Saturday, 6 March 2021

एक ग़ज़ल-ग़ज़ल के वास्ते बस शाम का मंज़र चुराता हूँ

 

चित्र -साभार गूगल 



एक ग़ज़ल-

ग़ज़ल के वास्ते बस शाम का मंज़र चुराता हूँ


मैं शाख़ -ए -गुल सभी के साथ में रिश्ता निभाता हूँ

गले का हार बनता हूँ कभी जूड़े सजाता हूँ


सुगम संगीत की वंशी,पखावज़ और तबला हूँ

कभी कीर्तन सुनाता हूँ कभी महफ़िल सजाता हूँ


सितारों ने दिया मुझको हथौड़ा,आग भट्ठी की

मैं दुनिया के लिए रत्नों की अँगूठी बनाता हूँ


सब उगते सूर्य को करते नमन ऐसी कहावत है

मैं अस्ताचल के सूरज के लिए दीपक जलाता हूँ


तुम्हें सौन्दर्य पर अपने अहं है पर हक़ीकत ये

गुसलखाने का दरपन हूँ तुम्हें हर दिन सजाता हूँ


समझते हैं सभी मुझको ग़ज़ल का शेर कहता हूँ

मैं अपने चाहने वालों  का ही किस्सा सुनाता हूँ


समन्दर की लहर से एक भी मोती नहीं लेता

ग़ज़ल के वास्ते बस शाम का मंज़र चुराता हूँ


सभी के हँसने -रोने में जरा सा फ़र्क होता है

मैं रोता हूँ तो इक रुमाल से आँसू छिपाता हूँ


जयकृष्ण राय तुषार


 

चित्र -साभार गूगल 


8 comments:

  1. मैं शाख़ -ए -गुल हूँ 

    बेहतरीन

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  2. समन्दर की लहर से एक भी मोती नहीं लेता

    ग़ज़ल के वास्ते बस शाम का मंज़र चुराता हूँ

    बस यूँ ही मंज़र चुराते रहें और ग़ज़ल कहते रहें । बहुत खूब

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    1. बस यूँ ही आपका आशीर्वाद मिलता रहे।हार्दिक आभार।सादर प्रणाम आपको

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  3. बहुत सुंदर

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय।सादर अभिवादन

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  4. Replies
    1. हार्दिक आभार आपका सर। शुभ संध्या।

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