चित्र साभार गूगल |
एक ग़ज़ल -नाकामी कहाँ रोक सकी रस्ता हुनर का
दरिया न इधर का मेरा दरिया न उधर का
अंजाम मग़र अच्छा था कश्ती में सफऱ का
मैं चाँद को मुट्ठी में लिए बैठा हूँ कब से
नाकामी कहाँ रोक सकी रस्ता हुनर का
सहरा है बहुत दूर तलक प्यास से कह दो
ये रेत चमकती हुई धोखा है नज़र का
इक शेर भी कह पाया नहीं आज तलक जो
उस्ताद बना बैठा है गज़लों की बहर का
महफ़िल में सदारत भी निज़ामत भी उसी की
जो फ़र्क़ समझता ही नहीं ज़ेर ओ ज़बर का
हर हारे मुसाफिर का ये पीपल है ठिकाना
मौसम की किताबों में है अफ़साना शजर का
सहमति के बिना मिलते हैं क्या खूब सियासत
अब कैसे भरोसा हो मियाँ इनकी ख़बर का
गावों में मेरे खिलते हैं गुड़हल भी कमल भी
जहरीली हवाएं लिए मौसम है नगर का
कवि -जयकृष्ण राय तुषार
चित्र साभार गूगल |
सुन्दर
ReplyDeleteआपका हृदय से आभार
Deleteआपकी ग़ज़ल का तो हर शेर लाजवाब होता है तुषार जी। इस ग़ज़ल का भी है। लेकिन मेरा दिल तो इसके पहले ही शेर ने जीत लिया।
ReplyDeleteआपका हृदय से आभार. सादर प्रणाम आदरणीय माथुर साहब
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 03 सितंबर 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका. सादर अभिवादन
Deleteवाह
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
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ReplyDeleteमैं चाँद को मुट्ठी में लिए बैठा हूँ कब से
नाकामी कहाँ रोक सकी रस्ता हुनर का
बेहतरीन ग़ज़ल!!
हार्दिक आभार आपका. सादर अभिवादन आदरणीया अनीता जी
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