Thursday 28 July 2022

ग़ज़ल -इस बनारस का हरेक रंग निराला है अभी

चित्र साभार गूगल 


एक ग़ज़ल -

इस बनारस का हरेक रंग निराला है अभी 


इस बनारस का हरेक रंग निराला है अभी

सुबहे काशी भी है, गंगा भी, शिवाला है अभी


जिन्दगी पाँव का घूँघरू है ये टूटे न कभी

कोई महफ़िल में तुझे चाहने वाला है अभी


तेज बारिश है, घटाएँ भी हैं, सूरज भी नहीं

किसकी तस्वीर से कमरे में उजाला है अभी


डर की क्या बात चलो आओ सफ़र में निकलें

धूप के साथ नदी, वन में गज़ाला है अभी


कल इसी गोले को ये दुनिया कहेगी सूरज

शाम को झील में जो डूबने वाला है अभी


आरती करते हुए कौन है पारियों की तरह

मैं ग़ज़ल कह दूँ मगर हाथ में माला है अभी


चलके धरती से गगन देखना नीला होगा

चाँद की छत से नहीं देखना काला है अभी


भूख की बात मैं कविता में लिखूँ तो कैसे

मेरे हाथों में गरम चाय का प्याला है अभी

कवि /शायर जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल 


12 comments:

  1. बहुत खूब ..... बनारस का रस टपक रहा ।

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    1. हार्दिक आभार आपका. सादर प्रणाम

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-07-2022) को   "काव्य का आधारभूत नियम छन्द"    (चर्चा अंक--4506)  पर भी होगी।
    --
    कृपया अपनी पोस्ट का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. हार्दिक आभार सर. सुप्रभात

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    1. हार्दिक आभार आपका. सादर प्रणाम

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  4. Replies
    1. हार्दिक आभार आपका. सादर अभिवादन

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  5. तस्वीरों के उजाले और झील में डूबते सूरज, सुंदर परिकल्पना

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    1. हार्दिक आभार आपका. सादर अभिवादन

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  6. बनारसी रस बिखेरती बेहतरीन गजल ।

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  7. हार्दिक आभार आपका. सादर अभिवादन

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