Thursday, 10 February 2011

सुहाना हो भले मौसम



 सुहाना हो भले मौसम मगर अच्छा नहीं लगता 
सफर में तुम नहीं हो तो सफर अच्छा नहीं लगता 

फिजां में रंग होली के हों या मंजर दिवाली के 
मगर जब तुम नहीं होते ये घर अच्छा नहीं लगता 

जहां बचपन की यादें हों कभी माँ से बिछुड़ने की 
भले ही खूबसूरत हो शहर अच्छा नहीं लगता 

परिंदे जिसकी शाखों पर कभी नग्मे नहीं गाते 
हरापन चाहे जितना हो शजर अच्छा नहीं लगता 

तुम्हारे हुस्न का ये रंग सादा खूबसूरत है 
हिना के रंग पर कोई कलर अच्छा नहीं लगता 

तुम्हारे हर हुनर के हो गए हम इस तरह कायल 
हमें अपना भी अब कोई हुनर अच्छा नहीं लगता 

निगाहें मुन्तजिर मेरी सभी रस्तों की हैं लेकिन 
जिधर से तुम नहीं आते उधर अच्छा नहीं लगता                                                                             

(चित्र गूगल से साभार )

Tuesday, 8 February 2011

दो ग़ज़लें : कवि सुरेन्द्र सिंघल

कवि -सुरेन्द्र सिंघल 
परिचय -
सुरेन्द्र सिंघल हिंदी गज़ल में एक जाना पहचाना नाम है | २५ मई १९४८ को बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश में जन्मे इस कवि की गजले देश की विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित होतीं रही हैं | डी .एच .लारेंस की कविताओं पर समीक्षा पुस्तक Where the Demon Speaks प्रकाशित हो चुकी है | सुरेन्द्र सिघल की इंग्लिश में लिखी कविताएँ अंग्रेजी की पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं हैं | जे .वी .जैन पी .जी .कालेज के अंग्रेजी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत सुरेन्द्र सिंघल रामधारी सिंह दिनकर सम्मान सहित कई सम्मानों से सम्मानित हो चुके |हिंदी गज़ल में सुरेन्द्र सिघल का अंदाज बिलकुल निराला है | सवाल ये है  गज़ल पर इनकी चर्चित पुस्तक है जो मेधा बुक्स, दिल्ली से प्रकाशित है : सुरेन्द्र सिंघल जी की दो ग़ज़लें आज हम आपके साथ साझा कर रहे हैं .......

से साभार

(१)

वो केवल हुक्म देता है सिपहसालार जो ठहरा
मैं उसकी जंग लड़ता हूँ ,मैं बस हथियार जो ठहरा |

दिखावे की ये हमदर्दी ,तसल्ली खोखले वादे
मुझे सब झेलने  पड़ते हैं ,मैं बेकार जो ठहरा |

घुटन लगती न जो कमरे में एक दो खिड़कियाँ होतीं
मैं केवल सोच सकता हूँ किरायेदार जो ठहरा |

तू भागमभाग में इस दौर की शामिल हुई ही क्यों ?
मैं कैसे साथ दूँ तेरा मैं कम रफ़्तार जो ठहरा |

मोहबत्त दोस्ती ,चाहत वफ़ा ,दिल और कविता से
मेरे इस दौर को परहेज है बीमार जो ठहरा |

उसे हर शख्स को अपना बनाना खूब आता है
मगर वो खुद किसी का भी नहीं, हुशियार जो ठहरा |
                     

(२)

जिक्र मत छेड़ तू यहाँ दिल का
कर न बर्बाद वक्त महफ़िल का |

उससे मिलने का वक्त आया है
गूंज जाये न सायरन मिल का |

रेस्तरां में हूँ उसके साथ मगर
खौफ मुझको है चाय के बिल का |

मैं ये समझूंगा जीत है मेरी
हाथ कापें तो मेरे कातिल का |

पांव मेरे हैं रास्ते उनके
खूब है ये सफर भी मंजिल का |


Thursday, 27 January 2011

एक कविता: सन्दर्भ तपोभूमि उत्तराखण्ड



यह ऋषियों की भूमि
यहां की कथा निराली है।
गंगा की जलधार यहां
अमृत की प्याली है।

हरिद्वार, कनखल, बद्री
केदार यही मिलते
फूलों की घाटी में
अनगिन फूल यहां खिलते,
देवदार चीड़ों के वन
कैसी हरियाली है।

शिवजी की ससुराल
यहीं पर मुनि की रेती है,
दक्ष यज्ञ की कथा
समय को शिक्षा देती है,
मनसा देवी यहीं
यहीं मां शेरावाली है।

हर की पैड़ी जलधारों में
दीप जलाती है,
गंगोत्री यमुनोत्री
अपने धाम बुलाती है,
हेमकुण्ड है यहीं
मसूरी और भवाली है।

पर्वत घाटी झील
पहाड़ी धुन में गाते हैं,
देव यक्ष गंधर्व
इन्हीं की कथा सुनाते हैं,
कहीं कुमाऊं और कहीं
हंसता गढवाली है।

लक्ष्मण झूला शिवानन्द की
इसमें छाया है,
शान्तिकुंज में शांति
यहां ईश्वर की माया है,
यहीं कहीं कुटिया भी
काली कमली वाली है।

भारत माता मंदिर में
भारत का दर्शन है,
सीमा पर हर वीर
यहां का चक्र सुदर्शन है,
इनके जिम्मे हर दुर्गम
पथ की रखवाली है।

उत्सवजीवी लोग यहां
मृदुभाषा बोली है,
यह धरती का स्वर्ग
यहां हर रंग रंगोली है,
वन में कैसी हिरनों की
टोली मतवाली है।

यज्ञ धूम से यहां सुगन्धित
पर्वत नदी गुफाएं
यहीं प्रलय के बाद जन्म लीं
सारी वेद ऋचाएं,
नीलकण्ठ पर्वत की कैसी
छवि सोनाली है।


उत्तराखण्ड के समस्त निवासियों को समर्पित
चित्र uttarakhandevents.com से साभार

Sunday, 23 January 2011

जय-जय प्यारे देश हमारे


जय-जय प्यारे देश हमारे
जय-जय हिन्दुस्तान।
आजादी की इस मशाल को
छू न सके तूफान।

पूरब से पश्चिम तक
तेरी गौरव गाथा है,
दक्षिण में सागर
उत्तर में सागरमाथा है,
तेरे कण-कण में लिक्खा है
बापू का बलिदान।

तुझमें सतलज कावेरी
गंगा का पानी है,
तुझमें नानक तुलसी और
मीरा की बानी है,
तेरी मिट्टी की खुशबू में
हैं दादू , रसखान।

तक्षशिला नालंदा
तेरी पुराकथाएं हैं,
यहां बाइबिल गुरुग्रन्थ
और वेदऋचाएं हैं,
हम भटकें तो राह दिखाते
हैं गीता-कुरआन।

हँसता है मधुमास
यहां पर सावन गाता है,
रंग-बिरंगे धर्मों का
यह सुन्दर छाता है,
हर मौसम में यहां
गूँजती है वंशी की तान।

हम दुनिया की राहों में
बस फूल सजाते हैं,
सत्य अहिंसा विश्व शांति के
दीप जलाते हैं,
वीर तपस्वी बलिदानी
बच्चों की तू है खान।

चित्र से connect.in.com  साभार

Thursday, 13 January 2011

यह प्रयाग है: आस्था की भूमि



यह प्रयाग है यहाँ धर्म की ध्वजा निकलती है 
यह प्रयाग है
यहां धर्म की ध्वजा निकलती है
यमुना आकर यहीं
बहन गंगा से मिलती है।


संगम की यह रेत
साधुओं, सिद्ध, फकीरों की
यह प्रयोग की भूमि,
नहीं ये महज लकीरों की
इसके पीछे राजा चलता
रानी चलती है।


महाकुम्भ का योग
यहां वर्षों पर बनता है
गंगा केवल नदी नहीं
यह सृष्टि नियंता है
यमुना जल में, सरस्वती
वाणी में मिलती है।


यहां कुमारिल भट्ट
हर्ष का वर्णन मिलता है
अक्षयवट में धर्म-मोक्ष का
दीपक जलता है
घोर पाप की यहीं
पुण्य में शक्ल बदलती है।


रचे-बसे हनुमान
यहां जन-जन के प्राणों में
नागवासुकी का भी वर्णन
मिले पुराणों में
यहां शंख को स्वर
संतों को ऊर्जा मिलती है।


यहां अलोपी, झूंसी,
भैरव, ललिता माता हैं
मां कल्याणी भी भक्तों की
भाग्य विधाता हैं
मनकामेश्वर मन की
सुप्त कमलिनी खिलती है।


स्वतंत्रता, साहित्य यहीं से
अलख, जगाते हैं
लौकिक प्राणी यही
अलौकिक दर्शन पाते हैं
कल्पवास में यहां
ब्रह्म की छाया मिलती है।
पीठाधीश्वर जूना अखाड़ा स्वामी श्री अवधेशानन्द गिरी जी महाराज के श्रीचरणों में सादर समर्पित
चित्र से article.wn.com  साभार

Thursday, 30 December 2010

नये साल की उफ! कितनी तस्वीर घिनौनी है।

चित्र -गूगल से साभार 
एक नवगीत -नये साल की उफ़ !कितनी तस्वीर घिनौनी है 
नये साल की उफ़ !
उफ!  कितनी
तस्वीर घिनौनी है।
फिर
अफवाहों से ही
अपनी आंख मिचौनी है।


वही सभी
शतरंज खिलाड़ी
वही पियादे हैं,
यहां हलफनामों में भी
सब झूठे वादे हैं,
अपनी मूरत से
मुखिया की
मूरत बौनी है।


आंगन में
बंटकर तुलसी का
बिरवा मुरझाया,
मझली भाभी का
दरपन सा
चेहरा धुंधलाया,
मछली सी
आंखों में
टूटी एक बरौनी है।


गेहूं की
बाली पर बैठा
सुआ अकेला है,
कहासुनी की
मुद्राएं हैं
दिन सौतेला है,
दिन भर बजती
दरवाजे की
सांकल मौनी है।

चित्र से  गुगल सर्च से साभार

Monday, 27 December 2010

एक गीत -स्वागत आगन्तुक दिनमान का

चित्र -गूगल से साभार 
कल का सूरज
डूबा, स्वागत!
आगन्तुक दिनमान का।
यह सम्वत
शायद कुछ बदले
चेहरा रेगिस्तान का।

बहुत
बदलना चाहे लेकिन
मौसम नहीं बदलता है,
हरियाली का
स्वप्न आंख में
धू-धू करके जलता है,
चैमासे में
खेत पड़ा है
मुंह पीला खलिहान का।

हंसे कुंवारी
धूप हल्दिया
मैना आंगन चहके,
अरुणिम
आभा से पलाश की
जंगल घाटी दहके,
आछी के
फूलों सा महके
हर कोना दालान का।

सिर पर
ओढ़े रात चांदनी
लहरिल मोती झील हो,
चहल पहल में
मन का गहरा
सन्नाटा तब्दील हो,
जूड़े-जूड़े
फूल टांकता
हाथ बढ़े पवमान का।

पल्लव
अधरों से फिर ऋतुएं
छन्द पढ़ें अमराई के,
हर उत्सव में
पंडवानी के गीत
हों तीजन बाई के,
स्वागत करें
सुआ पिंजरे से
घर आये मेहमान का।

Tuesday, 9 November 2010

स्मृति-शेष पिता को याद करते हुए

स्व0 रुद्र प्रताप राय
15 अगस्त 1936 - 31 अक्टूबर 2010

मित्रों ज्योति पर्व दीपावली के ठीक पांच दिन पूर्व मुझे गहरा सदमा लगा। मेरी पत्नी मंजुला राय के सिर से पिता का साया और मेरे सिर से पिता तुल्य श्वसुर का साया उठ गया। पिता जी 31 अक्टूबर 2010 को हम सबसे विदा ले लिए। सामने दीपावली का पर्व था अतः मैं आप सबको दुखी नहीं करना चाह रहा था क्योंकि मेरा एक शेर है - किसी लमहा अगर कोई हमें खुशहाल लगता है। मैं अपने गम और उसके बीच में दीवार करता हूं। मैंने भी आप सबकी खुशी और अपने गम केबीच में एक दीवार खड़ी कर दिया। पिता की यादें ही अब हमारे पास धरोहर हैं। पिता रुद्रप्रताप राय का जनम 15 अगस्त 1936 को जनपद जौनपुर में हुआ था। लोगों के बीच में रुदल बाबू के नाम से लोकप्रिय थे। एक सहृदय इन्सान, एक ख्यातिलब्ध अधिवक्ता को हमने खो दिया। पिता रुद्रप्रताप राय उस जमाने में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी उच्च शिक्षा हासिल की थी। पत्नी पद्मा राय बेटियां अनुराधाराय, मृदुला राय, मंजुला राय बेटे अतुल कुमार राय, अजय राय बहू माया राय, नीलम राय प्रपौत्र अंकित राय, आयुष और यश की ओर से तथा मैं अपनी ओर से पिता को एक काव्यात्मक श्रद्धांजलि दे रहा हूं। यह गीत उन सबके पिता को समर्पित है जो अब स्मृति शेष हैं -

स्मृति शेष  पिता को याद करते हुए 

पिता!
घर की खिड़कियों
दालान में रहना।
यज्ञ की 
आहुति, कथा के
पान में रहना।

जब कभी
माँ को
तुम्हारी याद आयेगी,
अर्घ्य 
देगी तुम्हें
तुम पर जल चढ़ायेगी,
और तुम भी
देवता
भगवान में रहना।

अब नहीं
आराम कुर्सी,
बस कथाओं में रहोगे,
प्यार से
छूकर हमारा मन
समीरन में बहोगे,
फूल की
इन खुशबुओं में
लॉन  में रहना।

माँ!
हुई जोगन
तुम्हारा चित्र मढ़ती है,
भागवत 
के पृष्ठ सा 
वह तुम्हें पढ़ती है ,
स्वर्ग में
तुम भी 
उसी के ध्यान में रहना |

चाँद-तारों से 
निकलकर
कभी तो आना, 
हम अगर
भटकें, हमें फिर
राह दिखलाना,
सात सुर में
बांसुरी की
तान में रहना।

पिता!
हमने गलतियां की हैं
क्षमा करना,
हमें दे
आशीष
घर धन-धान्य से भरना,
तुम
हमारे गीत में
ईमान में रहना।

चित्र  avdevantimes.blogspot.com से साभार


Tuesday, 26 October 2010

दो रचनाएं : सन्दर्भ - करवा चौथ


जयकृष्ण राय तुषार 
उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर के सम्मुख
एक
आज करवा चौथ का दिन है

आज करवा चौथ
का दिन है
आज हम तुमको संवारेंगे।
देख लेना
तुम गगन का चांद
मगर हम तुमको निहारेंगे।

पहनकर
कांजीवरम का सिल्क
हाथ में मेंहदी रचा लेना,
अप्सराओं की
तरह ये रूप
आज फुरसत में सजा लेना,
धूल में
लिपटे हुए ये पांव
आज नदियों में पखारेंगे।

हम तुम्हारा
साथ देंगे उम्रभर
हमें भी मझधार में मत छोड़ना,
आज चलनी में
कनखियों देखना
और फिर ये व्रत अनोखा तोड़ना ,
है भले
पूजा तुम्हारी ये
आरती हम भी उतारेंगे।

ये सुहागिन
औरतों का व्रत
निर्जला, पति की उमर की कामना
थाल पूजा की
सजा कर कर रहीं
पार्वती शिव की सघन आराधना,
आज इनके
पुण्य के फल से
हम मृत्यु से भी नहीं हारेंगे।

दो 
जमीं के चांद को जब चांद का दीदार होता है

कभी सूरत कभी सीरत से हमको प्यार होता है
इबादत में मोहब्बत का ही इक विस्तार होता है

तुम्हीं को देखने से चांद करवा चौथ होता है
तुम्हारी इक झलक से ईद का त्यौहार होता है

हम करवा चौथ के व्रत को मुकम्मल मान लेते हैं
जमीं के चांद को जब चांद का दीदार होता है

निराजल रह के जब पति की उमर की ये दुआ मांगें
सुहागन औरतों का स्वप्न तब साकार होता है

यही वो चांद है बच्चे जिसे मामा कहा करते
हकीकत में मगर रिश्तों का भी आधार होता है

शहर के लोग उठते हैं अलार्मों की आवाजों पर
हमारे गांव में हर रोज ही जतसार होता है

हमारे गांव में कामों से कब फुरसत हमें मिलती
कभी हालीडे शहरों में कभी इतवार होता है।
चित्र -गूगल से साभार 

चित्र  ganeshaspeaks.com 

Sunday, 26 September 2010

सच के बारे में


 शैलेन्द्र
कवि एवं प्रभारी, जनसत्ता कोलकाता संस्करण
हिन्दी कविता में शैलेन्द्र किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। हिन्दी पत्रकारिता के पेशे से लम्बे समय से जुड़े शैलेन्द्र इस समय जनसत्ता के कोलकाता संस्करण के प्रभारी हैं। शैलेन्द्र जितने उत्कृष्ट कवि और पत्रकार हैं उतने ही सहज इंसान भी हैं। ५ अक्टूबर १९५६ को बलिया के मनियार नाम के कस्बे में शैलेन्द्र का जन्म हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर इस कवि की रचनाएं देश की समस्त प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। हम उनकी सुप्रसिद्ध पुस्तक ''अपने ही देश में'' से एक कविता अपने पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं।

पता- २ किशोर पल्ली, बेलघरिया
कोलकाता - ७०००५६



सच के बारे में

आओ
थोड़ा छत पर टहल लें
मकान मालिक के
लौटने तक
चांदनी तले
थोडा हंस-खिलखिला लें
तारों की ओर नजर कर लें

कितना अच्छा लगता है
तुम्हारे हाथ में हाथ डालकर
थिरकता खुले आसमान के नीचे
अभी पड़ोस की इमारतें
ऊंचा उठने ही वाली है
और उस तरफ
बस रही बस्ती
ऊफ!


हर तरफ उठ रही हैं लाठियां
कमजोर जिस्मों को तलाशती
आओ
थोड़ा और करीब आओ
कदम-कदम पर हारते
सच के बारे में
थोडा बतिया लें।

एक गीत -गा रहा होगा पहाड़ों में कोई जगजीत

  चित्र साभार गूगल एक गीत -मोरपँखी गीत  इस मारुस्थल में  चलो ढूँढ़े  नदी को मीत. डायरी में  लिखेंगे  कुछ मोरपँखी गीत. रेत में  पदचिन्ह होंगे ...