चित्र साभार गूगल |
दैनिक जनसंदेश टाइम्स लख़नऊ |
एक ग़ज़ल -शोख ग़ज़लों में तसव्वुर को सजाने के लिए
कौन बाक़ी है मेरा राज़ बताने के लिए
अब कोई ख़त भी नहीं घर में छिपाने के लिए
प्यास तो नदियाँ बुझाती हैं ज़माने भर की
वो समंदर है अहं अपना दिखाने के लिए
भूख और प्यास लिए बैठे परिंदे छत पर
नींद ने समझा कि आते हैं जगाने के लिए
खुद से हो जंग तो मैं हारूँ या जीतू लेकिन
घर से निकला तो सभी आये मनाने के लिए
लोग पढ़ लेते हैं जैसे कोई अख़बार हूँ मैं
कुछ नहीं बाकी है अब सुनने सुनाने के लिए
उससे चुपचाप किसी मोड़ पे मिल लेता हूँ
शोख ग़ज़लों में तसव्वुर को सजाने के लिए
फूल तो खुशबू ही देते रहे आदिम युग से
सिर्फ़ पत्थर ही मिले आग जलाने के लिए
ग़म ख़ुशी सारे ही किरदार कहानी में मेरे
हमने कब सोच के लिखा था ज़माने के लिए
कवि -जयकृष्ण राय तुषार
चित्र साभार गूगल |
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (26-02-2023) को "फिर से नवल निखार भरो" (चर्चा-अंक 4643) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार आपका
ReplyDeleteअति सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Deleteबहुत ख़ूब, वाह वाह।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Deleteबहुत सुंदर ग़ज़ल।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Deleteहार्दिक आभार आपका
Deleteलाजवाब भाव! उम्दा सृजन।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Deleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteफूल तो खुशबू ही देते रहे आदिम युग से
ReplyDeleteसिर्फ़ पत्थर ही मिले आग जलाने के लिए
वाह! लाजवाब रचना।
हार्दिक आभार आपका
Deleteवाह लाजबाब ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Delete