चित्र -गूगल से साभार |
एक पत्ता हरा जाने किस तरह है पेड़ पर
चोंच में
दाना नहीं है
पंख चिड़िया नोचती है |
भागते
खरगोश सी पीढ़ी
कहाँ कुछ सोचती है |
उगलती है
झाग मुँह से
गाय सूखी मेंड़ पर ,
एक पत्ता
हरा जाने -
किस तरह है पेड़ पर ,
डूबते ही
सूर्य के माँ
दिया -बाती खोजती है |
पेड़ की
शाखों पे
बंजारे अभी -भी झूलते हैं ,
आज भी
हम सुपरिचित
पगडंडियों को भूलते हैं ,
सास अब भी
बहू पर
इल्जाम सारा थोपती है |
धुले आँगन में
महावर पाँव के
छापे पड़े हैं ,
दांत में
ऊँगली दबाये
नैन फोटो पर गड़े हैं ,
बड़ी भाभी
ननद को
खुपिया नज़र से टोकती है |
चित्र -गूगल से साभार |
बहुत बढ़िया तुषार जी...
ReplyDeleteबेहतरीन!!!!
सादर.
्सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह ...बहुत बढिया।
ReplyDeleteपरिवर्तन तो बहुत हुआ है पर ये किस दिशा की ओर जा रहा है? नवगीत के बिम्ब हमे यह सोचने पर विवश करते हैं।
ReplyDeleteसंग्रहणीय नवगीत।
ReplyDeleteप्रथम बिंब ही ह्रदय चीर देता है...
चोंच में
दाना नहीं है
पाँख चिड़िया नोचती है |
भागते
खरगोश सी पीढ़ी
कहाँ कुछ सोचती है |
...गज़ब!
अद्भुत गीत है...भाव और भाषा कमाल की है...बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteनीरज
चार दृश्यों में सिमटी एक सुन्दर शाम..
ReplyDeleteअति सुंदर
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 10 -05-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....इस नगर में और कोई परेशान नहीं है .
वाह तुषार जी अदभुत गीत है
ReplyDeleteअपनी नव्यता के चरमोत्कर्ष को छूता हुआ
भागते
खरगोश सी पीढ़ी
कहाँ कुछ सोचती है |
कैसा निर्मम सच है मगर आपके अंदाज़ से दिल से आह भी निकलती है और वाह भी
बधाई स्वीकारें
बहुत अभिव्यक्ति पूर्ण -
ReplyDeleteअंत में खुपिया होगा या खुफिया ?
बहुत बढ़िया ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबुरे वक़्त के बारे में एक अच्छी कविता!
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteभाषा के अनुपम प्रयोग के साथ सुन्दर रचना !
ReplyDeleteचोंच में
ReplyDeleteदाना नहीं है
पाँख चिड़िया नोचती है |
भागते
खरगोश सी पीढ़ी
कहाँ कुछ सोचती है |
..वाह बहुत ही प्रभावशाली बिम्ब ..बहुत सुन्दर रचना
आज भी हम सुपरिचित पगडंडियों को भूलते हैं ,
ReplyDeleteसास अब भी बहू पर इल्जाम सारा थोपती है |
सोचने पर विवश करती रचना.....
आपभी समर्थक बने तो मुझे हार्दिक खुशी होगी,
MY RECENT POST.... काव्यान्जलि ...: कभी कभी.....
बहुत सुंदर रचना .....
ReplyDeleteदृश्य पर दृश्य ..बहुत सुन्दर.
ReplyDeleteआप सभी का दिल से आभार |
ReplyDelete''भागते खरगोश सी पीढ़ी यहाँ कुछ सोचती है ,'' एक अन्तराल के बाद फिर एक अच्छा गीत पढने को मिला .बधाई हो . तुषारजी !
ReplyDeleteवाह||||||
ReplyDeleteबहुत खूब....
सुन्दर रचना....
आपकी रचनाओं में शैलेन्द्र जी जैसी सादगी और मिटटी की महक मिलती है...
ReplyDeleteधुले आँगन में
ReplyDeleteमहावर पाँव के
छापे पड़े हैं ,
दांत में
ऊँगली दबाये
नैन फोटो पर गड़े हैं ,
बड़ी भाभी
ननद को
खुपिया नजर से टोकती है द्य
नवीन बिम्बों से सजा सुंदर गीत।