चित्र -गूगल से साभार |
इन आँखों ने देखा है अफ़साना भी नहीं है
वो यारों मोहब्बत का दीवाना भी नहीं है
अफ़सोस परिंदे यहाँ मर जायेंगे भूखे
इस बार किसी ज़ाल में दाना भी नहीं है
इक दिन की मुलाकात से गफ़लत में शहर है
सम्बन्ध मेरा उससे पुराना भी नहीं है
वो ढूंढ़ता फिरता है हरेक शै में ग़ज़ल को
अब मीर ओ ग़ालिब का जमाना भी नहीं है
फूलों से भरे लाँन में दीवार उठा मत
मुझको तो तेरे सहन में आना भी नहीं है
हर मोड़ पे वो राह बदल लेता है अपनी
गर दोस्त नहीं है तो बेगाना भी नहीं है
इस सुबह की आँखों में खुमारी है क्यों इतनी
इस शहर में तो कोई मयखाना भी नहीं है
[कुछ दिनों से व्यस्तता वश लिखना नहीं हो पा रहा है ,एक पुरानी कामचलाऊ ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ ]
[कुछ दिनों से व्यस्तता वश लिखना नहीं हो पा रहा है ,एक पुरानी कामचलाऊ ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ ]
बहुत उम्दा गजल है जनाब ,,,
ReplyDeleteRECENT POST : ऐसी गजल गाता नही,
बहुत सुन्दर गजल, लिखने के लिये समय निकालते रहें।
ReplyDeleteबेहतरीन ग़ज़ल!
ReplyDeleteसुबह से दिल खोलकर प्रंशसा करने का मन कर रहा था आपकी पोस्ट ने अवसर दे ही दिया..:) आभार।
खूबसूरत ग़ज़ल
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन गजल...
ReplyDelete:-)
वाह जयकृष्ण जी आप तो कहर ढाते हैं -एक एक शेर दाद देने के काबिल है!
ReplyDeleteखूबसूरत ग़ज़ल.
ReplyDeleteअफ़सोस परिंदे यहाँ मर जायेंगे भूखे
ReplyDeleteइस बार किसी ज़ाल में दाना भी नहीं है
Kya baat hai!
बहुत बढ़िया ग़ज़ल
ReplyDeleteसुन्दर गजल
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteachchhi gazal hai. badhai ho.
ReplyDeleteयह काम चलाऊ है ..
ReplyDeleteबधाई !
वो ढूंढ़ता फिरता है हरेक शै में ग़ज़ल को
ReplyDeleteअब मीर ओ ग़ालिब का जमाना भी नहीं है
कामचलाऊ जब इतनी लाजवाब है...तो चलाऊ का क्या हाल होगा...बहुत खूब...
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