Wednesday, 14 July 2010

एक गज़ल -कोई भी रंग हो मौसम का वो हंसकर निकलती है।

चित्र -गूगल से साभार 
एक ग़ज़ल -वो अक्सर फूल -परियों की तरह
 
वो अक्सर फूल परियों की तरह सजकर निकलती है
मगर आँखों में इक दरिया का जल भरकर निकलती है।

कँटीली झाड़ियाँ उग आती हैं लोगों के चेहरों पर

ख़ुदा जाने वो कैसे भीड़  से बचकर निकलती है.

जमाने भर से इज्जत की उसे उम्मीद क्या होगी

खुद अपने घर से वो लड़की बहुत डरकर निकलती है.

बदलकर शक्ल हर सूरत उसे रावण ही मिलता है 

लकीरों से अगर सीता कोई बाहर निकलती है .

सफर में तुम उसे ख़ामोश गुड़िया मत समझ लेना

ज़माने को झुकी नज़रों  से वो पढ़ कर निकलती है.

खुद जिसकी कोख में ईश्वर भी पलकर जन्म लेता है

वही लड़की  खुद अपनी कोख से मरकर निकलती है.

जो बचपन में घरों की जद हिरण सी लांघ आती थी

वो घर से पूछकर हर रोज अब दफ़्तर  निकलती है।

छुपा लेती है सब आंचल में रंजोग़म  के अफ़साने

कोई भी रंग हो मौसम का वो हंसकर निकलती है।

14 comments:

  1. खुद जिसकी कोख में ईश्वर भी पलकर जन्म लेता है
    वही लड की खुद अपनी कोख से मरकर निकलती है।

    Wah! Nihayat sundar rachana!

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  2. kya likha hai.

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  3. aapko dhanyabad.

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  4. जमाने भर से इज्जत की उसे उम्मीद क्या होगी
    खुद अपने घर से वो लड की बहुत डरकर निकलती है।

    बदलकर शक्ल हर सूरत उसे रावण ही मिलते हैं
    कोई सीता जब लक्ष्मण रेखा के बाहर निकलती है।

    खुद जिसकी कोख में ईश्वर भी पलकर जन्म लेता है
    वही लड की खुद अपनी कोख से मरकर निकलती है।

    बहुत बढिया ग़ज़ल....

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  5. छुपा लेती है सब आंचल में रंजोगम के अफसाने
    कोई भी रंग हो मौसम का वो हंसकर निकलती है।

    Waahh!!
    Bahut hi behatareen...

    Regards,
    Dimple

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  6. बहुत सुन्दर भाव...लाजवाब रचना..बधाई.

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  7. Umda Gazhal!
    naari vimarsh par isse gehri baat aur kya ho sakti hai!!

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  8. बेजोड़ लिखा ...बधाई.

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  9. जो बचपन में घरों की जद हिरण सी लांघ आती थी
    वो घर से पूछकर हर रोज अब दफ्‌तर निकलती है।

    बहुत सुन्दर.बधाई.

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  10. छुपा लेती है सब आंचल में रंजोगम के अफसाने
    कोई भी रंग हो मौसम का वो हंसकर निकलती है।

    Bahoot acha hai Tushar ji, Ekdum khara sach.

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  11. aapki gazal parhi. man ko jhakjhorkar rakh diya. u r so great my dear.

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