चित्र -गूगल से साभार |
बम दिल्ली
न्यूयार्क में फटे या
लाहौर ,कराची |
आँसू सबके
एक तरह हैं
लंदन हो या राची |
नदी ,पेड़
फूलों का मजहब
हमने कभी न जाना ,
मौसम हँसकर
गाता रहता
सात सुरों में गाना ,
राजमिस्त्री
जैसे गढ़ता
ताजमहल या साँची |
खजुराहो को
देखें या देखें
सौ बार अजन्ता ,
युग बहरा है
कहाँ प्रेम की -
भाषा कोई सुनता ,
मारी गयी
गुलेलों से
जब कोई चिड़िया नाची |
वेटिकन हो
पेरिस हो या कि
ढाका ,अमृतसर हो ,
मजहब के
झगड़ों से बाहर
लेकिन अपना घर हो ,
क़ाबा और
यरुशलम हो या
कामकोटि काँची |
लेकिन अपना घर हो ,
ReplyDeleteक़ाबा और
यरुशलम हो या
कामकोटि काँची |
सामयिक ,संवेदनशील ,सार्थक समुन्नत सृजन ,..
को बहुत -2 सम्मान जी /
हृदयस्पर्शी संवेदनशील सोच........ प्रासंगिक पंक्तियाँ
ReplyDeleteअद्भुत! लगता है आप शब्दों से ही नहीं बिम्ब से भी एक नई दुनिया रच देते हैं। बहुत अच्छा।
ReplyDeleteयह मजहबी झगडे हमेशा आदमी को ही लीलते हैं .....! प्रासंगिक रचना ...!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और हृदयस्पर्शी रचना! लाजवाब प्रस्तुती!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
बहुत ही सार्थक पोस्ट .....बधाई
ReplyDeleteकाश, इस अंधकार से बाहर निकले जगत।
ReplyDeleteबेहतरीन ... आम इंसान को और क्या चाहिए ... मज़ा आ गया पढ़ के ...
ReplyDeleteआपकी कवितायेँ सोचने पर विवश कर देतीं हैं...आदमी हर समय वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहा है...अपनी श्रेष्ठता दूसरों पर साबित करने के लिए...काश की सह-अस्तित्व का बोध इन्हें बचपन से कराया जाए...
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