चित्र -साभार गूगल |
एक ग़ज़ल-
हमारी आस्था चिड़ियों को भी दाना खिलाती है
गले में क्रॉस पहने है मगर चन्दन लगाती है
सियासत भी इलाहाबाद में संगम नहाती है
ये नाटक था यहाँ तक आ गए कैसे ये मायावी
सुपर्णखा बनके जैसे राम को जोगन रिझाती है
कोई बजरे पे कोई रेत में धँसकर नहाता है
ये गंगा माँ निमन्त्रण के बिना सबको बुलाती है
सनातन संस्कृति कितनी निराली और पुरानी है
हमारी आस्था चिड़ियों को भी दाना खिलाती है
खिलौने आ गए बाजार से लेकिन हुनर का क्या
मेरी बेटी कहाँ अब शौक से गुड़िया बनाती है
वो राजा क्या बनेगा अश्व की टापों से डरता है
उसे दासी महल में शेर का किस्सा सुनाती है
ये हाथों की सफ़ाई है इसे जादू भी कहते हैं
नज़र से देखने वालों को यह अन्धा बनाती है
खिले हैं फूल जब तक तितलियों से बात मत करना
जरूरत पेड़ से गिरते हुए पत्ते उठाती है
कवि/शायर जयकृष्ण राय तुषार
चित्र साभार गूगल |
कवि /शायर जयकृष्ण राय तुषार
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (14-02-2021) को "प्रणय दिवस का भूत चढ़ा है, यौवन की अँगड़ाई में" (चर्चा अंक-3977) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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"विश्व प्रणय दिवस" की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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हार्दिक आभार सर |विलंब लैपटॉप साथ मेन रहने के कारण हो रहा है |
Deleteखिले हैं फूल जब तक तितलियों से बात मत करना
ReplyDeleteजरूरत पेड़ से गिरते हुए पत्ते उठाती है
शानदार...
हार्दिक आभार आपका
Deleteबहुत बढ़िया..
ReplyDeleteसादर नमन...
हार्दिक आभार आपका
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Deleteखिलौने आ गए बाजार से लेकिन हुनर का क्या
ReplyDeleteमेरी बेटी कहाँ अब शौक से गुड़िया बनाती है
लाज़बाब,सादर नमन आपको
हार्दिक आभार आपका |प्रेम दिवस पर आपको अशेष शुभकामनायें
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