चित्र साभार गूगल |
एक ग़ज़ल -
कभी हँसते हुए ऐसी कहाँ तस्वीर मिलती है
मोहब्बत के फ़सानों में ही अक्सर हीर मिलती है
कभी हँसते हुए ऐसी कहाँ तस्वीर मिलती है
न पहले की तरह मौसम न वैसी धूप, बारिश है
कहाँ फूलों में भी अब फूल सी तासीर मिलती है
सुनहरी वादियाँ, परियों के किस्से बस किताबों में
हरे पत्तों में भी बुलबुल बहुत दिल गीर मिलती है
सजाकर हम कभी रखते थे ख़त को और रिश्तों को
कहाँ अब हाथ से लिक्खी कोई तहरीर मिलती है
मुंडेरों पर कभी चिड़िया चहकती थी सुबह आकर
मकानों में न अब मिट्टी नहीं शहतीर मिलती है
सुनहरे पंख लेकर ख़्वाब में उड़ते रहे अक्सर
हक़ीक़त में मगर ऐसी कहाँ तस्वीर मिलती है
मिथक को तोड़ने इक संत काशी से चला आया
मगर मगहर को काशी सी कहाँ तक़दीर मिलती है
चित्र साभार गूगल |
कवि जयकृष्ण राय तुषार
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