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| चित्र -साभार गूगल | 
एक गीत -
फिर गुलाबी फूल ,कलियों से लदेंगी नग्न शाखें
फिर  गुलाबी 
फूल ,कलियों से
लदेंगी  नग्न शाखें   |
पर हमारे 
बीच होंगी नहीं 
परिचित कई आँखें |
यह अराजक 
समय ,मौसम 
भूल जाएगा जमाना ,
फिर किताबों में 
पढ़ेंगे गाँव का 
मंज़र  सुहाना ,
देखकर 
हम मौन होंगे 
तितलियों की कटी पाँखेँ |
झील में 
खिलते कंवल,  
मछली नदी में जाल होंगे ,
नहीं होगा 
स्वर तुम्हारा 
साज सब करताल होंगे ,
गाल पर रूमाल 
होंगे 
डबडबाई हुई आँखें |
ज्ञान और विज्ञान 
का सब दम्भ 
कैसे है पराजित ,
प्रकृति के 
उपहास का यह 
लग रहा  परिणाम किंचित ,
अब घरों की 
खिड़कियाँ हैं 
जेल की जैसे सलाखें |
कवि -जयकृष्ण राय तुषार 
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| चित्र -साभार गूगल | 
 
 
 
 
सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा रविवार ( 09-05-2021) को
"माँ के आँचल में सदा, होती सुख की छाँव।। "(चर्चा अंक-4060) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित है.धन्यवाद
…
"मीना भारद्वाज"
हार्दिक आभार आपका |सादर अभिवादन |
Deleteबहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका \सादर अभिवादन
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका |सादर अभिवादन
Deleteबहुत मार्मिक अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका |सादर प्रणाम |
Deleteसार्थक व सामयिक रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका।सादर अभिवादन
Deleteझझकोरती हुई कृति ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार ।सादर अभिवादन
Deleteबिल्कुल ऐसा ही प्रतित हो रहा है :
ReplyDelete"प्रकृति के
उपहास का यह
लग रहा परिणाम किंचित"
स्वावलोकन के लिए कहती एक मार्मिक रचना।
हार्दिक आभार आपका
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