चित्र-साभार गूगल |
एक प्रेमगीत-
चिट्ठियाँ पढ़ते हुए सुनसान वाले दिन
झुकीं नज़रें
गुलमोहर
मुस्कान वाले दिन ।
याद हैं
अब भी
मुलेठी पान वाले दिन।
पुस्तकों के
बीच में
तस्वीर रखकर देखना,
राह चलते
आदमी पर
एक कंकड़ फेंकना,
चिट्ठियाँ
पढ़ते हुए
सुनसान वाले दिन ।
आईने को
देखकर
हँसना स्वगत रोना,
मेज पर ही
सिर टिकाकर
देर तक सोना,
याद हैं
सहगल,रफ़ी
अनजान वाले दिन ।
टूटते तारे
हवा में
चाँदनी रातें,
बिना बोले
खिड़कियाँ
करती रहीं बातें,
माँ की
चिन्ताएं, नज़र
लोबान वाले दिन ।
कवि-जयकृष्ण राय तुषार
तुषार जी, आपकी ये छोटी-छोटी पंक्तियों के छन्दों वाले गीत तो अद्वितीय होते हैं । एक-एक शब्द मानो मेरे मन को कोमलता से सहलाता चला गया । एक पुराना गीत याद आ गया - 'याद न जाए बीते दिनों की, जाकर न आए जो दिन, दिल क्यों बुलाए उन्हें, दिल क्यों बुलाए ?'
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-02-2021) को "बढ़ो प्रणय की राह" (चर्चा अंक- 3973) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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हार्दिक आभार आपका सर
Deleteबहुत सुंदर कोमल रचना।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
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