Sunday, 2 June 2013

एक ग़ज़ल -अफ़सोस परिंदे यहाँ मर जायेंगे भूखे

चित्र -गूगल से साभार 
ग़ज़ल -इस बार किसी जाल में दाना भी नहीं है 
इन आँखों ने देखा है अफ़साना भी नहीं है 
वो यारों मोहब्बत का दीवाना भी नहीं है 

अफ़सोस परिंदे यहाँ मर जायेंगे भूखे 
इस बार किसी ज़ाल में दाना भी नहीं है 

इक दिन की मुलाकात से गफ़लत में शहर है 
सम्बन्ध मेरा उससे पुराना भी नहीं है 

वो ढूंढ़ता फिरता है हरेक शै में ग़ज़ल को 
अब मीर ओ ग़ालिब का जमाना भी नहीं है 

फूलों से भरे लाँन में दीवार उठा मत 
मुझको तो तेरे सहन में आना भी नहीं है 

हर मोड़ पे वो राह बदल लेता है अपनी 
गर दोस्त नहीं है तो बेगाना भी नहीं है 

इस सुबह की आँखों में खुमारी है क्यों इतनी 
इस शहर में तो कोई मयखाना भी नहीं है 

[कुछ दिनों से व्यस्तता वश लिखना नहीं हो पा रहा है ,एक पुरानी कामचलाऊ ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ ]

15 comments:

  1. बहुत सुन्दर गजल, लिखने के लिये समय निकालते रहें।

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  2. बेहतरीन ग़ज़ल!

    सुबह से दिल खोलकर प्रंशसा करने का मन कर रहा था आपकी पोस्ट ने अवसर दे ही दिया..:) आभार।

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  3. बहुत ही बेहतरीन गजल...
    :-)

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  4. वाह जयकृष्ण जी आप तो कहर ढाते हैं -एक एक शेर दाद देने के काबिल है!

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  5. अफ़सोस परिंदे यहाँ मर जायेंगे भूखे
    इस बार किसी ज़ाल में दाना भी नहीं है
    Kya baat hai!

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  6. बहुत बढ़िया ग़ज़ल

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  7. This comment has been removed by the author.

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  8. यह काम चलाऊ है ..
    बधाई !

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  9. वो ढूंढ़ता फिरता है हरेक शै में ग़ज़ल को
    अब मीर ओ ग़ालिब का जमाना भी नहीं है

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  10. कामचलाऊ जब इतनी लाजवाब है...तो चलाऊ का क्या हाल होगा...बहुत खूब...

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