Sunday, 19 August 2012

एक जनगीत -हमें तिवारी मत समझाओ

चित्र -गूगल से साभार 
एक जनगीत -हमें तिवारी मत समझाओ

जितना 
चाहो लूटो खाओ |
हमें तिवारी 
मत समझाओ |

बन्द न होंगे 
गोरखधन्धे ,
धृतराष्ट्रों के 
वंशज अन्धे ,
कोई इनको 
राह दिखाओ |

बस कुर्सी की 
रामकहानी ,
मरा हुआ 
आँखों का पानी ,
तुम टी० वी० 
पर गाल बजाओ |

खत्म हो 
रहा भाई चारा ,
गंगा -जमुना 
है बिन धारा ,
होली खेलो 
ईद मनाओ |

हर खिड़की 
पर मकड़ी जाले ,
कितने 
मगरमच्छ हो पाले ,
सूर्य मरे 
तुम राहु बचाओ |

धान कोयला -
खान बेच दो ,
देश -धरम 
ईमान बेच दो ,
तुम सब खाओ 
तुम्हीं पचाओ |

हम केवल 
वोटर ,मतदाता ,
आप हमारे 
भाग्यविधाता ,
जनता का 
विश्वास बचाओ |

खून -पसीना 
हमीं बहाते ,
जनगण मन 
का गीत सुनाते ,
और तिरंगा 
तुम फहराओ |

सरकारी 
अफ़सर मतवाले ,
प्याज ,नमक 
रोटी के लाले ,
रोज तेल के 
दाम बढ़ाओ |

कौन आँख की 
पट्टी खोले ,
पक्ष -विपक्ष 
एक सुर बोले ,
गाँव उजाड़ो 
माँल बनाओ |

जगह -जगह 
हिंसा ,अफवाहें ,
मुश्किल में 
जनता की राहें ,
अपराधी जो 
उसे बचाओ |

Saturday, 18 August 2012

एक प्रेम गीत -मैं तुझमें तू कहीं खो गयी

चित्र -गूगल से साभार 
एक प्रेमगीत -मैं तुझमें तू कहाँ खो गयी 

यह भी क्षण 
कितना सुन्दर है 
मैं तुझमें तू कहीं खो गयी |
इन्द्रधनुष 
की आभा से ही 
प्यासी धरती हरी हो गयी |

जीवन बहती नदी 
नाव तुम ,हम 
लहरें बन टकराते हैं ,
कुछ की किस्मत 
रेत भुरभुरी कुछ 
मोती भी पा जाते हैं ,
मेरी किस्मत 
बंजारन थी 
जहाँ पेड़ था वहीँ सो गयी |

तेरी इन 
अपलक आँखों में 
आगत दिन के कुछ सपने हैं ,
पांवों के छाले 
मुरझाये अब 
फूलों के दिन अपने हैं ,
मेरा मन 
कोरा कागज था 
उन पर तुम कुछ गीत बो गयी |
चित्र -गूगल से साभार 
[ सबसे ऊपर लगे चित्र को देखकर ही इस गीत को लिखने का भाव प्रकट हुआ |इधर कुछ दिनों से लिखना मुश्किल हो रहा है फिर भी कोशिश कर रहा हूँ |]

Wednesday, 15 August 2012

बापू तेरे सपनों वाली वह आज़ादी कहाँ गयी ?

चित्र -गूगल से साभार 
बापू तेरे सपनोंवाली वह आज़ादी कहाँ गयी ?
बापू तेरे सपनों वाली
वह आज़ादी कहाँ गयी |
तुम जिसको चरखे में 
बुनते थे वह खादी कहाँ गयी |

नेता ,मंत्री खुलेआम 
अब सिर्फ़ तिजोरी भरते हैं .
सत्यमेवजयते को 
हर दिन झूठा साबित करते हैं ,
राजनीति वह पहलेवाली 
सीधी -सादी कहाँ गयी |

ठेकेदार व्यवस्था वाले 
राजमार्ग सब टूटे हैं ,
जन को पूछे कहाँ सियासत 
करम हमारे फूटे हैं ,
और अधिक पाने में 
अपनी रोटी आधी कहाँ गयी |

राजा जितना गूंगा -बहरा 
उतने ही हरकारे हैं ,
बंजर धरती ,कर्ज किसानी 
हम कितने बेचारे हैं ,
रामराज के सपनों वाली 
वह शहजादी कहाँ गयी |

जो भी सूर्य उगाते हैं हम 
उसको राहु निगल जाता है ,
सत्ता पाकर धर्मराज भी 
अक्सर यहाँ फिसल जाता है ,
जो सबका सुख दुःख सुनती थी 
वह आबादी कहाँ गयी |

यह मिट्टी हिन्दुस्तान की -एक देशगान आज़ादी के पावन पर्व पर

चित्र -गूगल से साभार 
स्वतन्त्रता दिवस के पावन राष्ट्रीय पर्व पर  बधाई और शुभकामनाओं के साथ 


एक गीत -यह मिट्टी हिन्दुस्तान की 

इस मिट्टी का क्या कहना 
यह मिट्टी हिन्दुस्तान की |
यह गुरुनानक ,तुलसी की है 
यह दादू ,रसखान की |

इसमें पर्वतराज हिमालय ,
कल-कल झरने बहते हैं ,
इसमें सूफ़ी ,दरवेशों के 
कितने कुनबे रहते हैं ,
इसकी सुबहें और संध्यायें 
हैं गीता ,कुरआन की |

यहाँ कमल के फूल और 
केसर खुशबू फैलाते हैं ,
हम आज़ाद देश के पंछी 
नीलगगन में गाते हैं ,
इसके होठों की लाली है 
जैसे मघई पान की |

सत्य अहिंसा ,दया ,धर्म की 
आभा इसमें रहती है ,
यही देश है जिसमें 
गंगा के संग जमुना बहती है ,
अपने संग हम रक्षा करते 
औरों के सम्मान की |

गाँधी के दर्शन से अब भी 
इसका चौड़ा सीना है ,
अशफाकउल्ला और भगत सिंह 
का यह खून -पसीना है ,
युगों -युगों से यह मिट्टी है 
त्याग और बलिदान की |
चित्र -गूगल से साभार 

Saturday, 28 July 2012

ओ प्रवासी ! लौट आ सावन बुलाता है

चित्र -गूगल से साभार 
ओ प्रवासी !लौट आ सावन बुलाता है -एक गीत 
ओ प्रवासी !
लौट आ 
सावन बुलाता है |
हाथ में 
मेंहदी लगा 
कंगन बुलाता है |

क्या नहीं 
तेरे चमकते शहर 
स्वप्निल गांव में ,
मदभरी 
बहती हवाएं 
गुलमोहर की छावं में ,
हर गली 
कचनार का 
यौवन बुलाता है |

तुमने 
सलोनी साँझ के 
सपने नहीं देखे ,
नीलकंठी 
मोर के 
पखने नहीं देखे ,
ओ गगन के 
मेघ मेरा 
मन बुलाता है |

रेशमी 
जूड़े गुँथी 
कलियाँ महकती हैं ,
चन्द्रवदना 
बिजलियाँ 
नभ में चमकती हैं ,
झूलता 
सपनों भरा 
आंगन बुलाता है |

तुझ बिना 
बिन्दिया न 
माथे पर लगाऊँगी ,
कजलियों 
के गीत 
होठों पर न लाऊंगी ,
आ तुम्हें 
यह नेह का 
दरपन बुलाता है |
चित्र -गूगल से साभार 
[यह मेरा प्रारम्भिक दौर का गीत है जो 1 अगस्त 1993 को आज हिन्दी दैनिक के साप्ताहिक में प्रकाशित हुआ था ]

Monday, 2 July 2012

मानसून कब लौटेगा बंगाल से


चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 

एक गीत -मानसून कब लौटेगा बंगाल से 
ये सूखे बादल 
लगते बेहाल से |
मानसून कब 
लौटेगा बंगाल से ?

कजली रूठी ,झूले गायब 
सूने गाँव ,मोहल्ले ,
सावन -भादों इस मौसम में 
कितने हुए निठल्ले ,
सोने -चांदी के दिन 
हम कंगाल से |

आंखें पीली 
चेहरा झुलसा धान का ,
स्वाद न अच्छा लगता 
मघई पान का ,
खुशबू आती नहीं 
कँवल की ताल से |

नहीं पास से गुजरी कोई 
मेहँदी रची हथेली ,
दरपन मन की बात न बूझे 
मौसम हुआ पहेली ,
सिक्का कोई नहीं 
गिरा रूमाल से |

फूलों के होठों से सटकर 
बैठी नहीं तितलियाँ ,
बिंदिया लगती है माथे की 
धानी -हरी बिजलियाँ ,
भींगी लटें नहीं
टकरातीं गाल से |


भींगी देह हवा से सटकर 
जाने क्या बतियाती ,
चैन नहीं खूंटे से बंधकर 
कजरी गाय रम्भाती ,
अभी नया लगता है 
बछड़ा चाल से |
चित्र -गूगल से साभार 
[मित्रों यह गीत ब्लॉग की पुरानी पोस्ट में है लेकिन सामयिक होने और कुछ न लिख पाने की व्यस्तता के कारण इसे दुबारा पोस्ट कर रहा हूँ ]

Wednesday, 23 May 2012

एक नवगीत -डाल के फूलों हमें फिर बाँटना महके हुए दिन

चित्र -गूगल से साभार 
एक गीत -डाल के फूलों हमें फिर बाँटना महके हुए दिन
कोयले की  
आँच जैसे 
हो गए दहके हुए दिन |
डाल के 
फूलों हमें 
फिर बाँटना महके हुए दिन |

इन हवाओं 
के थपेड़े 
हो गए आघात वाले ,
पीतवर्णी 
हो गए पत्ते 
हरी सी गाछ वाले ,
ये चुप्पियाँ 
तोड़ो परिन्दों 
बाँटना चहके हुए दिन |

ओ प्रिये !
तुम वायलिन पर 
फिर मिलन के गीत गाना ,
पथरा गयी 
सम्वेदना के 
पांव में घुँघरू सजाना ,
फिर साँझ 
होते लौट आयें 
भोर के बहके हुए दिन |

पारदर्शी 
आसमानों में 
धुँए छाने लगे हैं ,
बस्तियों में 
तेन्दुए वन 
छोड़कर आने लगे हैं ,
खून के 
छींटे न जिसमें ,
चाहिए टहके हुए दिन |
चित्र -गूगल से साभार 

Tuesday, 22 May 2012

एक नवगीत -खुली हुई वेणी को धूप में सुखाना मत

चित्र -गूगल से साभार 
खुली हुई वेणी को धूप में सुखाना मत 
खुली हुई वेणी को 
धूप में सुखाना मत 
बूंद -बूंद धरती पे गिरने दो |
सूख रही 
झीलों में लहर उठे 
प्यासे इन हँसों को तिरने दो |

तुम्हें देख 
सागर से उमड़ -घुमड़ 
बादल भी धार तोड़ बरसेंगे ,
फूटेंगे 
धानों में कल्ले 
हम बच्चों को दूध -भात परसेंगे ,
हरियाली के 
सपने आयेंगे 
दुर्दिन में इनको मत मरने दो |

धूल भरी आंधी ,
तूफानों को 
हरे -हरे पेड़ों तुम सह लेना ,
मौसम तो 
हरगिज ये बदलेगा 
फिर मन में बात दबी कह लेना ,
दहक रही 
घाटी फिर महकेगी 
फूलों में गन्ध नई भरने दो |

खुरदरी 
हथेलियों में देखना 
मेंहदी के रंग उभर आयेंगे ,
ठूँठों पर 
हाँफते परिन्दे ये 
देख तुम्हें अनायास गायेंगे ,
हम भी 
पद्मावत रच डालेंगे 
अस्त -व्यस्त शाम को सँवरने दो |
चित्र -गूगल से साभार 

Thursday, 17 May 2012

एक नवगीत -हन्टर बरसाते दिन मई और जून के

चित्र -गूगल से साभार 
एक नवगीत -हन्टर बरसाते दिन मई और जून के
हन्टर 
बरसाते दिन 
मई और जून के |
खुजलाती 
पीठों पर 
कब्जे नाख़ून के |

जेठ की 
दुपहरी में 
सोचते आषाढ़ की ,
सूखे की 
चिन्ता में 
कभी रहे बाढ़ की ,
किससे 
हम दर्द कहें 
हाकिम ये दून के |

हाँफ  रही 
गौरय्या
चोंच नहीं दाना  है ,
इस पर भी 
मौसम का 
गीत इसे  गाना है  ,
भिक्षुक को 
आते हैं 
सपने परचून के |

आचरण 
नहीं बदले 
बस हुए तबादले ,
जनता के 
उत्पीड़क 
राजा के लाडले ,
कटे हुए 
बाल हुए 
हम सब सैलून के |

मूर्ति के 
उपासक ही 
मूरत के चोर हुए ,
बापू के 
चित्र टांग 
दफ़्तर घूसखोर हुए ,
नेता के 
दौरे हैं रोज 
हनीमून के |

पैमाइस के 
झगड़े 
फर्जी बैनामे हैं ,
सरपंचों की -
लाठी और 
सुलहनामे हैं ,
अख़बारों 
पर छींटे 
रोज सुबह खून के |
चित्र -गूगल से साभार 

Wednesday, 9 May 2012

एक गीत -एक पत्ता हरा जाने किस तरह है पेड़ पर

चित्र -गूगल से साभार 
एक पत्ता हरा जाने किस तरह है पेड़ पर 
चोंच में 
दाना नहीं है 
पंख चिड़िया नोचती है |
भागते 
खरगोश सी पीढ़ी 
कहाँ कुछ सोचती है |

उगलती है 
झाग मुँह से 
गाय सूखी मेंड़ पर ,
एक पत्ता 
हरा जाने -
किस तरह है पेड़ पर ,
डूबते ही 
सूर्य के माँ 
दिया -बाती खोजती है |

पेड़ की 
शाखों पे 
बंजारे अभी -भी झूलते हैं ,
आज भी 
हम सुपरिचित 
पगडंडियों को  भूलते हैं ,
सास अब भी 
बहू पर 
इल्जाम सारा थोपती है |

धुले आँगन में 
महावर पाँव के 
छापे पड़े हैं ,
दांत में 
ऊँगली दबाये 
नैन फोटो पर गड़े हैं ,
बड़ी भाभी 
ननद को 
खुपिया नज़र से टोकती है |
चित्र -गूगल से साभार 

एक गीत -गा रहा होगा पहाड़ों में कोई जगजीत

  चित्र साभार गूगल एक गीत -मोरपँखी गीत  इस मारुस्थल में  चलो ढूँढ़े  नदी को मीत. डायरी में  लिखेंगे  कुछ मोरपँखी गीत. रेत में  पदचिन्ह होंगे ...