Sunday, 16 June 2024

एक गीत -गंगा हमको छोड़ कभी इस धरती से मत जाना

 

गंगा तट हरिद्वार 

गंगा दशहरा की हार्दिक शुभकामनायें 


एक गीत -गंगा हमको छोड़ कभी 


गंगा हमको छोड़ कभी 

इस धरती से मत जाना 

तू जैसे कल तक बहती थी 

वैसे बहती जाना.


तुम हो तो ये पर्व अनोखे 

ये साधू, सन्यासी,

तुमसे कनखल, हरिद्वार है 

तुमसे पटना, काशी,

जहाँ कहीं हर हर गंगे हो 

पलभर माँ रुक जाना.


भक्तों के ऊपर ज़ब भी 

संकट गहराता है,

सिर पर तेरा हाथ 

और आँचल लहराता है,

मुझको भी है तेरे 

पावन तट पर दीप जलाना.


माँ तुम नदी सदानीरा हो 

कभी न सोती हो,

गोमुख से गंगासागर तक 

सपने बोती हो,

जहाँ कहीं बंजर धरती हो 

माँ तुम फूल खिलाना.


राजा, रंक सभी की नैया 

हँसकर पार लगाती,

कंकड, पत्थर, शंख, सीपियाँ 

सबको गले लगाती,

तेरे तट पर बैठ अघोरी

 सीखे मंत्र जगाना.


छठे छमासे माँ हम 

तेरे तट पर आएंगे,

पान फूल, सिंदूर 

नारियल तुम्हें चढ़ाएंगे,

मझधारों में हम ना डूबें 

माँ तुम पार लगाना.


कवि -जयकृष्ण राय तुषार

यह गीत मेरे प्रथम संग्रह में प्रकाशित है.

गंगा मैया 

Monday, 3 June 2024

एक प्रेम गीत -वीणा के साथ तुम्हारा स्वर हो

  

चित्र साधार गूगल 


एक गीत -वीणा के साथ तुम्हारा स्वर हो 

फूलों की 
सुगंध वीणा के 
साथ तुम्हारा स्वर हो.
इतनी सुन्दर 
छवियों वाला 
कोई प्यारा घर हो.

धान -पान के 
साथ भींगना 
मेड़ों पर चलना,
चिट्ठी पत्री 
लिखना -पढ़ना 
हॅसकर के मिलना,
मीनाक्षी आंखें 
संध्या की 
पाटल सदृश अधर हो,

ताल-झील 
नदियों से 
पहले हम बतियाते थे,
कुछ बंजारे 
कुछ हम 
अपना गीत सुनाते थे,
हर राधा के 
स्वप्नलोक में 
कोई मुरलीधर हो.

इंद्रधनुष की 
आभा नीले 
आसमान में निखरी,
चलो 
बैठकर पढ़ें 
लोक में प्रेम कथाएँ बिखरी,
रिमझिम 
वाले मौसम में 
फिर से साथ सफ़र हो.

सबकी चिंता 
सबका सुख दुःख 
मिलकर जीते थे,
निर्गुण गाते हुए 
ओसारे 
हुक्का पीते थे,
ननद भाभियों की 
गुपचुप फिर 
घर में इधर उधर हो.

कवि जयकृष्ण राय तुषार 
चित्र साधार गूगल 


Sunday, 2 June 2024

एक सामयिक गीत -केरल से उड़ या मेघा बंगाल से

 

चित्र साधार गूगल 

एक ताज़ा सामयिक गीत 


केरल से 

उड़ या 

मेघा बंगाल से.

खुशबू वाले 

फूल 

झर रहे डाल से.


हांफ रहे 

हैँ हिरण 

राम क्या मौसम है,

जंगल में 

चिड़ियों का 

कलरव बेदम है,

हंस 

पियासे 

झाँक रहे नभ ताल से.


पारो पोछे 

सुबह 

पसीना पल्लू से,

हवा गरम 

आ रही 

श्रीनगर, कुल्लू से,

मोर मोरनी 

थके 

लग रहा चाल से.


चम्पा, बेला

गुड़हल

मन से खिले नहीं,

इस मौसम 

कपोत के 

जोड़े मिले नहीं,

उड़ी 

इत्र की महक 

सभी रुमाल से.

कवि जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साधार गूगल 


Saturday, 1 June 2024

एक गीत -गर्म तवे सी धरती

 

चित्र साभार गूगल 

एक सामयिक गीत 

आज 10जून को दैनिक जागरण 
में यह गीत प्रकाशित 



गर्म तवे सी 
धरती 
पत्ते -फूल सभी मुरझाए.
इस दुरूह 
मौसम में 
कोई राग मल्हार सुनाए.

गाद भरी 
नदियों झीलों में 
सिर्फ नयन भर जल है,
अनियंत्रित 
विकास मौसम के 
साथ स्वर्ण मृग छल है,
जल विहीन 
बादल चातक की 
कैसे प्यास बुझाए.

पीपल, नीम 
उपेक्षित 
आँगन सजे बोनसाई,
क़ातिल 
लगने लगा 
सुहाना मौसम कैसे भाई,
भोर, साँझ 
दिन -रात 
एक सा पारा हमें रुलाए.

पंखा झलते 
उँटी, चम्बा 
औली, कुल्लू मनाली,
बरखा रानी 
की आभा से 
दसों दिशाएं खाली,
मैना 
सूखी हुई डाल पर 
अपनी पीठ खुजाए.

कवि जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 


Tuesday, 21 May 2024

एक पुरानी ग़ज़ल -ग़ज़ल, ये गीत, ये किस्सा

 

 

चित्र साभार गूगल


एक ग़ज़ल-

ग़ज़ल ये गीत ये किस्सा कहानी छोड़ जाऊँगा

तुम्हारा प्यार ये चेहरा नूरानी छोड़ जाऊँगा


अभी फूलों की खुशबू झील में सुर्खाब रखता हूँ

किसी दिन गुलमोहर ये रातरानी छोड़ जाऊँगा


हमारी प्यास इतनी है कि दरिया सूख जाते हैं

किसी दिन राख, मिट्टी, आग- पानी छोड़ जाऊँगा


अभी चिड़ियों की बंदिश सुन रहा हूँ पेड़ के नीचे

कभी हल बैल ये खेती किसानी छोड़ जाऊँगा


सफ़र में आख़िरी ,नेकी ही अपने साथ जाएगी

ये शोहरत और दौलत ख़ानदानी छोड़ जाऊँगा


कभी सुनना हो मुझको तो मेरा दीवान पढ़ लेना 

किताबों में मैं फूलों की निशानी छोड़ जाऊँगा 


दिलों की आलमारी में हिफ़ाजत से इसे रखना 

इसी घर में मैं सब यादें पुरानी छोड़ जाऊँगा 


मैं मिलकर ॐ में इस सृष्टि की रचना करूँगा फिर 

ये धरती ,चाँद ,सूरज आसमानी छोड़ जाऊँगा 


कवि -जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल 


Sunday, 12 May 2024

माँ -एक पुराना गीत माँ तुम गंगाजल होती हो

 

 

मेरी पत्नी के स्मृतिशेष पिता और माँ 
मेरी माँ   की कोई तस्वीर  नहीं है 

एक पुराना गीत मेरे प्रथम संग्रह सदी को सुन रहा हूँ मैं 'से 

मातृदिवस पर  सभी माताओं को समर्पित शब्द पुष्प 


माँ तुम गंगाजल होती हो 
मेरी ही यादों में खोयी 
अक्सर तुम पागल होती हो 
माँ तुम गंगाजल होती हो 

जीवन भर दुख के पहाड़ पर 
तुम पीती आँसू के सागर 
फिर भी महकाती फूलों सा 
मन का सूना संवत्सर 
जब -जब हम गति लय से भटकें 
तब -तब तुम मादल होती हो 

व्रत -उत्सव मेले की गणना 
कभी न तुम भूला करती हो 
सम्बन्धों की डोर पकड़कर 
आजीवन झूला करती हो 
तुम कार्तिक की धुली -
चाँदनी से ज्यादा निर्मल होती हो 

पल -पल जगती सी आँखों में 
मेरी खातिर स्वप्न सजाती 
अपनी उमर हमें देने को 
मंदिर में घंटियाँ बजाती 
जब -जब ये आँखें धुंधलाती 
तब -तब तुम काजल होती हो 

हम तो नहीं भागीरथ जैसे 
कैसे  सिर से कर्ज उतारें 
तुम तो खुद ही गंगाजल हो 
तुझको हम किस जल से तारें 
तुझ पर फूल चढ़ाएँ कैसे 
तुम तो स्वयं कमल होती हो 

कवि -जयकृष्ण राय तुषार 
चित्र -साभार गूगल 

Monday, 6 May 2024

पुस्तक समीक्षा -विनम्र विद्रोही -भारती राठौड़ एवं डॉ मेहेर वान

 

पुस्तक 


"विनम्र विद्रोही "अद्वितीय गणितज्ञ रामानुजन 

लेखक भारती राठौड़ एवं मेहेर वान 

डॉ मेहेर वान और भारती राठौड़ की अभी हाल में पुस्तक पेगुइन इंडिया एवं हिन्द पॉकेट बुक्स जिसे पेगुइन ने खरीद लिया है प्रकाशित हुई है. किताब बहुत ही अच्छे शीर्षक के साथ प्रकाशित हुई है. डॉ मेहेर वान वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसन्धान परिषद में वैज्ञानिक हैँ उनकी पत्नी सहलेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैँ. विज्ञान विषय पर उत्कृष्ट लेखन हिंदी में कम हुआ है लेकिन यह पुस्तक बहुत रोचक ढंग से लिखी गयी है. जितना सुन्दर प्रामाणिक अनुसंधान हुआ है उतनी ही सुन्दर सहज भाषा में रामानुजन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला गया है. प्रारम्भिक दिनों में मेहेर वान आकाशवाणी के युवा कार्यक्रमों से भी प्रयागराज में जुड़े रहे. महान गणितज्ञ रामानुजन के विभिन्न पहलुओं के बखूबी उकेरा गया है. आवश्यक चित्र हस्तलिपि भी पुस्तक को रोचक बनाते हैँ. मेहेर वान और भारती राठौड़ जी को इस पुस्तक के लिए बधाई और शुभकामनायें.




Tuesday, 26 March 2024

एक ग़ज़ल -कभी मीरा, कभी तुलसी

 

चित्र साभार गूगल 

एक ग़ज़ल -


कभी मीरा, कभी तुलसी कभी रसखान लिखता हूँ 
ग़ज़ल में, गीत में पुरखों का हिंदुस्तान लिखता हूँ 

ग़ज़ल ऐसी हो जिसको खेत का मज़दूर भी समझे
दिलों की बात जब हो और भी आसान लिखता हूँ 

कमा लेता हूँ इतना  मिल सके दो जून की रोटी 
मैं बटुआ देखकर बाज़ार का सामान लिखता हूँ 

कभी फूलों की घाटी से कभी दरिया से मिलता हूँ 
कभी महफ़िल में बंज़ारों की, रेगिस्तान लिखता हूँ 

कवि /शायर 
जयकृष्ण राय तुषार 
चित्र साभार गूगल 


Friday, 22 March 2024

एक होली गीत -आम कुतरते हुए सुए से

 



चित्र -गूगल से साभार 

आप सभी को होली की बधाई एवं शुभकामनाएँ 
एक गीत -होली 

आम कुतरते हुए सुए से 
मैना कहे मुंडेर की |
अबकी होली में ले आना 
भुजिया बीकानेर की |

गोकुल ,वृन्दावन की हो 
या होली हो बरसाने की ,
परदेसी की वही पुरानी
आदत  है तरसाने की ,
उसकी आँखों को भाती है 
कठपुतली आमेर की |

इस होली में हरे पेड़ की 
शाख न कोई टूटे ,
मिलें गले से गले 
पकड़कर हाथ न कोई छूटे ,
हर घर -आंगन महके खुशबू 
गुड़हल और कनेर की |

चौपालों पर ढोल मजीरे 
सुर गूंजे करताल के ,
रुमालों से छूट न पायें 
रंग गुलाबी गाल के ,
फगुआ गाएं या फिर 
बांचेंगे कविता शमशेर की |

कवि जयकृष्ण राय तुषार
[मेरे इस गीत को आदरणीय अरुण आदित्य द्वारा अमर उजाला में प्रकाशित किया गया था मेरे संग्रह में भी है |व्यस्ततावश नया लिखना नहीं हो पा रहा है |

चित्र -गूगल से साभार 

Saturday, 2 March 2024

एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता

चित्र साभार गूगल 


एक ग़ज़ल -इसी से चाँद मुक़म्मल नज़र नहीं आता


सफ़र में धुंध,ये बादल, कभी शजर आता

इसी से चाँद मुक़म्मल नहीं नज़र आता


बताता हाल मैं दरियाओं के परिंदो का

मुझे भी नाव चलाने का कुछ हुनर आता


शहर में खिड़कियाँ, पर्दे हैं आसमान कहाँ

हमारे गाँव में सूरज सुबह ही घर आता


तमाम रेत है, दरिया न पेड़ का साया

हमारी राह में कैसे कोई बशर आता


मकान रिश्ते भी पुरखों के बाँट डाले गए

खिलौना देख के बच्चा नहीं इधर आता


कवि /शायर

जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल 


सभी चित्र साभार गूगल

एक गीत -गा रहा होगा पहाड़ों में कोई जगजीत

  चित्र साभार गूगल एक गीत -मोरपँखी गीत  इस मारुस्थल में  चलो ढूँढ़े  नदी को मीत. डायरी में  लिखेंगे  कुछ मोरपँखी गीत. रेत में  पदचिन्ह होंगे ...