Saturday, 19 October 2024

दो ग़ज़लें

 

चित्र साभार गूगल 

खौफ़ का कितना हसीं मंजर था मेरे सामने 

हर किसी के हाथ में पत्थर था मेरे सामने 


प्यार से जब खेलते बच्चे को चाहा चूमना 

मैं वक़्त का पाबंद था दफ़्तर था मेरे सामने 


अमन की बातें परिंदे कैसे मेरी मानते 

रक्त में डूबा हुआ एक पर था मेरे सामने 


अब तलक भूली नहीँ बचपन की मुझको वो सजा 

मैं खड़ा था धूप में और घर था मेरे सामने 


जन्मदिन पर तेरे कैसे भेंट करता फूल मैं 

सहरा था मेरे सामने बंजर था मेरे सामने 

कवि जयकृष्ण राय तुषार 


चित्र साभार गूगल 

समस्याओं का रोना है अब उनका हल नहीं होता 

हमारे बाजुओं में अब तनिक भी बल नहीँ होता 

समय के पंक में उलझी है फिर गंगा भगीरथ की 
सुना उज्जैन की क्षिप्रा में भी अब जल नहीं होता 

सहन में बोन्साई हैं न साया है न खुशबू है 
परिंदे किस तरह आएंगे इनमें फल नहीं होता 

नशे में शोर को  संगीत का सरगम समझते हो 
शहर की धुंध में वंशी नहीं मादल नहीं होता 

सफऱ में हम भी तन्हा हैं सफऱ में तुम भी तन्हा हो 
किसी भी मोड़ पर अब खूबसूरत पल नहीं होता 

प्रतीक्षा में तुम्हारी हम समय पर आके तो देखो 
जो जज्बा आज दिल में है वो शायद कल नहीं होता 

जिसे तुम देखकर खुश हो मरुस्थल की फ़िज़ाओं में 
ये उजले रंग के बादल हैं इनमें जल नहीं होता 


9 comments:

  1. आहा ... दोनों गजलें कमाल हैं ...

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  2. आभार भाई साहब. बहुत पुरानी हैँ. ग़ज़ल संग्रह के लिए डायरी से निकाले.

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  3. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 21 अक्टूबर 2024 को लिंक की जाएगी ....  http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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  4. Replies
    1. हार्दिक आभार. सादर प्रणाम

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  5. वाह!!!
    बहुत ही लाजवाब👌🙏

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    1. हार्दिक आभार. सादर अभिवादन

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