Saturday, 16 January 2021

एक ताज़ा ग़ज़ल -मगर मतला तुम्हारे हुस्न के दीदार से निकला

 

 

चित्र -साभार गूगल 


एक ताज़ा ग़ज़ल -

मगर मतला तुम्हारे हुस्न के दीदार से निकला 

महल,परिवार सबकुछ छोड़कर घर-बार से निकला
दोबारा बुद्ध बनने कौन फिर दरबार से निकला

फ़क़ीरों की तरह मैं भी जमाना छोड़ आया हूँ
बड़ी मुश्किल से माया मोह के किरदार से निकला

चुनौती रेस की जब हो तो आहिस्ता चलो भाई
वही हारा जो कुछ सोचे बिना रफ़्तार से निकला

ग़ज़ल के शेर तो दुश्वारियों के बीच कह डाले
मगर मतला तुम्हारे हुस्न के दीदार से निकला

मैं अपने ही किले में कैद था तुमसे कहाँ मिलता
मेरा सबसे बड़ा दुश्मन मेरे परिवार से निकला

मैं शायर हूँ, कलेक्टर हूँ, या मैं कप्तान हूँ, तो क्या
मेरे होने का मतलब तो मेरे आधार से निकला

किसी महफ़िल का हिस्सा मैं कभी भी हो नहीं सकता
जहाँ मौसम था जैसा बस वही अशआर से निकला

वही डूबा जो मल्लाहों के कन्धों पर नदी में था
जो खुद से तैरकर डूबा वही मझधार से निकला
चित्र -साभार गूगल 

8 comments:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 17 जनवरी 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (17-01-2021) को   "सीधी करता मार जो, वो होता है वीर"  (चर्चा अंक-3949)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --
    हार्दिक मंगल कामनाओं के साथ-    
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  3. किसी महफ़िल का हिस्सा मैं कभी भी हो नहीं सकता
    जहाँ मौसम था जैसा बस वही अशआर से निकला
    वही डूबा जो मल्लाहों के कन्धों पर नदी में था
    जो खुद से तैरकर डूबा वही मझधार से निकला
    शानदार लिख रहें हैं आप तुषार जी👌👌
    हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏

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    Replies
    1. आभार आपका पहले भी गजलें लिखता/कहता था बीच मेन गीत पर अधिक केन्द्रित हो गया अब फिर से शुरू कर रहा हूँ |आप सभी का स्नेह लिखवा लेता है |आपका दिन शुभ हो |

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