Tuesday, 20 November 2012

कुशल चित्रकार और कवयित्री वाजदा खान की कवितायेँ

कुशल चित्रकार और कवयित्री वाजदा खान
सम्पर्क -09868744499
कोई अच्छा कवि हो सकता है तो कोई एक कुशल चित्रकार |दोनों ही हुनर विरले लोगों को ही मिलते हैं |ये दोनों ही हुनर मिले हैं चित्रकार ,कवयित्री वाजदा खान को |वाजदा खान समकालीन हिंदी कविता की एक महत्वपूर्ण कवयित्री हैं | वाजदा खान का जन्म 15 जून 1969को ग्राम -बढ़नी ,सिद्धार्थनगर [उ० प्र० ]में हुआ था |यह  कवयित्री एक कुशल और लब्धप्रतिष्ठ चित्रकार /पेंटर भी है |वाजदा खान जिस तरह स्त्री मनोभावों को अपनी पेंटिंग्स में चित्रित करती हैं उसी तरह अपनी कविताओं में भी बड़े सलीके से उन्हें अभिव्यक्त करती हैं |नया ज्ञानोदय ,हंस ,वागर्थ ,बहुवचन ,साक्षात्कार ,साहित्य अमृत ,आजकल ,पाखी और देश की अन्य प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रहती हैं |वाजदा खान की कुछ कविताओं का कन्नड़ में अनुवाद भी हुआ है |देश के कई सम्मानित काव्य मंचों पर इनका काव्य पाठ भी हो चुका है |वाजदा खान की पेंटिंग्स की एकल और सामूहिक प्रदर्शनियां देश की विख्यात कलादीर्घाओं में आयोजित  हो चुकी हैं |देश की कई कार्यशालाओं में भाग ले चुकी वाजदा खान को भारत के संस्कृति मंत्रालय द्वारा वर्ष 2004-2005 में फेलोशिप भी दी प्रदान की गयी है | जिस तरह घुलती है काया भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित वाजदा खान का कविता संग्रह है जिसे हेमंत स्मृति सम्मान 2010 से सम्मानित किया जा चुका है |वाजदा खान ललित कला अकादमी नई दिल्ली [लाजपत नगर के पास ]बतौर स्वतंत्र कलाकार कार्यरत हैं |हम वाजदा खान की कुछ कविताएँ अंतर्जाल के माध्यम से पहुंचा रहे हैं |

कुशल चित्रकार और कवयित्री वाजदा खान की कविताएँ 
बाजार का हिस्सा हैं हम
बिना सीमा की
बिना नैतिकता की
और बिना मूल्यों की वर्जनाएं
घूम रही हैं पूरे बाजार में
उसी बाजार का हिस्सा हैं हम।

वाजदा खान बाएं सुप्रसिद्ध कथा लेखिका ममता कालिया के साथ 

नि:शब्द
उसकी आंखों में सात रंगों का
मेकअप नहीं था
सच के रंग थे
देखना उसे ध्यान से
तमाम अनिवार्य ख्वाहिशों के रंग
उन रंगों में
उगी थी वह कायनात
तनी थी जो
उसके जिस्म पर
कोरे कैनवस सा
भरकर तमाम ख्वाहिशों के रंग
बनाना चाहती थी
एक नायाब पेन्टिंग
कि तुम बरबस बोल दो
हां, यही है वह अक्स
जिनकी तलाश में
जन्म-जन्मान्तर भटक रहे शब्द
नि:शब्द।
खो गया सवेरा
किसी अंधेरे में सवेरा खो गया
कितना मासूम कितना निश्छल अंधेरा
कब चांदनी रातों में उगता है
कब उसकी पीली आंखों में
रुमानियत की लौ उगती है
कब खो जाता है
आसमान का चांद बनकर
दूर बहुत दूर
अदृश्य हो जाता
बाज वक्त के लिए
मुसलसल बैठी
कटी शाखों पर
तीतर, बटेरों, गौरैय्यों को
इंतजार रहता
आसमान के फूल खिलने का।
लकीरों की याद
बंद पलकों के अंधेरे में
यहां-वहां फुदकती चिड़िया
कुछ ढूंढती चिड़िया
तुम हरसिंगार के ढेरों फूल
तुम उगे उस शजर (वृक्ष) में
जिसके जिस्म में
रुहानी टहनियां रुहानी शाखें
और पत्तियां हैं उनमें
दर्ज हैं तमाम खूबसूरत
लकीरों की याद
पत्तियों में उभरी नसें हैं
भरा है उनमें
आंखों का पानी
जड़ों में गहराई है इतनी
गहराई कि मजबूती से जमे हों
मिट्टी में
तुम्हारी जिस्म के खुशबू के
सुरूर में डूबे गुच्छों में से
कुछ फूल चुनकर
लाली मेरे लाल की तर्ज पर
लाल रंग की आभा में
सराबोर कैनवस पर
उगा लूं
अभी तक वहां
पत्तियों का आगाज है
तवारुफ होगा उनसे तो
फूल आएंगे
शोख नारंगी /  हल्के पीले
रंग के पत्तियों का
संग हो जाएगा।
गुमराह होने से बचना
पौधे ने पनपना प्रारम्भ कर दिया
नन्हीं कोमल पत्तियां
खिल रही हैं पूरे एहसास के साथ
बढ़ते पौधे के साथ विकसित होंगी
टहनियां, फैलाव होगा पत्तियों का
आसमान तक
पत्तियों में उगी नसों और
हथेली की रेखाओं में ढूंढूगी
साम्यता, हर रेखा पीड़ा की
लोककथा बनकर बरस रही
बारिश सी
युवा होते पौधे
पर क्या पौधे का हरापन
बरकरार रह पाएगा
या छा जाएगी निम्नतम तापमान की
उदासी, कि जम जाएगा ऊर्जा का स्रोत भी
जो जीने की ताकत देता है
गुमराह होने से बचाता है
महफूज करता है चुक सकने की उदासी से
उन तमाम दीमक की तरह
चाटने वाले कीड़ों से जो नमी के साथ
उग आते हैं पौधों की जड़ों में
निरन्तर ख्याल रखना पड़ता है
सतर्क रहना पड़ता है, फिर कहीं
पसीने और आंसुओं से रची उदासीनता का
टुकड़ा पसर न जाए
कहीं जड़ों पर
बहुत मुश्किल होगा तब जड़ों को बचाना।
जिन्दगी और रंगमंच
किसी भी भूमिका का निर्वाह करना
अपने आप में कितना दुष्कर कार्य है
भूमिका चाहे जिन्दगी की हो
या रंगमंच की
उस परिवेश से प्रेरणा ग्रहण
करनी हो होती है
जिसमें हमारी सांस-सांस रची-बसी है
चाहे कितनी कटुताएं हों, कितना क्षोभ
कितनी अशान्ति
चाहे कितने अभाव हों
मुस्कराना तो है ही
संघर्ष की लम्बी राह पर
नट सा संतुलन बनाकर पांव जमाना है
रस्सी जैसी पतली पगडंडियों पर
संकल्प तो रखना है
एक क्रांतिकारी युग की
शुरुआत के लिए
उपयोग करना है उसमें अपनी
नष्ट होती ऊर्जा को
साथ-साथ आगाह करते जाना है
अवचेतन मन को
लड़खड़ाए जो पांव तुम्हारे
बिगड़ जाएगा संघर्ष और खुशी का संतुलन
इसलिए अनिवार्य है तुम मछली की
आंख पर ध्यान केंद्रित करो
और अपने अन्वेषी मन को उड़ान भरने दो
भू दृश्य के चारों ओर सपाट धरातल पर
खुद ही संरचना कर लेंगे
उन तमाम रुपाकारों का
जो उत्सर्जित होते होंगे उनकी
अपनी देह से
संभव हो तुम पा लो
चेतना का अंत:परिवर्तन
विभेद कर लो आध्यात्मिकता और
भौतिकता में
उपज सके तुम्हारे चारों ओर
वह प्रेम महरुम हो हो जिससे तुम
वैयक्तिकता को तब्दील
कर सको सौन्दर्यबोधीय
आत्म विकास में जिसका
तुममें नितान्त अभाव है।
कवयित्री वाजदा खान की कुछ मनमोहक पेंटिंग्स 
वाजदा खान की एक मोहक पेंटिंग 

Saturday, 10 November 2012

एक गीत -मैं दिया पगडंडियों का

चित्र -गूगल से साभार 
 आप सभी के लिए दीपावली मंगलमय हो 


एक गीत -मैं दिया पगडंडियों का 
आरती में 
और होंगे 
थाल में उनको सजाओ |
मैं दिया 
पगडंडियों का 
मुझे पथ में ही जलाओ |

सिर्फ दीवाली 
नहीं मैं 
मुश्किलों में भी जला हूँ ,
रौशनी को 
बाँटने में 
मोम बनकर भी गला हूँ ,
तम न 
जीतेगा हंसो 
फिर  रौशनी के गीत गाओ |

लौ हमारी 
खेत में ,
खलिहान में फैली हुई है ,
यह
हवाओं में  
नहीं बुझती ,नहीं मैली हुई है ,
धुआं भी 
मेरा ,नयन की 
ज्योति है काजल बनाओ |

गहन तम
में भी जगा हूँ 
नींद में सोया नहीं हूँ ,
मैं गगन के 
चंद्रमा की 
दीप्ति में खोया नहीं हूँ ,
देखकर 
रुकना न मुझको 
मंजिलों के पास जाओ |

राह में 
चलते बटोही की 
उम्मीदें ,हौसला हूँ ,
दीप का 
उत्सव जहाँ हो 
रौशनी का काफिला हूँ ,
ओ सुहागन !
मुझे आंचल में 
छिपाकर मत रिझाओ |
चित्र -गूगल से साभार 

Thursday, 1 November 2012

एक नवगीत -इस सूरज से कुछ मत मांगो

चित्र -गूगल से साभार 
एक नवगीत -इस सूरज से कुछ मत मांगो 
क्रांति करो 
अब चुप मत बैठो 
राजा नहीं बदलने वाला |
आग हुई 
चूल्हे की ठंडी 
अदहन नहीं उबलने वाला |

मंहगाई के 
रक्तबीज अब 
दिखा रहे हैं दिन में तारे ,
चुप बैठे हैं 
सुविधा भोगी 
जन के सब प्रतिनिधि बेचारे ,
कैलेन्डर की 
तिथियों से अब 
मौसम नहीं बदलने वाला |

कुछ ही दिन में 
कंकड़ -पत्थर 
मुंह के लिए निवाले होंगे ,
जो बोलेगा 
उसके मुंह पर 
कम्पनियों के ताले होंगे ,
भ्रष्टाचारी 
केंचुल पहने 
अजगर हमें निगलने वाला |

राजव्यवस्था 
ए०सी० घर में 
प्रेमचन्द का हल्कू कांपे ,
राजनीति का 
वामन छल से 
ढाई पग में हमको नापे ,
युवा हमारा 
अपनी धुन में 
ड्रम पर राग बदलने वाला |

हर दिन 
उल्का पिंड गिराते 
आसमान से हम क्या पाते ?
आंधी वाली 
सुबहें आतीं 
चक्रवात खपरैल उड़ाते ,
इस सूरज से 
कुछ मत मांगो 
शाम हुई यह ढलने वाला |
[आज रविवार 04-11-2012 को यह गीत अमर उजाला के साहित्य पृष्ठ शब्दिता में प्रकाशित हो गया है |सम्पादक साहित्य जाने -माने कवि/उपन्यासकार भाई  अरुण आदित्य जी का आभार ]

Saturday, 20 October 2012

एक गीत -मुझको मत कवि कहना मैं तो आवारा हूँ

चित्र -गूगल से साभार 
एक गीत -
मुझको मत कवि कहना मैं तो आवारा हूँ 
ना कोई 
राजा हूँ 
ना मैं हरकारा हूँ |
यहाँ -वहाँ 
गाता हूँ 
मैं तो बंजारा हूँ |

साथ नहीं 
सारंगी 
ढोलक ,करताल नहीं ,
हमको 
सुनते पठार 
श्रोता वाचाल नहीं ,
छेड़ दें 
हवाएं तो 
बजता इकतारा हूँ |

धूप ने 
सताया तो 
सिर पर बस हाथ रहे ,
मौसम की 
गतिविधियों में 
उसके  साथ   रहे ,
नदियों में 
डूबा तो 
स्वयं को पुकारा हूँ |

झरनों का 
बहता जल 
चुल्लू से पीता हूँ ,
मुश्किल से 
मुश्किल क्षण 
हंस -हंसकर जीता हूँ ,
वक्त की 
अँगीठी में 
जलता अंगारा हूँ |

फूलों से 
गन्ध मिली 
रंग मिले फूलों से ,
रोज  -नए 
दंश मिले 
राह के बबूलों से ,
मौसम के 
साथ चढ़ा 
और गिरा पारा हूँ |

महफ़िल तो 
उनकी है 
जिनके सिंहासन हैं ,
हम तो 
वनवासी हैं 
टीले ही आसन हैं ,
मुझको मत 
कवि कहना 
मैं तो आवारा हूँ |
चित्र -गूगल से साभार 

Saturday, 13 October 2012

एक गीत -माँ ! नहीं हो तुम

चित्र -गूगल से साभार 

 माँ की स्मृतियों को प्रणाम करते हुए 
एक गीत -माँ ! नहीं हो तुम 
माँ !नहीं हो 
तुम कठिन है 
मुश्किलों का हल |
अब बताओ 
किसे लाऊँ 
फूल ,गंगाजल |

सफ़र से 
पहले दही -गुड़ 
होंठ पर रखती ,
किन्तु घर के 
स्वाद कड़वे 
सिर्फ़ तुम चखती ,
राह में 
रखती 
हमारे एक लोटा जल |

सांझ को 
किस्से सुनाती 
सुबह उठ कर गीत गाती ,
सगुन -असगुन 
पर्व -उत्सव 
बिना पोथी के बताती ,
रोज 
पूजा में 
चढ़ाती देवता को फल |

तुम दरकते 
हुए रिश्तों की 
नदी पर पुल बनाती |
मौसमों का 
रुख समय से 
पूर्व माँ तुम भाँप जाती ,
तुम्हीं से 
था माँ !
पिता के बाजुओं में बल |

मौन में तुम 
गीत चिड़ियों का 
अंधेरे में दिया हो ,
माँ हमारे 
गीत का स्वर 
और गज़ल का काफ़िया हो ,
आज भी 
यादें तुम्हारी 
हैं मेरा संबल |

Wednesday, 10 October 2012

फिर लौट रहा है हिन्दी गीतों का सुहाना समय -शब्दायन -एक पुस्तक समीक्षा

श्री निर्मल शुक्ल
संपादक -शब्दायन 
हिंदी नवगीत पर एक समवेत संकलन या संदर्भ ग्रंथ -
शब्दायन -संपादक -श्री निर्मल शुक्ल 
एक नज़र /एक समीक्षा -

शब्दायन की प्रस्तुति और सामग्री देखकर चमत्कृत और अभिभूत हूँ | यह एक दस्तावेजी कार्य सम्पन्न हुआ है |किसी आलोचक और  किसी साहित्य के दुकानदार के वश की बात नहीं है कि वह गीत /नवगीत विधा के आवेग को बाधित कर सके |उसकी राह रोक सके |यह विधा सिर पर चढ़कर बोलती है |जब सिर पर चढ़कर बोलती है तो सहज ही अपनी स्वीकृति प्राप्त कर लेती है या कहें अपना हक प्राप्त कर लेती है |पिछले लगभग चार दशकों से सारे आलोचकीय षडयंत्रों के बाद भी कविता की इस आदिम विधा ने अपना लोहा मनवाने पर मजबूर किया है |उसी उजली परंपरा कि यह एक मजबूत कड़ी है |पुस्तक हाथ मे लेकर यह अनुभूति होती है ..जैसे गीत विधा का सागर ही हमारे मनप्राण में लहरा उठा है |यह एक साधक ही कर सकता था जो काम भाई निर्मल शुक्ल ने बड़ी कुशलता से किया है |आने वाले समय में यह महासंग्रह और अधिक प्रासंगिक होता चला जाएगा |यह बात मैं दावे के साथ कह रहा हूँ |यह तत्व कतई निष्फल नहीं जाएगा और आने वाले काल के भाल पर सदा सर्वदा देदीप्यमान रहेगा | भाई निर्मल शुक्ल ने गीत ऋषि की तरह अपनी परंपरा और नए काल बोध के बीच एक सेतु तैयार कर हम सब गीत विधा के रचनाकारों को कृतज्ञ होने का अवसर दिया है |मैं उनकी अकूत निष्ठा को अपने अशेष प्रणाम देता हूँ |--यश मालवीय 

 नवगीत पर एक प्रतिनिधि साझा संकलन या संदर्भ ग्रंथ 
एक समीक्षा -
हिंदी गीतों की बांसुरी पर जब -जब धूल की परतें जमीं है ,जब -जब उसकी लय बाधित हुई है किसी न किसी साहित्य मनीषी के द्वारा उस पर जमी धूल को साफ कर उसे चमकदार और लयदार बनाने का काम किया  गया है |यह प्रयास दशकों पूर्व डॉ0 शंभुनाथ सिंह ने नवगीत दशक और नवगीत अर्द्धशती निकालकर किया था उसके पूर्व पाँच जोड़ बांसुरी का सम्पादन डॉ0 चन्द्र्देव द्वारा किया गया था |कालांतर में डॉ0 दिनेश सिंह ने नवगीत पर आधारित पत्रिका नए पुराने निकालकर नवगीत की वापसी का काम किया था ,डॉ0 कन्हैयालाल नंदन ने गीत समय निकालकर नवगीत को स्थापित करने का प्रयास किया |लेकिन हाल के दिनों मे डॉ0 राधेश्याम बंधु द्वारा संपादित नवगीत के नए प्रतिमान प्रकाशित हुआ |सबसे ताजातरीन प्रयास अभी हाल में नवगीत के चर्चित कवि और उत्तरायण पत्रिका के संपादक श्री निर्मल शुक्ल द्वारा शब्दायन का सम्पादन कर किया गया |जब कोई बड़ा काम किया जाता है तो उसकी आलोचना भी होती है उसमें कुछ कमियाँ भी होती है ,लेकिन कोई पहल करना या कोई बड़ा काम करना मुश्किल होता है| आलोचना करना बहुत आसान काम है |निर्मल शुक्ल द्वारा  संपादित इस महासंग्रह मे कुल एक हजार चौसठ पृष्ठ हैं |पुस्तक का मूल्य एक हजार दो सौ रक्खा गया है | यह ग्रंथ नवगीत के शोध छात्रों के लिए बहुत उपयोगी हो सकता है |संपादक निर्मल शुक्ल ने इस पुस्तक के प्रथम खंड मे दृष्टिकोण के अंतर्गत नवगीत पर नवगीतकारों की टिप्पणी या परिभाषा प्रकाशित किया है |खंड दो में लगभग चौतीस कवियों के नवगीत प्रकाशित हैं |खंड तीन में भी कुछ गीतकारों के गीत प्रकाशित हैं |खंड चार सबसे वृहद खंड है जिसमें अधिकाधिक नवगीतकारों के गीत /नवगीत उनके जीवन परिचय के साथ प्रकाशित हैं |पुस्तक के आखिर में आभार और परिचय और प्रारम्भ में संपादक द्वारा समपादकीय भी लिखा गया है |श्री निर्मल शुक्ल द्वरा किया गया यह प्रयास बहुत ही सरहनीय है और आने वाले दिनो में गीत /नवगीत की दशा और दिशा दोनों ही बदलने में समर्थ होगा |पुस्तक की साज -सज्जा भी सरहनीय है |श्री निर्मल शुक्ल जी को मैं अपनी ओर से और हिंदी नवगीत के पाठकों और कवियों को ओर से बधाई देता हूँ और उनके इस महत्वपूर्ण कार्य को नमन करता हूँ |

संकलन से हिन्दी के सुपरिचित गीत कवि डॉ0 कुँवर बेचैन का एक गीत -
बहुत प्यारे लग रहे हो 
बहुत प्यारे लग रहे हो 
ठग नहीं हो ,किन्तु फिर भी 
हर नज़र को ठग रहे हो 
बहुत प्यारे लग रहे हो |

दूर रहकर भी निकट हो 
प्यास में ,तुम तृप्ति घट हो 
मैं नदी की इक लहर हूँ 
उम नदी का स्वच्छ तट हो 
सो रहा हूँ किन्तु मेरे 
स्वप्न में तुम जग रहे हो 
बहुत प्यारे लग रहे हो |

देह मादक, नेह मादक 
नेह का मन गेह मादक 
और यह मुझ पर बरसता 
नेह वाला मेह मादक 
किन्तु तुम डगमग पगों में 
एक संयत पग रहे हो 
बहुत प्यारे लग रहे हो |

अंग ही हैं सुघर गहने 
हो बदन पर जिन्हें पहने 
कब न जाने आऊँगा मैं 
यह जरा सी बात कहने 
यह कि तुम मन की अंगूठी के 
अनूठे नग रहे हो 
बहुत प्यारे लग रहे हो |  कवि -डॉ0 कुँवर बेचैन 

पुस्तक का नाम -शब्दायन 
संपादक -डॉ0 निर्मल शुक्ल 
प्रकाशन -उत्तरायण प्रकाशन 
मूल्य -एक हजार दो सौ रूपये मात्र 
लखनऊ संपर्क -09839825062

Sunday, 7 October 2012

एक प्रेमगीत -आधा कप चाय और आधा कप प्यार

चित्र -गूगल से साभार 
एक प्रेमगीत -आधा कप चाय और आधा कप प्यार 
आधा कप 
चाय और 
आधा कप प्यार |
चुपके से 
आज कोई 
दे गया उधार |

सांकल को 
बजा गयी 
सन्नाटा तोड़ गई ,
यादों की 
एक किरन 
कमरे में छोड़ गई ,
मौन की 
उँगलियों से 
छू गया सितार |

सम्मोहन 
आकर्षण 
मोहक मुस्कान लिए ,
तैर गई 
खुशबू सी 
वो मगही पान लिए ,
लहरों ने 
तोड़ दिया 
अनछुआ कगार |

परछाई 
छूने में 
हम हारे या जीते ,
सूरज के 
साथ जले 
चांदनी कहाँ पीते ,
अनजाने में 
मौसम 
दे गया बहार |

वृन्दावन 
होता मन 
गोकुल के नाम हुआ ,
बोझिल 
दिनचर्या में 
एक सगुन काम हुआ ,
आना जी 
आना फिर 
वही शुक्रवार |

जीवन का 
संघर्षों से 
वैसे नाता है ,
कभी -कभी 
लेकिन यह 
प्रेमगीत गाता है ,
कभी यह 
वसंत हुआ 
कभी रहा क्वार |
चित्र -गूगल से साभार 

Thursday, 4 October 2012

एक गीत -अपना दुःख कब कहती गंगा

हर की पैड़ी हरिद्वार -चित्र गूगल से साभार 
भूगोल की किताबों में भले ही गंगा को नदी लिखा गया हो |दुनिया की किंवदन्तियों में भले ही इसे नदी माना जाता  हो | लेकिन पौराणिक आख्यानों में इसे देवी का दर्जा प्राप्त है |गंगा हमारे लिए माँ है ,यह भारत की जीवन रेखा है |एक गंगा धरती पर बहती है दूसरी हमारी आस्थाओं में प्रवाहमान है |धरती की गंगा भले ही एक दिन हमारे कुकर्मों से हमारी आँखों से हमेशा के लिए ओझल हो जाये या उसका अस्तित्व समाप्त हो जाये |लेकिन  हमारी आस्था में प्रवाहमान गंगा कभी खत्म नहीं होगी |लेकिन क्या सिर्फ़ हमें आस्था में ही गंगा चाहिए या वास्तविकता में |गंगा जैसी औषधीय गुण वाली नदी इतनी खराब स्थिति में क्यों पहुँच गयी |हम अपनी नदियों की पवित्रता क्यों नहीं बचा पा रहे हैं |क्या हम सिर्फ़ सरकार पर दोष मढ़कर बच सकते हैं |हम दुनिया के अन्य देशों की तरह अपनी नदियों को साफ सुथरा क्यों नहीं रख सकते हैं |हमें धार्मिक मान्यताओं की जकड़न से मुक्त होकर गंगा में कूड़ा -कचरा ,माला -फूल ,मूर्ति विसर्जन नहीं करना चाहिए |सरकार तो जिम्मेदार है ही हम कम जिम्मेदार नहीं हैं |अब वक्त आ गया है हमें गंभीरता से सोचना होगा कि हमें जीवनदायिनी नदियाँ चाहिए या गाद या मलबा |जिन नदियों के किनारे हमारे प्राचीन नगर बसे ,जिनके किनारे हमारी सभ्यताएं विकसित हुईं जिनकी छाँव में हमारी परम्पराएँ विकसित हुईं हम उनके प्रति इतने चुप क्यों हैं ,उदासीन क्यों हैं |कुछ आप सब भी सोचिये कुछ सरकार को भी सोचना चाहिए |

एक गीत -अपना दुःख कब कहती गंगा 
स्वर्ग छोड़कर 
चट्टानों में ,
वीरानों में बहती गंगा |
दुनिया का 
संताप मिटाती 
खुद कितने दुःख सहती गंगा |

रहे पुजारिन 
या मछुआरिन 
सबसे साथ निभा लेती है ,
सबके 
आंचल में सुख देकर 
सारा दर्द चुरा लेती है 
आंख गड़े 
या फटे बिवाई 
अपना दुःख कब कहती गंगा |

चित्रकार ,
शिल्पी माँ तेरी 
छवियाँ रोज गढ़ा करते हैं ,
कितने काशी 
संगम तेरे 
तट पर मंत्र पढ़ा करते हैं ,
सागर से 
मिलने की जिद में 
दूर -दूर तक दहती गंगा |

गाद लपेटे 
कोमल तन पर 
थककर भी विश्राम न करती ,
अभिशापित 
होकर आयी हो 
या तुमको प्रिय है यह धरती ,
कुछ तो है 
अवसाद ह्रदय में 
वरना क्यों चुप रहती गंगा |

तेरे जल में 
राख बहाकर 
कितने पापी स्वर्ग सिधरते ,
तेरी अमृतमय 
बूंदों से 
हरियाली के स्वप्न उभरते ,
जो भी डूबा 
उसे बचाती 
खुद कगार पर ढहती गंगा |
चित्र -गूगल से साभार 

Monday, 1 October 2012

एक गज़ल -गाँधी जयंती पर

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी 
एक गज़ल 
कुदरत का करिश्मा हैं या वरदान हैं गाँधी

कुदरत का करिश्मा हैं या वरदान हैं गाँधी
इस दौर में इंसा नहीं भगवान हैं गाँधी 

अफ़साना -ए -आज़ादी के किरदार कई हैं 
अफ़साना -ए -आज़ादी का उनवान हैं गाँधी 

जन्नत से अधिक पाक है इस देश की मिट्टी 
इस देश की मिट्टी में ही कुर्बान हैं गाँधी 

ता उम्र रहे सत्य अहिंसा के पुजारी 
हर मुल्क में इस देश की पहचान हैं गाँधी 

मजहब से बहुत दूर वो इंसान थे पहले 
ईसाई हैं ,हिन्दू हैं ,मुसलमान हैं गाँधी 

एक गीत -गा रहा होगा पहाड़ों में कोई जगजीत

  चित्र साभार गूगल एक गीत -मोरपँखी गीत  इस मारुस्थल में  चलो ढूँढ़े  नदी को मीत. डायरी में  लिखेंगे  कुछ मोरपँखी गीत. रेत में  पदचिन्ह होंगे ...