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चित्र साभार गूगल |
खौफ़ का कितना हसीं मंजर था सामने
हर किसी के हाथ में पत्थर था मेरे सामने
अमन की बातें परिंदे कैसे मेरी मानते
रक्त में डूबा हुआ एक पर था मेरे सामने
अब तलक भूली नहीँ बचपन की मुझको वो सजा
मैं खड़ा था धूप में और घर था मेरे सामने
जन्मदिन पर तेरे कैसे भेंट करता फूल मैं
सहरा था मेरे सामने बंजर था मेरे सामने
कवि जयकृष्ण राय तुषार
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चित्र साभार गूगल |
समस्याओं का रोना है अब उनका हल नहीं होता
हमारे बाजुओं में अब तनिक भी बल नहीँ होता
समय के पंक में उलझी है फिर गंगा भगीरथ की
सुना उज्जैन की क्षिप्रा में भी अब जल नहीं होता
सहन में बोन्साई हैं न साया है न खुशबू है
परिंदे किस तरह आएंगे इनमें फल नहीं होता
नशे में शोर को संगीत का सरगम समझते हो
शहर की धुंध में वंशी नहीं मादल नहीं होता
सफऱ में हम भी तन्हा हैं सफऱ में तुम भी तन्हा हो
किसी भी मोड़ पर अब खूबसूरत पल नहीं होता
प्रतीक्षा में तुम्हारी हम समय पर आके तो देखो
जो जज्बा आज दिल में है वो शायद कल नहीं होता
जिसे तुम देखकर खुश हो मरुस्थल की फ़िज़ाओं में
ये उजले रंग के बादल हैं इनमें जल नहीं होता
आहा ... दोनों गजलें कमाल हैं ...
ReplyDeleteआभार भाई साहब. बहुत पुरानी हैँ. ग़ज़ल संग्रह के लिए डायरी से निकाले.
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक आभार. सादर प्रणाम
Deleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब👌🙏
हार्दिक आभार. सादर अभिवादन
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक आभार. सादर pr
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