चित्र साभार गूगल |
एक ग़ज़ल-हमारे दौर की दुनिया है
हमारे दौर की दुनिया है कारोबार में शामिल
प्रथाएँ, रीतियाँ,रस्में सभी बाज़ार में शामिल
कहाँ अब हीर,राँझा और कहाँ फ़रहाद, शीरीं हैं
लहू के खत कहाँ अब जिस्म केवल प्यार में शामिल
अँधेरों को उजाला लिख रहा है फिर कोई शायर
सुना है इन दिनों वह हो गया सरकार में शामिल
न उसको ईद से मतलब न रोज़ेदार ही ठहरा
सियासत के लिए बस हो गया इफ़्तार में शामिल
ख़बर भी आजकल जैसे मदारी का तमाशा है
मिलावट का नशा भी हो गया अख़बार में शामिल
अगर तुम राम थे सीताहरण को रोक सकते थे
मगर क्यों हो गए इन्सान के क़िरदार में शामिल
यहाँ इंसाफ़ की देवी की भी आँखों पे पट्टी है
जिसे मुज़रिम पकड़ना है वो भ्रष्टाचार में शामिल
जिसे भगवान कहते थे वही यमराज बन बैठे
कमीशन,जाँच सब कुछ हो गया उपचार में शामिल
प्रदूषण मुक्ति के नारे सभी गंगा के घाटों पर
भगीरथ बन के अब कोई कहाँ उद्धार में शामिल
कवि -जयकृष्ण राय तुषार
यकीनन एक बेमिसाल ग़ज़ल
ReplyDeleteहार्दिक आभार भाई साहब
Deleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (01-12-2021) को चर्चा मंच "दम है तो चर्चा करा के देखो" (चर्चा अंक-4265) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार आपका सर
Deleteख़बर भी आजकल जैसे मदारी का तमाशा है
ReplyDeleteमिलावट का नशा भी हो गया अख़बार में शामिल
करारा व्यंग्य करती खूबसूरत ग़ज़ल ...
हार्दिक आभार आपका।सादर प्रणाम
Deleteबहुत शानदार ग़ज़ल।
ReplyDeleteधन्यवाद भाई
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