Thursday, 11 August 2011

एक गीत -मजहब के झगड़ों से बाहर



चित्र -गूगल से साभार 
मजहब के झगड़ों से बाहर 
बम दिल्ली 
न्यूयार्क में फटे या 
लाहौर ,कराची |
आँसू सबके 
एक तरह हैं 
लंदन हो या राची |

नदी ,पेड़ 
फूलों का मजहब 
हमने कभी न जाना ,
मौसम हँसकर 
गाता रहता 
सात सुरों में गाना ,
राजमिस्त्री 
जैसे गढ़ता 
ताजमहल या साँची |

खजुराहो को 
देखें या देखें 
सौ बार अजन्ता ,
युग बहरा है 
कहाँ प्रेम की -
भाषा कोई सुनता ,
मारी गयी 
गुलेलों से 
जब कोई चिड़िया नाची |

वेटिकन हो 
पेरिस हो या कि 
ढाका ,अमृतसर हो ,
मजहब के 
झगड़ों से बाहर 
लेकिन अपना घर हो ,
क़ाबा और 
यरुशलम हो या 
कामकोटि काँची |

9 comments:

  1. लेकिन अपना घर हो ,
    क़ाबा और
    यरुशलम हो या
    कामकोटि काँची |
    सामयिक ,संवेदनशील ,सार्थक समुन्नत सृजन ,..
    को बहुत -2 सम्मान जी /

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  2. हृदयस्पर्शी संवेदनशील सोच........ प्रासंगिक पंक्तियाँ

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  3. अद्भुत! लगता है आप शब्दों से ही नहीं बिम्ब से भी एक नई दुनिया रच देते हैं। बहुत अच्छा।

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  4. यह मजहबी झगडे हमेशा आदमी को ही लीलते हैं .....! प्रासंगिक रचना ...!

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  5. बहुत सुन्दर और हृदयस्पर्शी रचना! लाजवाब प्रस्तुती!
    मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://seawave-babli.blogspot.com/
    http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

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  6. बहुत ही सार्थक पोस्ट .....बधाई

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  7. काश, इस अंधकार से बाहर निकले जगत।

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  8. बेहतरीन ... आम इंसान को और क्या चाहिए ... मज़ा आ गया पढ़ के ...

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  9. आपकी कवितायेँ सोचने पर विवश कर देतीं हैं...आदमी हर समय वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहा है...अपनी श्रेष्ठता दूसरों पर साबित करने के लिए...काश की सह-अस्तित्व का बोध इन्हें बचपन से कराया जाए...

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