दीपावली अभी दूर है लेकिन एक ताज़ा ग़ज़ल
सादर
ग़ज़ल
एक नग़्मा है उजाला इसे गाते रहिए
इन चरागों को मोहब्बत से जलाते रहिए
फूल, मिष्ठान, अगरबत्ती, हवन, पूजा रहे
राम की नगरी अयोध्या को सजाते रहिए
चाँद को भी है मयस्सर कहाँ ये दीवाली
शिव की काशी में गगन दीप जलाते रहिए
भारतीय संस्कृति की पहचान हैँ मिट्टी के दिए
घर के आले में या आँगन में जलाते रहिए
पर्व यह ज्योति,पटाखों का, सफाई का भी
दिल के पर्दों पे जमीं धूल हटाते रहिए
सबके घर कामना मंगल की, सनातन है यही
जो भी दुख -दर्द में हैँ उनको हँसाते रहिए
आज अध्यात्म के श्रृंगार की अमावस्या
लोकमंगल के लिए मंत्र जगाते रहिए
कवि जयकृष्ण राय तुषार
उजाले की बांसुरी बजाकर अंधेरा दूर हटाते रहिए...।
ReplyDeleteसुंदर ग़ज़ल सर।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १८ अक्टूबर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।