चित्र साभार गूगल |
एक ग़ज़ल-दास्ताँ कहता रहा
रेत,जंगल,रास्तों के दरमियाँ बहता रहा
मैं था दरिया हर सदी की दास्ताँ कहता रहा
जब महल था तो चराग़ों से कभी खाली न था
खण्डहर बनकर हसीं मौसम में भी ढहता रहा
क़ाफ़िले जाते हैं बस केवल अमीरों की तरफ़
मैं तो बस आखेट के मौसम में एक रस्ता रहा
जिनमें फल थे वो परिंदो का ठिकाना बन गए
एक सूखा पेड़ तनहा ग़म सभी सहता रहा
अब वो सहारा फूल की खुशबू का दीवाना हुआ
जो कभी आँखों में बनकर ख़्वाब सा रहता रहा
कवि -जयकृष्ण राय तुषार
सभी चित्र गूगल से साभार
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