Tuesday, 26 July 2022

एक ग़ज़ल -मौसम का कुछ असर ही नहीं




एक ग़ज़ल -
ख़ुशी से हाथ मिलाता कोई बशर ही नहीँ

नए ज़माने पे मौसम का कुछ असर ही नहीं
सुना है फूल, परिंदो का ये नगर ही नहीं

नुकीले काँटों के चुभने का दर्द मुझको पता
वो नंगे पाँव किया था कभी सफ़र ही नहीं

मेरे ख़तों का न आया कोई जवाब उनका 
सुना है उनपे मोहब्बत का कुछ असर ही नहीं

छतों पे चाँदनी आकर गगन में लौट गयी
मैं अपनी क़ैद में बैठा मुझे ख़बर ही नहीं

तुम्हारे लाँन में गमले हजार रंग के हैं
मगर परिंदो के लायक कोई शज़र ही नहीं 

हरेक मोड़ पे पूजा, नमाज़ के झगड़े
ख़ुशी से हाथ मिलाता कोई बशर ही नहीं

हमारे संतों ने दुनिया को ज्ञान ज्योति दिया
तमाम वेद,गणित में महज सिफ़र ही नहीं

शायर /कवि जयकृष्ण राय तुषार


चित्र साभार गूगल 


4 comments:

  1. प्रेरक और सामयिक गजल ।

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    1. हार्दिक आभार आपका. नमस्ते

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  2. वाह बेहतरीन ग़ज़ल, मन को छू गयी

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