चित्र साभार गूगल |
एक ग़ज़ल -नया ख़्वाब दिखाता भी नहीं
मेरी आँखों को नया ख़्वाब दिखाता भी नहीं
धूप का चश्मा कोई रंग सजाता भी नहीं
सूखते पेड़, नदी, झील, परिंदो की सदा
कोई मौसम को सही बात बताता भी नहीं
अपनी उम्मीद भी खंडहर सी विराने में कहीं
कोई आता भी नहीं है कोई जाता भी नहीं
भूख से आँधी से, बरसात से लड़ता ही रहा
पाँव भी नंगे रहे हाथ में छाता भी नहीं
दोस्ती, दुश्मनी या प्यार मोहब्बत की क़सम
आज कल कोई सलीके से निभाता भी नहीं
शाम को डूबा था फिर सुब्ह को सूरज निकला
झील में, दरिया में, सागर में समाता भी नहीं
कवि जयकृष्ण राय तुषार
चित्र साभार गूगल |
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