग़ज़ल -गगन का चाँद भी छत से

 

चित्र साभार गूगल 

एक ग़ज़ल -


कभी लहरों पे तिरते हैं कभी मिलते सफीनों पर 

परिंदे हैं ये संगम के नहीं रहते जमीनों पर 


ग़ज़ल के शेर अब मज़दूर की गलियों में मिलते हैं 

कभी शायर ग़ज़ल कहते थे शाहों और हसीनों पर 


किताबों को सजाने में कहाँ आराम मिलता है 

हर ऊँगली थक के सो जाती हैं टाइप की मशीनों पर 


ज़रा सी प्रूफ़ की गलती ग़ज़ल को बेबहर कर दे 

असर अच्छा नहीं होता सहज पाठक, ज़हीनों पर 


महकते फूल की खुशबू चमन तक खींच लाती है 

गगन का चाँद भी छत से उतर आता है जीनों पर 


चमक सोने या हीरे की नहीं कुछ और है शायद 

किसी का नाम लिक्खा है अंगूठी के नगीनों पर 


नमन करते हैं हम अपने वतन के उन शहीदों को 

जिन्होंने हॅसते हँसते गोलियाँ खाई थी सीनो पर 


(साहित्य की किताबों को टाइप करने वाले और उसे लेखक और पाठक तक जाने लायक बनाने वाले भाई संगमलाल श्रीवास्तव सहित देश भर के साहित्यिक किताबों के टाईपिस्टों एवं प्रूफ़ रीडर्स को समर्पित )

भाई संगमलाल श्रीवास्तव 


Saturday, 23 November 2024

एक ग़ज़ल -नया साल

 

चित्र साभार गूगल 


एक ग़ज़ल -आगाज़ नए साल का भगवान नया हो 


मौसम की कहानी नई उनवान नया हो 

आगाज़ नए साल का भगवान नया हो 


फूलों पे तितलियाँ हों बहारें हों चमन में 

महफ़िल में ग़ज़ल -गीत का दीवान नया हो 


बेटी हो या बेटा रहे रस्ते में सुरक्षित 

इस अबोहवा में यही एहसान नया हो 


खुशहाली हो हर पर्व में रंगोली नई हो 

रिश्तों का भरोसा लिए मेहमान नया हो 


आँखों में अगर ख़्वाब हो दुनिया के लिए हो

सुख चैन का परचम लिए इंसान नया हो 


ख़ामोश अगर शाख पे बैठे हों परिंदे 

सूरज से कहो उनका निगहबान नया हो 


इस भीड़ से हटकर चलो मिलते हैं कहीं पर 

खुशबू हो हवाओं में बियाबान नया हो 

चित्र साभार गूगल 



कवि जयकृष्ण राय तुषार

Wednesday, 20 November 2024

एक गीत -सर्द मौसम

 

चित्र साभार गूगल 

एक गीत -सर्द मौसम 

बर्फ़ में गुलमर्ग 

औली 

और शिमला है.

सर्द मौसम में 

गुलाबी 

कोट निकला है.


छतें 

स्वेटर बुन रही हैं 

भाभियों वाली,

बतकही, चुगली 

कड़कती 

चाय की प्याली,

लाँन में 

हर फूल 

खुशबू और गमला है.


हवा ठंडी 

काँपती सी 

लहर नदियों की,

याद आई 

फिर कहानी 

कई सदियों की,

चाँद 

पूनम का भी 

अबकी बार धुंधला है.


पेड़ से 

उड़कर जमीं 

पर लौट आए हैं,

ओंस में 

भींगे परिंदे 

कुनमुनाये हैं,

मौसमी 

दिनमान 

का भी रंग बदला है.

कवि -जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल 




Saturday, 16 November 2024

हिंदी ग़ज़ल का अक्षर पथ -आलोचना की किताब

  

डॉ नित्यानंद श्रीवास्तव 


हिंदी ग़ज़ल पर आलोचना की महत्वपूर्ण किताब 

हिंदी का अक्षर पथ -

लेखक -डॉ नित्यानंद श्रीवास्तव 


अभी अभी डाक से हिंदी ग़ज़ल आलोचना पर एक अद्भुत शोधपरक किताब"हिंदी ग़ज़ल का अक्षर पथ *मिली. डॉ नित्यानंद श्रीवास्तव गोरखपुर के महंत दिग्विजय नाथ कालेज में हिंदी के प्राध्यापक हैं. निरंतर गूढ विषयों पर लिखते रहते हैं और मेरे प्रेरणास्त्रोत भी हैं. यह किताब ग़ज़ल के उद्भव की प्रचलित धारणाओं को ख़ारिज के उनकी नई स्थापना करती है. ग़ज़ल विधा पर शोध के लिए बहुत उपयोगी पुस्तक को प्रकाशित किया है सर्व भाषा ट्रस्ट ने. मूल्य 499 रूपये पेज 184 हैं.पुस्तक में कुल 9अध्याय हैं.सर्व भाषा ट्रस्ट बहुत बढ़िया प्रकाशन कर रहा है और भविष्य में यह प्रकाशन सामान्य जन के लिए भी उपयोगी होगा. आदरणीय केशव पाण्डेय जी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें.


मैं इस पुस्तक के लेखक  और प्रकाशक दोनों को बधाई और शुभकामनायें देता हूँ. साहित्य मनीषयों के बीच यह लोकप्रिय होगी और उपयोगी भी.

सादर

पुस्तक का नाम -हिंदी ग़ज़ल का अक्षर पथ (आलोचना )

लेखक -श्री नित्यानंद श्रीवास्तव 

प्रकाशक -सर्व भाषा ट्रस्ट 

प्रथम संस्करण 2024

मूल्य 499 सजिल्द 



लेखक परिचय 





Sunday, 10 November 2024

एक ग़ज़ल -फूलों की वादियाँ

 

चित्र साभार गूगल 

एक ग़ज़ल -फूलों की वादियाँ 


पर्वत, पठार, खेत, ये बादल, ये बिजलियाँ

चिड़ियों के साथ गातीं थीं फूलों की वादियाँ 


धानी, हरी ये भूमि थी मौसम भी खुशनुमा 

मुट्ठी में बंद कर हम उड़ाते थे तितलियाँ 


किस्से तमाम घर की अंगीठी के पास थे 

स्वेटर, सलाई, ऊन के जिम्मे थी सर्दियाँ 


बहती नदी में रेत के टीले नहीं थे तब 

दरिया के साफ़ पानी में तिरती थीं मछलियाँ 


कोहबर के साथ हल्दी के छापों की याद है 

मंडप बिना ही शहरों में होती हैं शादियाँ 


मौसम का लोकरंग से रिश्ता था हर समय 

झूलों के साथ गुम हुईं सावन में कजलियाँ 


कवि /शायर 

जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 


एक ग़ज़ल की किताब -अनुभव है जाना पहचाना

 

कवि /शायर गणेश गंभीर 

एक ग़ज़ल -कवि /शायर गणेश गंभीर 

परिचय -गणेश गंभीर की जन्मभूमि मिर्ज़ापुर उत्तर प्रदेश है जहाँ हिंदी की दशा और दिशा बदलने वाले कवि लेखक पैदा हुए. शक्तिपीठ माँ विंध्यवासिनी देवी के साथ मिर्जापुर की कजरी या कज्जली भी प्रसिद्ध है. 1954 में जन्मे श्री गणेश शंकर श्रीवास्तव ही गणेश गंभीर के रूप में साहित्य में सम्मानित है भारतीय डाक सेवा से सेवा निवृत्त हैं. कई git/नवगीत और ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हैं. अनुभव है जाना पहचाना श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित है मूल्य 160 रूपये है जो सराहनीय है. गणेश गंभीर जी की एक ग़ज़ल 

ग़ज़ल -और कुछ भी नहीं 

दुआ सलाम का रिश्ता था और कुछ भी नहीं 
कभी कभार का मिलना था और कुछ भी नहीं 

अज़ीब लोग हैं राई को कर दिये  पर्वत 
मिली जो आँख तो थिठका था और कुछ भी नहीं 

मोहब्बतों का फ़साना कहा गया जिसको 
किसी का गुजरा ज़माना था और कुछ भी नहीं 

मेरे लिए वो मेरी जिंदगी का मकसद था 
मैं उसके वास्ते रस्ता था और कुछ भी नहीं 

करूँ बयान भला कैफियत में क्या उसकी 
हसीन रात का सपना था और कुछ भी नहीं 

तमाम उम्र जिसे दोस्ती कहा मैंने 
वो एक जाल था, धोखा था और कुछ भी नहीं 

शायर- गणेश गंभीर 

किताब -ग़ज़ल संग्रह *अनुभव है जाना पहचाना *
मूल्य -160 रूपये 
प्रकाशन -श्वेतवर्णा नई दिल्ली 

Friday, 8 November 2024

एक ग़ज़ल -कुशीनगर है यही

 

चित्र साभार गूगल 



कुशीनगर महात्मा बुद्ध का निर्वाण स्थल है और बौद्ध धर्म का पवित्र स्थल 

एक ग़ज़ल -कुशीनगर है यही 


तमाम जिंदगी का आखिरी सफ़र है यही 

भगवान बुद्ध का प्यारा कुशीनगर है यही 


यहाँ पे धम्म, अहिंसा की बात होती रही 

पवित्र बौद्ध मंदिरो का एक शहर है यही 


ये वन है फूल, तितलियों का ज्ञान वृक्षों का 

सभी के कान में गाता हुआ भ्रमर है यही 


तमाम संतो फकीरों की सिद्ध भूमि यही 

भगवान बुद्ध के निर्वाण से अमर है यही 


सभी का होता है स्वागत सभी से प्रेम यहाँ 

हमेशा मेला सजाये हुए नगर है यही 


जो इसको देखने आया यहीं का हो के गया 

ये बुद्ध पूर्णिमा प्रकाश की डगर है यही 


यहीं समीप में धूनी है नाथ पंथ की भी 

जो सबको बाँध ले जादूभरी नज़र है यही

जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 




ग़ज़ल -मन की नज़र से देखते हैं

 

 

चित्र साभार गूगल 


ये मत पूछो किधर से देखते हैं 

तुम्हें मन की नज़र से देखते हैं 

ये मौसम देखकर खुश हैं परिंदे 
फले फूले शज़र से देखते हैं 

सुने हैं चाँद धुंधला हो गया है 
सभी उसको शहर से देखते हैं 

कुशल तैराक बनने का हुनर है 
चलो कश्ती भंवर से देखते हैं 

किताबों में सही  मंज़र नहीं है
चलो दुनिया सफ़र से देखते हैं 

टिकट लगने लगा है पार्को में 
चलो सूरज को घर से देखते हैं 

हमारे दौर की गज़लें नई हैं 
वो ग़ालिब की बहर से देखते हैं 

कवि -जयकृष्ण राय तुषार 
चित्र साभार गूगल 

Thursday, 7 November 2024

हिंदी ग़ज़ल में है

 

 

चित्र साभार गूगल 

एक ताज़ा ग़ज़ल -हिंदी ग़ज़ल में है 


उर्दू ग़ज़ल है इश्क, मोहब्बत महल में है 

जीवन का लोक रंग तो हिंदी ग़ज़ल में है


नदियों के साथ झील भी, दरिया भी,कूप भी 

लेकिन कहाँ वो पुण्य जो गंगा के जल में है 


मेरी ग़ज़ल तमाम रिसालों में छप गयी 

अनजान है इक दोस्त जो घर के बगल में है 


दरिया में चाँद देखके सब लोग थे मगन 

आँखों को सच पता था ये छाया असल में है 


धरती को फोड़ करके निकलते हैं सारे रंग 

सरसों का पीला रंग भी धानी फसल में है 


खुशबू के साथ सैकड़ों रंगों के फूल हैं 

रिश्ता गज़ब का दोस्तों कीचड़ कमल में है

 

वैसे शपथ लिए थे सभी संविधान की 

लेकिन कहाँ ईमान का जज़्बा अमल में है 


 कवि -जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 




Wednesday, 6 November 2024

ग़ज़ल -हिरन की प्यास

 

चित्र साभार गूगल 

एक ताज़ा ग़ज़ल -हिरन की प्यास 

सुनहरे जाल फैलाकर ये दुनिया प्यार देती है 
हिरन की प्यास ही अक्सर हिरन को मार देती है 

नदी के तट शिकारी भी, अघोरी भी, परिंदे भी 
ये अपने छल को कितने रंग और आकार देती है 

किताबें संत भी गढ़ती हैं, नक्सल भी बनाती हैं 
मगर गीता हमारी सोच को विस्तार देती है 

नदी, पर्वत, चहकते वन, कहीं फूलों की घाटी है 
प्रकृति धरती को कितने रंग का श्रृंगार देती है 

लुभाते थे कभी बच्चों को तितली, फूल खेतों में 
नए कान्वेंट की कल्चर अब बचपन मार देती है 

मोहब्बत के ख़तों में भी कभी दर्शन था जीवन का 
मोहब्बत आजकल बस ज़िस्म को बाज़ार देती है 

ये किस्मत कब किसे क्या दे उसे मालूम है केवल 
कभी आँसू के गुलदस्ते कभी उपहार देती है 

कवि /शायर 
जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 


Friday, 1 November 2024

एक ग़ज़ल -हजार रंग के मौसम

चित्र साभार गूगल 


एक ग़ज़ल -हजार रंग के मौसम 


हज़ार रंग के मौसम सफ़र में मिलते हैं 

कहाँ ये झील -शिकारे शहर में मिलते हैं 


तिलस्म ऐसा मोहब्बत में सिर्फ़ होता है 

हमारे अक्स किसी की नज़र में मिलते हैं 


यकीन हो न तो कान्हा की बांसुरी सुन लो 

तमाम रंग सुरों के अधर में मिलते हैं 


संवर के आना ये महफ़िल बड़े अदीबों की 

लिबास सादा पहनके वो घर में मिलते हैं 


भिंगो के पँख जो संगम में उड़ के गाते रहे 

तमाम ऐसे परिंदे लहर में मिलते हैं 


अँधेरी रातों में जिद्दी दिए जो जलते रहे 

कहाँ चराग अब ऐसे सफ़र में मिलते हैं 


यूँ तुमको देख के सब तालियाँ बजाते रहे 

कुछ अच्छे शेर ही अच्छी बहर में मिलते हैं 


जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल 


Sunday, 27 October 2024

ग़ज़ल -समंदर से उठे हैं या नहीं

 

चित्र साभार गूगल


समंदर से उठे हैं या नहीं बादल ये रब जाने 
नजूमी बाढ़ का मज़र लगे खेतों को दिखलाने 

नमक से अब भी सूखी रोटियां मज़दूर खाते हैं 
भले ही कृष्ण चंदर ने लिखे हों इनपे अफ़साने 

रईसी देखनी है मुल्क की तो क्यों भटकते हो 
सियासतदां का घर देखो या फिर बाबू के तहखाने 

मुसाफिऱ छोड़ दो चलना ये रस्ता है तबाही का 
यहाँ हर मोड़ पे मिलते हैं साक़ी और मयखाने 

चलो जंगल से पूछें या पढ़े मौसम की खामोशी 
परिंदे उड़ तो सकते हैं मगर गाते नहीं गाने 

ये वो बस्ती है जिसमें सूर्य की किरनें नहीं पहुँची 
करेंगे जानकर भी क्या ये सूरज -चाँद के माने 

सफ़र में साथ चलकर हो गए हम और भी तन्हा 
न उनको हम कभी जाने न वो हमको ही पहचाने 

जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 


Saturday, 19 October 2024

दो ग़ज़लें

 

चित्र साभार गूगल 

खौफ़ का कितना हसीं मंजर था मेरे सामने 

हर किसी के हाथ में पत्थर था मेरे सामने 


प्यार से जब खेलते बच्चे को चाहा चूमना 

मैं वक़्त का पाबंद था दफ़्तर था मेरे सामने 


अमन की बातें परिंदे कैसे मेरी मानते 

रक्त में डूबा हुआ एक पर था मेरे सामने 


अब तलक भूली नहीँ बचपन की मुझको वो सजा 

मैं खड़ा था धूप में और घर था मेरे सामने 


जन्मदिन पर तेरे कैसे भेंट करता फूल मैं 

सहरा था मेरे सामने बंजर था मेरे सामने 

कवि जयकृष्ण राय तुषार 


चित्र साभार गूगल 

समस्याओं का रोना है अब उनका हल नहीं होता 

हमारे बाजुओं में अब तनिक भी बल नहीँ होता 

समय के पंक में उलझी है फिर गंगा भगीरथ की 
सुना उज्जैन की क्षिप्रा में भी अब जल नहीं होता 

सहन में बोन्साई हैं न साया है न खुशबू है 
परिंदे किस तरह आएंगे इनमें फल नहीं होता 

नशे में शोर को  संगीत का सरगम समझते हो 
शहर की धुंध में वंशी नहीं मादल नहीं होता 

सफऱ में हम भी तन्हा हैं सफऱ में तुम भी तन्हा हो 
किसी भी मोड़ पर अब खूबसूरत पल नहीं होता 

प्रतीक्षा में तुम्हारी हम समय पर आके तो देखो 
जो जज्बा आज दिल में है वो शायद कल नहीं होता 

जिसे तुम देखकर खुश हो मरुस्थल की फ़िज़ाओं में 
ये उजले रंग के बादल हैं इनमें जल नहीं होता 


Thursday, 17 October 2024

एक ग़ज़ल -एक नग़्मा है उजाला

 


दीपावली अभी दूर है लेकिन एक ताज़ा ग़ज़ल 

सादर 


ग़ज़ल 

एक नग़्मा है उजाला इसे गाते रहिए 

इन चरागों को मोहब्बत से जलाते रहिए 


फूल, मिष्ठान, अगरबत्ती, हवन, पूजा रहे 

राम की नगरी अयोध्या को सजाते रहिए 


चाँद को भी है मयस्सर कहाँ ये दीवाली 

शिव की काशी में गगन दीप जलाते रहिए 


भारतीय संस्कृति की पहचान हैँ मिट्टी के दिए 

घर के आले में या आँगन में जलाते रहिए 


पर्व यह ज्योति,पटाखों का, सफाई का भी 

दिल के पर्दों पे जमीं धूल हटाते रहिए 


सबके घर कामना मंगल की, सनातन है यही 

जो भी दुख -दर्द में हैँ उनको हँसाते रहिए 


आज अध्यात्म के श्रृंगार की अमावस्या 

आप भी चाँद सा मुखड़ा ये दिखाते रहिए 

कवि जयकृष्ण राय तुषार



Sunday, 8 September 2024

एक ग़ज़ल -वो अक्सर फूल परियों की तरह

 

चित्र साभार गूगल 

बेटियों /स्त्रियों पर लगातार लैंगिक अपराध से मन दुःखी है. कभी स्त्रियों के दुख दर्द पर मेरी एक ग़ज़ल बी. बी. सी. लंदन की नेट पत्रिका ने प्रकाशित किया था. साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित समकालीन हिंदी ग़ज़ल में भी इसे स्थान मिला था. सम्पादक हैँ आदरणीय माधव कौशिक जी.

बी. बी. सी. द्वारा प्रकाशित 


एक पुरानी ग़ज़ल -वो अक्सर फूल -परियों की तरह

 

वो अक्सर फूल परियों की तरह सजकर निकलती है

मगर आँखों में इक दरिया का जल भरकर निकलती है।


कँटीली झाड़ियाँ उग आती हैं लोगों के चेहरों पर

ख़ुदा जाने वो कैसे भीड़  से बचकर निकलती है.


जमाने भर से इज्जत की उसे उम्मीद क्या होगी

खुद अपने घर से वो लड़की बहुत डरकर निकलती है.


बदलकर शक्ल हर सूरत उसे रावण ही मिलता है 

लकीरों से अगर सीता कोई बाहर निकलती है .


सफर में तुम उसे ख़ामोश गुड़िया मत समझ लेना

ज़माने को झुकी नज़रों  से वो पढ़ कर निकलती है.


खुद जिसकी कोख में ईश्वर भी पलकर जन्म लेता है

वही लड़की  खुद अपनी कोख से मरकर निकलती है.


जो बचपन में घरों की जद हिरण सी लांघ आती थी

वो घर से पूछकर हर रोज अब दफ़्तर  निकलती है।


छुपा लेती है सब आंचल में रंजोग़म  के अफ़साने

कोई भी रंग हो मौसम का वो हंसकर निकलती है।


कवि -जयकृष्ण राय तुषार 

सभी चित्र साभार गूगल

चित्र साभार गूगल 

Wednesday, 14 August 2024

एक ग़ज़ल -यही हिमालय, तिरंगा ये हरसिंगार रहे

 

तिरंगा 

कल 15 अगस्त है भारत की आजादी /स्वतंत्रता का स्वर्णिम दिन. करोड़ों भारतीयों के बलिदान के बाद यह आजादी हमें मिली है. हम भाग्यशाली हैँ जिस देश मेँ गंगा है हिमालय है गीता है रामायण है प्रभु श्रीराम हैँ. यह असंख्य जीवनदायिनी नदियों का ऋषियों का देश है. समस्त देशवासियों प्रवासी भारतीयों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें शुभकामनायें. यह तिरंगा सदैव अपराजेय रहे. वन्देमातरम 


 


तिरंगा -जय हिन्द जय भारत वन्देमातरम 

एक पुरानी ग़ज़ल 


एक ग़ज़ल देश के नाम -


कहीं से लौट के आऊँ तुझी से प्यार रहे


हवा ,ये फूल ,ये खुशबू ,यही गुबार रहे 

कहीं से लौट के आऊँ तुझी से प्यार रहे 


मैं जब भी जन्म लूँ गंगा तुम्हारी गोद रहे 

यही तिरंगा ,हिमालय ये हरसिंगार रहे 


बचूँ तो इसके मुकुट का मैं मोरपंख बनूँ 

मरूँ  तो नाम शहीदों में ये शुमार रहे 


ये मुल्क ख़्वाब से सुंदर है जन्नतों से बड़ा 

यहाँ पे संत ,सिद्ध और दशावतार रहे 


मैं जब भी देखूँ लिपट जाऊँ पाँव को छू लूँ 

ये माँ का कर्ज़ है चुकता न हो उधार रहे 


भगत ,आज़ाद औ बिस्मिल ,सुभाष भी थे यहीं 

जो इन्क़लाब लिखे सब इन्हीं के यार रहे 


आज़ादी पेड़ हरा है ये मौसमों से कहो 

न सूख पाएँ परिंदो को एतबार रहे 


तमाम रंग नज़ारे ये बाँकपन ये शाम 

सुबह के फूल पे कुछ धूप कुछ 'तुषार 'रहे 


कवि /शायर -जयकृष्ण राय तुषार 

झाँसी की रानी 


चित्र -साभार गूगल 


चित्र -साभार गूगल -भारत के लोकरंग

Monday, 22 July 2024

किताब -वर्चस्व -लेखक आई. पी. एस. श्री राजेश पांडे

 

किस्सागोई की अद्भुत किताब वर्चस्व. 

I. P. S श्री राजेश पांडे की किताब वर्चस्व 

एक ऐसे पुलिस ऑफिसर जिसने S. T. F के गठन से लेकर श्रीप्रकाश शुक्ला जैसे खतरनाक और दुस्साहसी माफिया का अंत किया उस. I. P. S ऑफिसर की किताब है. वर्चस्व को राजकमल प्रकाशन के उप प्रकाशन राधाकृष्ण ने प्रकाशित किया है. पांडे जी ने ईमानदारी पूर्वक सारी घटनाओं का माननीयों का जिक्र किया है इसलिए यह किताब विश्वसनीय बन जाती है. माननीय कल्याण सिंह जी के समय उत्तर प्रदेश एस. टी. एफ का गठन किया गया था जो आज अपराधियों के लिए सबसे बड़ा खौफ़ है. पांडे जी इलाहाबाद विश्व विद्यालय के वनस्पति विज्ञान के परास्नातक रहे हैँ. 2003 बैच के आई. पी. एस. ऑफिसर हैँ. किताब का मूल्य 399 रूपये है. लल्लन टॉप पर पांडे जी और सौरभ द्विवेदी की बातचीत भी किताबनामा एपिसोड मे दर्ज है. सम्भवतः बी. बी. सी. पर भी इनका इंटरव्यू है. एक इलाहाबादी जन्मजात लेखक होता है क्योंकि साहित्य में कई बड़े प्रयोग यहीं से होकर गुजरे हैँ.

पांडे जी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन D. G. P श्री अवस्थी जी के साथ 
सेवानिवृति का अवसर 


Sunday, 30 June 2024

एक गीत -मन किसी को याद करता है

 

चित्र साभार गूगल 
एक गीत -मन किसी को याद करता है 

जब गुलाबी फूल खिलते हैं 

मौसमों से रंग मिलते हैं 

पोछता हूँ धूल जब तस्वीर से 

मन किसी को याद करता है.


हाथ जब मेंहदी रचाते हैं 

पेड़ पंछी गुनगुनाते हैं 

धूप को जब छाँह मिलती है 

सुरमई जब शाम ढलती है 

खिड़कियों पर टांगकर पर्दे 

मौन भी संवाद करता है 

मन किसी को याद करता है.


चिट्ठियों के दिन कहाँ खोये 

कब हँसे हम और कब रोये 

मन लिखे भूली कथाओं को 

प्रेम की पावन ऋचाओं को 

प्रेम और वैराग्य का स्वागत 

यह इलाहाबाद करता है.

मन किसी को याद करता है.


पथ कभी छूटे नहीं मिलते 

हर समय गुड़हल नहीं खिलते 

वक्त ही हमको नई आवाज़ देता है

आम्रपाली को वही सुर साज देता है 

गीत लिखते हम मगर जादू 

साज पर नौशाद करता है

मन किसी को याद करता है.

कवि -जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 


एक पुराना होली गीत. अबकी होली में

   चित्र -गूगल से साभार  आप सभी को होली की बधाई एवं शुभकामनाएँ  एक गीत -होली  आम कुतरते हुए सुए से  मैना कहे मुंडेर की | अबकी होली में ले आन...