चित्र -साभार गूगल |
एक ग़ज़ल -
पहाड़ों में कोई रस्ता कहाँ आसान दिखता है
वहीं पर बाढ़ आती है जहाँ मैदान दिखता है
तरक्की की कुल्हाड़ी ने हजारों पेड़ काटे हैं
जरूरत को कहाँ कोई नफ़ा -नुकसान दिखता है
तुम्हारा जन्मदिन है आज ये झुमके पहन लेना
भले तुम चाँदनी हो पर ये सूना कान दिखता है
शहर में पत्थरों के घर फलों के पेड़ कितने हैं
परिंदा घूमने आया है पर हैरान दिखता है
पिकासो की कला हो या मोहब्बत का हो अफ़साना
तुम्हारी शोखियों में मीर का दीवान दिखता है
ये ड्राइंग रूम तो केवल नफ़ासत और दिखावा है
जरूरत का नहीं है जो, वही सामान दिखता है
वही है देश की सेवा जो कीमत के बिना होती
बदलते दौर में सेवा में बस अनुदान दिखता है
जयकृष्ण राय तुषार
चित्र -साभार गूगल |
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-02-2021) को "महक रहा खिलता उपवन" (चर्चा अंक-3991) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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हार्दिक आभार आदरणीय
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