चित्र -गूगल से साभार |
सूखे में कहीं ,बाढ़ में फसलें थी धान की
फिर भी अमीन लाए हैं नोटिस लगान की
पत्रा में लग्न खूब थे पंडित भी कम न थे
फिर भी कुँवारी रह गयी बेटी किसान की
बच्चों की दौड़ कम हुई आंगन की मेड़ से
शहतीरें बाँट दी गयीं गिरते मकान की
बेरोजगार बेटे की आवाज़ मर गयी
सपने जला रही है, बहू खानदान की
दो
सितारा हो बुलंदी पर तो ये जागीर देता है
ये गर्दिश में शहंशाहों को भी जंजीर देता है
फिज़ा में रंग कितने हैं वो कैसे जान पायेगा
खुद उसका आइना उसको गलत तस्वीर देता है
जो सब्जी काटता है और किचन में काम आता है
वही चाकू उँगलियों को भी अक्सर चीर देता है
वो सबके सामने उजले कबूतर भी उड़ाता है
मगर चुपके से बाजों को नुकीले तीर देता है
हमारे मुल्क में पिंजरे में तोता राम रटता है
यही वो मुल्क है दुनिया को ग़ालिब ,मीर देता है
यहाँ जंगल तितलियाँ ,फूल ,सूफी गीत गाते हैं
मोहब्बत के फसानों को ये राँझा -हीर देता है
जो अपने तन पे धुँधले रंग के कपड़े पहनता है
जमाने को वही रंगों भरी तस्वीर देता है
पत्रा में लग्न खूब थे पंडित भी कम न थे
ReplyDeleteफिर भी कुँवारी रह गयी बेटी किसान की
....लाजवाब. दोनों ही गज़लें बहुत खुबसूरत..भाव मन को छू जाते हैं.
दोनों ही गज़लें लाजवाब.... बहुत बढ़िया
ReplyDeleteफिज़ा में रंग कितने हैं वो कैसे जान पायेगा
ReplyDeleteखुद उसका आइना उसको गलत तस्वीर देता है
Wah!
Dono gazalen behtareen hain!
दोनों गज़लें अलग अलग रंग लिए ...बहुत अच्छी
ReplyDeleteविभिन्न भावों का समावेश है दोनों गजलों में दोनों गजलें सम्यक भावों का जीवंत उदाहरण हैं ..बहुत खूब
ReplyDeleteसूखे में कहीं ,बाढ़ में फसलें थी धान की
ReplyDeleteफिर भी अमीन लाए हैं नोटिस लगान की
अभी तो पहला ही शे’र पढ़ा है। और रुक दाद न दिया तो अदब के ख़िलाफ़ होगा।
आपकी ग़ज़लों में बहुत ही गहब भाव होते हैं।
पत्रा में लग्न खूब थे पंडित भी कम न थे
ReplyDeleteफिर भी कुँवारी रह गयी बेटी किसान की
बच्चों की दौड़ कम हुई आंगन की मेड़ से
शहतीरें बाँट दी गयीं गिरते मकान की
बेरोजगार बेटे की आवाज़ मर गयी
सपने जला रही है, बहू खानदान की
ग़ज़ल में आपकी गहरी संवेदना, अनुभव और अंदाज़े बयां खुलकर प्रकट हुए हैं। इसकी शायरी सलीक़ेदार, प्रखर और प्रभावी है।
बेहतरीन पंक्तियाँ।
ReplyDeleteदोनों ही काव्य रचनाएं लाजवाब हैं...
ReplyDeleteरक्षाबंधन एवं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
पत्रा में लग्न खूब थे पंडित भी कम न थे
ReplyDeleteफिर भी कुँवारी रह गयी बेटी किसान की ...
बहुत गहरे जज्बातों को उतारा है इस गज़ल में आपने ... दोनों ही ग़ज़लें एक से बढ़ कर एक ...
जो अपने तन पे धुँधले रंग के कपड़े पहनता है
ReplyDeleteजमाने को वही रंगों भरी तस्वीर देता है
अन्नदाता के लिए हमारे पास ना वक्त है ना पैसा...इंटरटेनमेंट के लिए तो साला कुछ भी करेगा...