चित्र -साभार गूगल |
एक ग़ज़ल-
हमारी आस्था चिड़ियों को भी दाना खिलाती है
गले में क्रॉस पहने है मगर चन्दन लगाती है
सियासत भी इलाहाबाद में संगम नहाती है
ये नाटक था यहाँ तक आ गए कैसे ये मायावी
सुपर्णखा बनके जोगन राम को जैसे रिझाती है
कोई बजरे पे कोई रेत में धँसकर नहाता है
ये गंगा माँ निमन्त्रण के बिना सबको बुलाती है
सनातन संस्कृति कितनी निराली और पुरानी है
हमारी आस्था चिड़ियों को भी दाना खिलाती है
खिलौने आ गए बाजार से लेकिन हुनर का क्या
मेरी बेटी कहाँ अब शौक से गुड़िया बनाती है
वो राजा क्या बनेगा अश्व की टापों से डरता है
उसे दासी महल में शेर का किस्सा सुनाती है
ये हाथों की सफ़ाई है इसे जादू भी कहते हैं
नज़र से देखने वालों को यह अन्धा बनाती है
खिले हैं फूल जब तक तितलियों से बात मत करना
जरूरत पेड़ से गिरते हुए पत्ते उठाती है
कवि/शायर जयकृष्ण राय तुषार
चित्र साभार गूगल |
कवि /शायर जयकृष्ण राय तुषार
बहुत सुंदर
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका. सादर प्रणाम
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