Sunday 8 September 2024

एक ग़ज़ल -वो अक्सर फूल परियों की तरह

 

चित्र साभार गूगल 

बेटियों /स्त्रियों पर लगातार लैंगिक अपराध से मन दुःखी है. कभी स्त्रियों के दुख दर्द पर मेरी एक ग़ज़ल बी. बी. सी. लंदन की नेट पत्रिका ने प्रकाशित किया था. साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित समकालीन हिंदी ग़ज़ल में भी इसे स्थान मिला था. सम्पादक हैँ आदरणीय माधव कौशिक जी.


एक पुरानी ग़ज़ल -वो अक्सर फूल -परियों की तरह

 

वो अक्सर फूल परियों की तरह सजकर निकलती है

मगर आँखों में इक दरिया का जल भरकर निकलती है।


कँटीली झाड़ियाँ उग आती हैं लोगों के चेहरों पर

ख़ुदा जाने वो कैसे भीड़  से बचकर निकलती है.


जमाने भर से इज्जत की उसे उम्मीद क्या होगी

खुद अपने घर से वो लड़की बहुत डरकर निकलती है.


बदलकर शक्ल हर सूरत उसे रावण ही मिलता है 

लकीरों से अगर सीता कोई बाहर निकलती है .


सफर में तुम उसे ख़ामोश गुड़िया मत समझ लेना

ज़माने को झुकी नज़रों  से वो पढ़ कर निकलती है.


खुद जिसकी कोख में ईश्वर भी पलकर जन्म लेता है

वही लड़की  खुद अपनी कोख से मरकर निकलती है.


जो बचपन में घरों की जद हिरण सी लांघ आती थी

वो घर से पूछकर हर रोज अब दफ़्तर  निकलती है।


छुपा लेती है सब आंचल में रंजोग़म  के अफ़साने

कोई भी रंग हो मौसम का वो हंसकर निकलती है।


कवि -जयकृष्ण राय तुषार 

सभी चित्र साभार गूगल

चित्र साभार गूगल 

Wednesday 14 August 2024

एक ग़ज़ल -यही हिमालय, तिरंगा ये हरसिंगार रहे

 

तिरंगा 

कल 15 अगस्त है भारत की आजादी /स्वतंत्रता का स्वर्णिम दिन. करोड़ों भारतीयों के बलिदान के बाद यह आजादी हमें मिली है. हम भाग्यशाली हैँ जिस देश मेँ गंगा है हिमालय है गीता है रामायण है प्रभु श्रीराम हैँ. यह असंख्य जीवनदायिनी नदियों का ऋषियों का देश है. समस्त देशवासियों प्रवासी भारतीयों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें शुभकामनायें. यह तिरंगा सदैव अपराजेय रहे. वन्देमातरम 


 


तिरंगा -जय हिन्द जय भारत वन्देमातरम 

एक पुरानी ग़ज़ल 


एक ग़ज़ल देश के नाम -


कहीं से लौट के आऊँ तुझी से प्यार रहे


हवा ,ये फूल ,ये खुशबू ,यही गुबार रहे 

कहीं से लौट के आऊँ तुझी से प्यार रहे 


मैं जब भी जन्म लूँ गंगा तुम्हारी गोद रहे 

यही तिरंगा ,हिमालय ये हरसिंगार रहे 


बचूँ तो इसके मुकुट का मैं मोरपंख बनूँ 

मरूँ  तो नाम शहीदों में ये शुमार रहे 


ये मुल्क ख़्वाब से सुंदर है जन्नतों से बड़ा 

यहाँ पे संत ,सिद्ध और दशावतार रहे 


मैं जब भी देखूँ लिपट जाऊँ पाँव को छू लूँ 

ये माँ का कर्ज़ है चुकता न हो उधार रहे 


भगत ,आज़ाद औ बिस्मिल ,सुभाष भी थे यहीं 

जो इन्क़लाब लिखे सब इन्हीं के यार रहे 


आज़ादी पेड़ हरा है ये मौसमों से कहो 

न सूख पाएँ परिंदो को एतबार रहे 


तमाम रंग नज़ारे ये बाँकपन ये शाम 

सुबह के फूल पे कुछ धूप कुछ 'तुषार 'रहे 


कवि /शायर -जयकृष्ण राय तुषार 

झाँसी की रानी 


चित्र -साभार गूगल 


चित्र -साभार गूगल -भारत के लोकरंग

Monday 22 July 2024

किताब -वर्चस्व -लेखक आई. पी. एस. श्री राजेश पांडे

 

किस्सागोई की अद्भुत किताब वर्चस्व. 

I. P. S श्री राजेश पांडे की किताब वर्चस्व 

एक ऐसे पुलिस ऑफिसर जिसने S. T. F के गठन से लेकर श्रीप्रकाश शुक्ला जैसे खतरनाक और दुस्साहसी माफिया का अंत किया उस. I. P. S ऑफिसर की किताब है. वर्चस्व को राजकमल प्रकाशन के उप प्रकाशन राधाकृष्ण ने प्रकाशित किया है. पांडे जी ने ईमानदारी पूर्वक सारी घटनाओं का माननीयों का जिक्र किया है इसलिए यह किताब विश्वसनीय बन जाती है. माननीय कल्याण सिंह जी के समय उत्तर प्रदेश एस. टी. एफ का गठन किया गया था जो आज अपराधियों के लिए सबसे बड़ा खौफ़ है. पांडे जी इलाहाबाद विश्व विद्यालय के वनस्पति विज्ञान के परास्नातक रहे हैँ. 2003 बैच के आई. पी. एस. ऑफिसर हैँ. किताब का मूल्य 399 रूपये है. लल्लन टॉप पर पांडे जी और सौरभ द्विवेदी की बातचीत भी किताबनामा एपिसोड मे दर्ज है. सम्भवतः बी. बी. सी. पर भी इनका इंटरव्यू है. एक इलाहाबादी जन्मजात लेखक होता है क्योंकि साहित्य में कई बड़े प्रयोग यहीं से होकर गुजरे हैँ.

पांडे जी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन D. G. P श्री अवस्थी जी के साथ 
सेवानिवृति का अवसर 


Sunday 30 June 2024

एक गीत -मन किसी को याद करता है

 

चित्र साभार गूगल 
एक गीत -मन किसी को याद करता है 

जब गुलाबी फूल खिलते हैं 

मौसमों से रंग मिलते हैं 

पोछता हूँ धूल जब तस्वीर से 

मन किसी को याद करता है.


हाथ जब मेंहदी रचाते हैं 

पेड़ पंछी गुनगुनाते हैं 

धूप को जब छाँह मिलती है 

सुरमई जब शाम ढलती है 

खिड़कियों पर टांगकर पर्दे 

मौन भी संवाद करता है 

मन किसी को याद करता है.


चिट्ठियों के दिन कहाँ खोये 

कब हँसे हम और कब रोये 

मन लिखे भूली कथाओं को 

प्रेम की पावन ऋचाओं को 

प्रेम और वैराग्य का स्वागत 

यह इलाहाबाद करता है.

मन किसी को याद करता है.


पथ कभी छूटे नहीं मिलते 

हर समय गुड़हल नहीं खिलते 

वक्त ही हमको नई आवाज़ देता है

आम्रपाली को वही सुर साज देता है 

गीत लिखते हम मगर जादू 

साज पर नौशाद करता है

मन किसी को याद करता है.

कवि -जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 


Sunday 16 June 2024

एक गीत -गंगा हमको छोड़ कभी इस धरती से मत जाना

 

गंगा तट हरिद्वार 

गंगा दशहरा की हार्दिक शुभकामनायें 


एक गीत -गंगा हमको छोड़ कभी 


गंगा हमको छोड़ कभी 

इस धरती से मत जाना 

माँ जैसे कल तक बहती थी 

वैसे बहती जाना.


तुम हो तो ये पर्व अनोखे 

ये साधू, सन्यासी,

तुमसे कनखल, हरिद्वार है 

तुमसे पटना, काशी,

जहाँ कहीं हर हर गंगे हो 

पलभर माँ रुक जाना.


भक्तों के ऊपर ज़ब भी 

संकट गहराता है,

सिर पर तेरा हाथ 

और आँचल लहराता है,

मुझको भी है तेरे 

पावन तट पर दीप जलाना.


माँ तुम नदी सदानीरा हो 

कभी न सोती हो,

गोमुख से गंगासागर तक 

सपने बोती हो,

जहाँ कहीं बंजर धरती हो 

माँ तुम फूल खिलाना.


राजा, रंक सभी की नैया 

हँसकर पार लगाती,

कंकड, पत्थर, शंख, सीपियाँ 

सबको गले लगाती,

तेरे तट पर बैठ अघोरी

 सीखे मंत्र जगाना.


छठे छमासे माँ हम 

तेरे तट पर आएंगे,

पान फूल, सिंदूर 

नारियल तुम्हें चढ़ाएंगे,

मझधारों में हम ना डूबें 

माँ तुम पार लगाना.


कवि -जयकृष्ण राय तुषार

यह गीत मेरे प्रथम संग्रह में प्रकाशित है.

गंगा मैया 

Monday 3 June 2024

एक प्रेम गीत -वीणा के साथ तुम्हारा स्वर हो

  

चित्र साधार गूगल 


एक गीत -वीणा के साथ तुम्हारा स्वर हो 

फूलों की 
सुगंध वीणा के 
साथ तुम्हारा स्वर हो.
इतनी सुन्दर 
छवियों वाला 
कोई प्यारा घर हो.

धान -पान के 
साथ भींगना 
मेड़ों पर चलना,
चिट्ठी पत्री 
लिखना -पढ़ना 
हॅसकर के मिलना,
मीनाक्षी आंखें 
संध्या की 
पाटल सदृश अधर हो,

ताल-झील 
नदियों से 
पहले हम बतियाते थे,
कुछ बंजारे 
कुछ हम 
अपना गीत सुनाते थे,
हर राधा के 
स्वप्नलोक में 
कोई मुरलीधर हो.

इंद्रधनुष की 
आभा नीले 
आसमान में निखरी,
चलो 
बैठकर पढ़ें 
लोक में प्रेम कथाएँ बिखरी,
रिमझिम 
वाले मौसम में 
फिर से साथ सफ़र हो.

सबकी चिंता 
सबका सुख दुःख 
मिलकर जीते थे,
निर्गुण गाते हुए 
ओसारे 
हुक्का पीते थे,
ननद भाभियों की 
गुपचुप फिर 
घर में इधर उधर हो.

कवि जयकृष्ण राय तुषार 
चित्र साधार गूगल 


Sunday 2 June 2024

एक सामयिक गीत -केरल से उड़ या मेघा बंगाल से

 

चित्र साधार गूगल 

एक ताज़ा सामयिक गीत 


केरल से 

उड़ या 

मेघा बंगाल से.

खुशबू वाले 

फूल 

झर रहे डाल से.


हांफ रहे 

हैँ हिरण 

राम क्या मौसम है,

जंगल में 

चिड़ियों का 

कलरव बेदम है,

हंस 

पियासे 

झाँक रहे नभ ताल से.


पारो पोछे 

सुबह 

पसीना पल्लू से,

हवा गरम 

आ रही 

श्रीनगर, कुल्लू से,

मोर मोरनी 

थके 

लग रहा चाल से.


चम्पा, बेला

गुड़हल

मन से खिले नहीं,

इस मौसम 

कपोत के 

जोड़े मिले नहीं,

उड़ी 

इत्र की महक 

सभी रुमाल से.

कवि जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साधार गूगल 


Saturday 1 June 2024

एक गीत -गर्म तवे सी धरती

 

चित्र साभार गूगल 

एक सामयिक गीत 

आज 10जून को दैनिक जागरण 
में यह गीत प्रकाशित 



गर्म तवे सी 
धरती 
पत्ते -फूल सभी मुरझाए.
इस दुरूह 
मौसम में 
कोई राग मल्हार सुनाए.

गाद भरी 
नदियों झीलों में 
सिर्फ नयन भर जल है,
अनियंत्रित 
विकास मौसम के 
साथ स्वर्ण मृग छल है,
जल विहीन 
बादल चातक की 
कैसे प्यास बुझाए.

पीपल, नीम 
उपेक्षित 
आँगन सजे बोनसाई,
क़ातिल 
लगने लगा 
सुहाना मौसम कैसे भाई,
भोर, साँझ 
दिन -रात 
एक सा पारा हमें रुलाए.

पंखा झलते 
उँटी, चम्बा 
औली, कुल्लू मनाली,
बरखा रानी 
की आभा से 
दसों दिशाएं खाली,
मैना 
सूखी हुई डाल पर 
अपनी पीठ खुजाए.

कवि जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 


Tuesday 21 May 2024

एक पुरानी ग़ज़ल -ग़ज़ल, ये गीत, ये किस्सा

 

 

चित्र साभार गूगल


एक ग़ज़ल-

ग़ज़ल ये गीत ये किस्सा कहानी छोड़ जाऊँगा

तुम्हारा प्यार ये चेहरा नूरानी छोड़ जाऊँगा


अभी फूलों की खुशबू झील में सुर्खाब रखता हूँ

किसी दिन गुलमोहर ये रातरानी छोड़ जाऊँगा


हमारी प्यास इतनी है कि दरिया सूख जाते हैं

किसी दिन राख, मिट्टी, आग- पानी छोड़ जाऊँगा


अभी चिड़ियों की बंदिश सुन रहा हूँ पेड़ के नीचे

कभी हल बैल ये खेती किसानी छोड़ जाऊँगा


सफ़र में आख़िरी ,नेकी ही अपने साथ जाएगी

ये शोहरत और दौलत ख़ानदानी छोड़ जाऊँगा


कभी सुनना हो मुझको तो मेरा दीवान पढ़ लेना 

किताबों में मैं फूलों की निशानी छोड़ जाऊँगा 


दिलों की आलमारी में हिफ़ाजत से इसे रखना 

इसी घर में मैं सब यादें पुरानी छोड़ जाऊँगा 


मैं मिलकर ॐ में इस सृष्टि की रचना करूँगा फिर 

ये धरती ,चाँद ,सूरज आसमानी छोड़ जाऊँगा 


कवि -जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल 


Sunday 12 May 2024

माँ -एक पुराना गीत माँ तुम गंगाजल होती हो

 

 

मेरी पत्नी के स्मृतिशेष पिता और माँ 
मेरी माँ   की कोई तस्वीर  नहीं है 

एक पुराना गीत मेरे प्रथम संग्रह सदी को सुन रहा हूँ मैं 'से 

मातृदिवस पर  सभी माताओं को समर्पित शब्द पुष्प 


माँ तुम गंगाजल होती हो 
मेरी ही यादों में खोयी 
अक्सर तुम पागल होती हो 
माँ तुम गंगाजल होती हो 

जीवन भर दुख के पहाड़ पर 
तुम पीती आँसू के सागर 
फिर भी महकाती फूलों सा 
मन का सूना संवत्सर 
जब -जब हम गति लय से भटकें 
तब -तब तुम मादल होती हो 

व्रत -उत्सव मेले की गणना 
कभी न तुम भूला करती हो 
सम्बन्धों की डोर पकड़कर 
आजीवन झूला करती हो 
तुम कार्तिक की धुली -
चाँदनी से ज्यादा निर्मल होती हो 

पल -पल जगती सी आँखों में 
मेरी खातिर स्वप्न सजाती 
अपनी उमर हमें देने को 
मंदिर में घंटियाँ बजाती 
जब -जब ये आँखें धुंधलाती 
तब -तब तुम काजल होती हो 

हम तो नहीं भागीरथ जैसे 
कैसे  सिर से कर्ज उतारें 
तुम तो खुद ही गंगाजल हो 
तुझको हम किस जल से तारें 
तुझ पर फूल चढ़ाएँ कैसे 
तुम तो स्वयं कमल होती हो 

कवि -जयकृष्ण राय तुषार 
चित्र -साभार गूगल 

एक ग़ज़ल -वो अक्सर फूल परियों की तरह

  चित्र साभार गूगल  बेटियों /स्त्रियों पर लगातार लैंगिक अपराध से मन दुःखी है. कभी स्त्रियों के दुख दर्द पर मेरी एक ग़ज़ल बी. बी. सी. लंदन की न...