चित्र -साभार गूगल |
एक गीत -
नदी के तट पर पियासे हिरन मरते हैं
हरे पत्ते
शाख से
अब फूल झरते हैं |
नदी के
तट पर
पियासे हिरन मरते हैं |
अब उजाले
हो गए हैं
क़ैदखानों से ,
चीखता है
सिर्फ़
सन्नाटा मकानों से ,
नींद में
अब आँख से
भी स्वप्न डरते हैं |
मौन हैं सारे
फरेबी
सत्यवादी दल ,
क्या पता
बहुरूपिए
मौसम करेंगे छल ,
फेफड़ों में
हम कृत्रिम
सी साँस भरते हैं |
खाँसती है
मास्क पहने
चाँदनी पीली ,
आग कैसे
जले माचिस
हो गयी गीली ,
ये बुझे
चूल्हे हवा में
धुएँ भरते हैं |
वायदे
दिन के अधूरे
बहस जारी है ,
आदमीयत
पोल पर
रस्सी -मदारी है ,
इन्हीं सँकरे
रास्तों से
हम गुजरते हैं |
कवि -जयकृष्ण राय तुषार
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