Sunday 17 May 2020

एक गीत -हम आये थे राजव्यवस्था को सोने में मढ़ने बाबू



एक गीत -श्रमिकों के लिए
हम आये थे राजव्यवस्था को सोने में मढ़ने बाबू 

अभी शहर से गाँव जा रहे 
हर मुश्किल से लड़ने बाबू !

ख़त लिखना फिर आ जाएंगे 
देश की मूरत गढ़ने बाबू !

पुल ,चौराहे ,सड़क बनाये 
हीरा काटे और तराशे ,
ईंटा ,गारा ,मिट्टी ढोए 
खाकर लाई ,चना  ,बताशे ,

भूखे -नंगे  धूप में निकले 
मानवता को पढ़ने बाबू !

बीवी ,बच्चे ,बाप ,मतारी 
सुख- दुःख सारी घटना भूले ,
दो रोटी सुख की तलाश में 
बलिया ,बक्सर ,पटना भूले ,

छोड़ जुहू -चौपाटी ,दिल्ली 
चले ताड़ पर चढ़ने बाबू !

बिना काम के कब तक देते 
रोटी साहब सेल्फी लेकर ,
हम टीवी पर बने तमाशा 
लगी चोट में फिर फिर ठोकर ,

कोई आया नहीं राह में 
दर्द हमारा पढ़ने बाबू !

मतलब की साथी है दुनिया 
कई कोस पर अपना घर है ,
घोड़ा -गाड़ी ,दाना -पानी 
नहीं साथ में ,कठिन डगर है ,

भटकाते ये मील के पत्थर 
नहीं दे रहे बढ़ने बाबू !

हर मौसम से आँख मिलाकर 
आसमान के नीचे सोये ,
रिक्शा ,ठेला ,गाड़ी खींचे 
किससे अपना दुखड़ा रोये ,

हम आये थे राजव्यस्था को 
सोने में मढ़ने बाबू !

सोंधी मिटटी हमें बुलाती 
बासमती की खुशबू वाली ,
लाल हरे तोते ,चिड़ियों से 
बतियाती आमों की डाली ,

रुमालों पर फूलों जैसा 
गाँव जा रहे कढ़ने बाबू !

देश रहेगा तब हम होंगे 
मानवता पर संकट भारी ,
सबको मिलकर लड़ना होगा 
लाइलाज है यह बीमारी ,

घर में रहना अब मत देना 
कोरोना को बढ़ने बाबू !

कवि -जयकृष्ण राय तुषार 

सभी चित्र साभार गूगल 


23 comments:

  1. सार्थक और सामयिक रचना

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 17 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. बहुत सुन्दर और सामयिक प्रस्तुति।

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  4. बहुत सही लिखा है
    इस लेख में सामयिक चर्चा हुई है ..💐💐

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (04 मई 2020) को 'गरमी में जीना हुआ मुहाल' (चर्चा अंक 3705) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव



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    1. भाई रवीन्द्र जी आपका हार्दिक आभार

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    2. संशोधन-
      आमंत्रण की सूचना में पिछले सोमवार की तारीख़ उल्लेखित है। कृपया ध्यान रहे यह सूचना आज यानी 18 मई 2020 के लिए है।
      असुविधा के लिए खेद है।
      -रवीन्द्र सिंह यादव

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  6. बिना काम के कब तक देते

    रोटी साहब सेल्फी लेकर ,

    हम टीवी पर बने तमाशा

    लगी चोट में फिर फिर ठोकर ,

    कोई आया नहीं राह में

    दर्द हमारा पढ़ने बाबू !

    आदरणीय तुषार जी दोपहर से कई बार पढ़ चुकी हूँ आपकी रचना , जो निशब्द किये जाती है | श्रमिक वर्ग के अंतस की वेदना को आपने जो शब्द दिए , वे सराहना से कहीं परे हैं | एक कवि वो लिख जाता है जो आम आदमी सोच भी नहीं सकता | श्रमवीर के अंतस की पीड़ा का सशक्त शब्दांकन , मानवता का एक शोकगीत है, जिसे सुनकर अवश्य ही सभ्य समाज को अपनी आँखें नीची रखनी चाहिए , क्योंकि इस मर्मान्तक संकटकाल में ना समाज और ना सत्ता दोनों ने ही इस पीड़ित व्रर्ग के लिए बहुधा अपेक्षित उदारता

    नहीं दिखाई | इन निष्ठावान अथक श्रम सैनिकों के रक्त से सने रास्ते और रेल की पटरियां मानवता के खंडित होने की साक्षी बनकर इतिहास का काला अध्याय बनकर रहेंगी | मार्मिक रचना के लिए साधुवाद | सादर

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    1. आपकी स्नेहसिक्त टिप्पणी से हमारा मनोबल बढ़ेगा और कुछ नया रचने की प्रेरणा मिलेगी |सादर प्रणाम |

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  7. समसामयिक व संवेदनशील रचना ।

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    1. हार्दिक आभार आपका पल्लवी जी

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  8. ओहो...... हो ! बड़ा पीड़ादायक है ! बताइए; इस पर भी राजनीति! ओहो...... हो ! यह परिस्थिति देखकर हृदय छलनी-छलनी हो जाता है परन्तु आप जैसे लेखक अपने इस अदम्य साहस और कर्तव्य का परिचय लगातार इस राष्ट्र को दे रहे हैं। प्रणाम है आपको और आपकी  लेखनी को जो सत्य को बचाने में निरंतर गतिमान है। अलौकिक और अद्भुत्त रचना। सादर ' 

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    1. हार्दिक आभार इतनी सुन्दर टिप्पणी के लिए |

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  9. बहुत सुंदर और सार्थक सृजन

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    1. अनुराधा जी आपका हार्दिक आभार

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  10. एक श्रमिक के अन्तर्मन की आवाज है यह आपकी कविता जिसमें भारतीय श्रमिक वर्ग के अन्तःमन की पीड़ा के साथ, उनकी सामाजिक सहभागिता एवं जागरूकता आदि तथ्यों का बहुत ही अद्भुत तरीके से वर्णन किया है आपने ।

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    1. आपकी शानदार टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार |

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  11. असहनीय पीड़ा से गुज़र रहे श्रमिक तबके का मार्मिक चित्रण आदरणीय सर.
    उत्कृष्ट सृजन.
    सादर

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    Replies
    1. आपका हृदय से आभार अनीता जी

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