Thursday, 18 December 2014

एक देशगान -कितना सुन्दर ,कितना प्यारा, देश हमारा है

लाल किला -चित्र गूगल से साभार 



एक देशगान -कितना सुन्दर, कितना प्यारा 
देश हमारा है 

कितना सुंदर 
कितना प्यारा 
देश हमारा है |
नीलगगन के 
सब तारों में 
यह ध्रुवतारा है |

पर्वत -घाटी 
तीर्थ, सलोना 
इसे बनाते हैं ,
सारे पावन 
ग्रन्थ यहाँ की 
महिमा गाते हैं ,
लोकरंग में 
गीत सुनाता 
यह बंजारा है |

सत्य -अहिंसा 
दया -धर्म का 
इससे नाता है ,
युद्ध थोपने वालों 
को यह 
सबक सिखाता है ,
इसका प्रहरी 
पर्वत है 
सागर की धारा है |

हर मौसम के 
रंग यहाँ 
फूलों की घाटी है ,
अनगिन 
वीर शहीदों की 
यह पावन माटी है ,
सत्यमेव जयते 
इसका 
सदियों से नारा है |
चित्र -गूगल से साभार 

Tuesday, 21 October 2014

एक नवगीत -बासीपन हवाओं में

चित्र -गूगल से साभार 



एक नवगीत -बासीपन हवाओं में 
फूल तो 
हैं किन्तु 
बासीपन हवाओं में |
लिख रहे 
मौसम 
सुहाना हम कथाओं में |

यंत्रवत 
होने लगे 
संवेदना के स्वर ,
मौन सा 
रहने लगा है 
कहकहों का घर ,
क़ैद हैं 
हम आधुनिकता के 
प्रभावों में |

जहाँ जलसा है 
वहीं पर 
त्रासदी है ,
रोज 
आदमखोर 
होती यह सदी है ,
लिख रहा 
गोधूलि बेला 
दिन ,दिशाओं में |

रोशनी है 
मगर गुम 
होते दिया -बाती ,
अब मुंडेरों पर 
सुबह 
चिड़िया नहीं गाती ,
अब नहीं 
सम्वाद 
है सखियों -सखाओं में |

Sunday, 24 August 2014

एक नवगीत -हरे वन की चाह में

चित्र -गूगल से साभार 

एक गीत -

हरे वन की चाह में 

हरे वन की 
चाह में फिर 
पंख चिड़ियों के जले हैं |
यहाँ ऋतुएं 
हैं तिलस्मी 
और मौसम दोगले हैं |

प्यास होंठों पर 
सजाए हम 
नदी से लौट आए ,
कौन है ये 
आसमां में 
धूम्र के बादल सजाए ,
हो गया 
जनतंत्र बहरा 
या कि हम सब तोतले हैं |

हम पठारों पर 
बसे हैं 
फूल इन पर क्या खिलेंगे ,
हर कदम पर 
हमें कुछ 
कांटे बबूलों के मिलेंगे ,
हम सुरंगों 
में घिरे हैं 
भले मीलों तक चले हैं |

हम हँसे तो 
इस व्यवस्था ने 
हमारे होंठ काटे ,
रो दिए तो 
धर्मगुरुओं ने 
हमारे रुदन बांटे ,
हमें रहने दो 
महज इन्सान 
हम इसमें भले हैं |
चित्र -गूगल से साभार 

Tuesday, 22 July 2014

एक गीत -औरतें होंगी तभी तो यह सदी होगी

चित्र /पेंटिंग्स -गूगल से साभार 
मित्रों इस गीत में मुझे कुछ संशोधन करना पड़ा इसे और अच्छा बनाने की एक कोशिश है |क्षमा सहित 
एक गीत -
औरतें होंगी तभी तो यह सदी होगी 

औरतें होंगी 
तभी तो 
यह सदी होगी |
हिमशिखर 
होंगे तभी 
उजली नदी होगी |

ये गगन के 
मेघ जितना 
जल भरे होंगे ,
इस धरा के 
आवरण 
उतने हरे होंगे ,
जब कभी 
मरुथल हँसेगा 
त्रासदी होगी |

मौन सुर 
केवल रुदन के 
गीत गाते हैं ,
अब सड़क को 
हादसों के 
दृश्य भाते हैं ,
निर्वसन 
होती सदी 
यह द्रौपदी होगी |

कलमुंहे दिन 
बेटियों के लिए 
कब मंगल हुए ,
सभ्यता 
किस अर्थ की 
यदि ये शहर जंगल हुए ,
फूल की 
हर शाख 
काँटों से लदी होगी |

किसी 
सीता को 
अगर आंसू बहेगा ,
हमें भी 
इतिहास यह 
रावण कहेगा ,
घन तिमिर 
के शून्य में 
क्या कौमुदी होगी |


Sunday, 20 July 2014

एक गीत -इस रक्तरंजित सुब्ह का मौसम बदलना

चित्र -गूगल से साभार 

एक गीत -
इस रक्तरंजित सुबह का मौसम बदलना 

इस रक्त रंजित 
सुब्ह का 
मौसम बदलना |
या गगन में 
सूर्य कल 
फिर मत निकलना |

द्रौपदी 
हर शाख पर 
लटकी हुई है ,
दृष्टि फिर 
धृतराष्ट्र की 
भटकी हुई है ,
भीष्म का भी 
रुक गया 
लोहू उबलना |

यह रुदन की 
ऋतु  नहीं ,
यह गुनगुनाने की ,
तुम्हें 
आदत है 
खुशी का घर जलाने की ,
शाम को 
शाम -ए -अवध 
अब मत निकलना |

Sunday, 18 May 2014

एक गीत -कवि अमरनाथ उपाध्याय

कवि -श्री अमरनाथ उपाध्याय 'अमर राग '
e-mail--aupadhyay432@gmail.com
परिचय -

अपनी तमाम प्रशासनिक व्यस्तताओं के बावजूद कई प्रशासनिक अधिकारी हिंदी की अनवरत सेवा में तन्मयता से जुटे हैं |कुछ बहुत ही उम्दा लेखकीय क्षमता से भी लैस हैं ,और हिंदी को अपने लेखन से समृद्ध कर रहे हैं |उत्तर प्रदेश प्रान्तीय सिविल सेवा के अधिकारी श्री अमरनाथ उपाध्याय 'अमर राग ;भी अपनी तमाम प्रशासनिक जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वहन करते हुए हिंदी में लेखन कार्य से जुड़े हैं |उपाध्याय जी ने अभी एक -दो वर्ष पूर्व ही लेखन कार्य प्रारम्भ किया है ,लेकिन उनके पास अपनी सहज दृष्टि और मौलिक संवेदना है |अमरनाथ उपाध्याय जी का जन्म सन 06-01-1966 में हुआ था |इनकी शिक्षा कोलकाता ,गोपालगंज और पटना [बिहार ]में सम्पन्न हुई |कविता, गीत इनके लेखन की मूल विधा है |श्री अमरनाथ उपाध्याय जी इस समय उत्तर प्रदेश प्रान्तीय सिविल सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं | हम आप सभी से उनकी एक कविता के माध्यम से परिचय करा रहे हैं |आभार सहित 

एक गीत -कवि अमरनाथ उपाध्याय 'अमर राग '

भोरकिरण बन आनेवाले मेरे ओ‘दिनमाना',
बदरी में छुप बैठे फिर भी हो तुम भीतरघामा।
घाम तुम्हारा महसूसता है,बेशक,पूरा ज़माना ,
पर,अरुणाई कैसे गाएँ,जाए नहीं बखाना।
घर पे तेरे लटक रहा है नीला-श्याम विताना,
छुप करके बैठे हो क्योंकर?मेरे ओ सुखधामा!
डेढ़ पहर दिन बीत चुका है,क्या गाना,क्या ध्याना,
नभ पे ऐसे आना,जैसे नाम चले‘दिनमाना'।
धरती की लाली बन आना,आना सेज,सिर्हाना,
धरती के होंठों पे रक्तिम लाली से सज जाना।
एक कूप में ढेरों जल,औ'बाकी जग तरसाना,
ऐसे जल को खींच किरण से घरघर में बरसाना।
नाज़ुक से कई ओर खड़े हैं,उनको ना मुरझाना,
तन की कटीफटी तो देखो,ना उनको झुलसाना।
सूरजमुखी औ'दुपहरिया से,चाहे,खुब,बतियाना,
पर औरों को,खिलने ख़ातिर,थोड़ी ताप दिखाना।
थक जाने पे,महासिन्धु में,डुबकी बड़ी लगाना,
पर,अँधियारा हरने ख़ातिर,नहा-नहा के आना।
प्रेम-पुलक-मन कहता तुझको‘मेरे ओ दिनमाना',
धुँध-धूम को तरके आजा,सुन लो अरज सुजाना।
कोटि-कोटि किरणों को तेरे रोके कौन जहाना,
एक किरण तो दे दो जल्दी,होवे ‘सहज विहाना'।

Wednesday, 12 March 2014

हिंदी की बेहतरीन ग़ज़लें -प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ -एक अवलोकन

श्री रवीन्द्र कालिया
पूर्व निदेशक भारतीय ज्ञानपीठ 

अपने शानदार लेखन और बेजोड़ सम्पादकीय हुनर के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक और नया ज्ञानोदय के पूर्व सम्पादक रवीन्द्र कालिया हमेशा याद किये जाते रहेंगे | डॉ धर्मवीर भारतीय के साथ धर्मयुग से लम्बे समय तक जुड़े रहने के बाद इलाहाबाद में कालिया जी ने गंगा -जमुना का सम्पादन कर पत्रकारों की एक पीठी तैयार किया | ज्ञानपीठ को सचल बनाया और इलाहाबाद आकर ज्ञानपीठ ने अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया |नया ज्ञानोदय के कई लोकप्रिय विशेषांक कालिया जी के संपादन में प्रकाशित हुए जिसमें युवा विशेषांक ,प्रेम महाविशेषांक और ग़ज़ल महाविशेषांक विशेष रूप से चर्चित रहे | ग़ज़ल महाविशेषांक में उर्दू हिंदी गजलकारों को साथ -साथ प्रकाशित किया गया | बाद में उर्दू की बेहतरीन ग़ज़लें किताब के रूप में हमारे सामने आ गयी |अब हिंदी की बेहतरीन ग़ज़लें पुस्तक रूप में हमारे सामने है |इस किताब के प्रधान सम्पादक रवीन्द्र कालिया और सम्पादक ज्ञानप्रकाश विवेक हैं |इस संग्रह में कुल 64 गजलकारों को सम्मलित किया गया है |अमीर खुसरो ,कबीर ,भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ,बद्रीनारायण उपध्याय प्रेमघन ,प्रताप नारायण मिश्र ,स्वामी रामतीर्थ ,लाला भगवानदीन ,मैथलीशरण गुप्त ,जयशंकर प्रसाद ,निराला ,त्रिलोचन ,शमशेरबहादुर सिंह दुष्यंत कुमार ,बलवीर सिंह रंग ,शलभ श्रीराम सिंह ,रामावतार त्यागी ,हरजीत सिंह ,अदम गोंडवी सहित तमाम आधुनिक गजलकार [मैं भी ] इस संग्रह में शामिल हैं |हम भाई ज्ञानप्रकाश विवेक ,आदरनीय रवीन्द्र कालिया और भारतीय ज्ञानपीठ के आभारी हैं ग़ज़ल विधा पर इस सुन्दर संकलन के लिए |


पुस्तक का नाम -हिन्दी की बेहतरीन ग़ज़लें 
सम्पादक -रवीन्द्र कालिया 
प्रकाशक -भारतीय ज्ञानपीठ ,नई दिल्ली 
मूल्य -रु० -180 [सजिल्द ]


Thursday, 20 February 2014

मेरा प्रथम नवगीत संग्रह -सदी को सुन रहा हूँ मैं 'प्रकाशक -साहित्य भंडार

मेरे नवगीतों का प्रथम स्वतंत्र संकलन 


पुस्तक का नाम -सदी को सुन रहा हूँ मैं [कवि -जयकृष्ण राय तुषार ]

प्रकाशक -साहित्य भंडार इलाहाबाद [0532-2400787-2402072]
मूल्य -50 और 250[सजिल्द ]
लेजर टाइपसेटिंग -अमन कम्प्यूटर इलाहाबाद 
आवरण -राज यादव 
[अपने ही बारे में क्या लिखा जाय ][कुछ पद्मश्री गोपालदास नीरज कुछ माहेश्वर तिवारी जी ने लिख दिया है ]

Monday, 20 January 2014

एक गीत - अनकहा ही रह गया कुछ, रख दिया तुमने रिसीवर

चित्र -गूगल से साभार 
एक गीत --अनकहा ही रह गया कुछ 
अनकहा ही 
रह गया कुछ 
रख दिया तुमने रिसीवर |
हैं प्रतीक्षा में 
तुम्हारे 
आज भी कुछ प्रश्न- उत्तर |

हैलो ! कहते 
मन क्षितिज पर 
कुछ सुहाने रंग उभरे ,
एक पहचाना 
सुआ जैसे 
सिंदूरी आम कुतरे ,
फिर किले पर 
गुफ़्तगू
करने लगे बैठे कबूतर |

नहीं मन को 
जो तसल्ली 
मिली पुरवा डोलने से ,
गीत के 
अक्षर सभी 
महके तुम्हारे बोलने से ,
हुए खजुराहो -
अजंता 
युगों से अभिशप्त पत्थर |

कैनवस पर 
रंग कितने 
तूलिका से उभर आये ,
वीथिकाओं में 
कला की 
मगर तुम सा नहीं पाये ,
तुम हंसो तो 
हंस पड़ेंगे 
घर ,शिवाले, मौन दफ़्तर |

सफ़र में 
हर पल तुम्हारे 
साथ मेरे गीत होंगे ,
हम नहीं 
होंगे मगर ये 
रात -दिन के मीत होंगे ,
यही देंगे 
भ्रमर गुंजन 
तितलियों के पंख सुन्दर |
चित्र -गूगल से साभार 

Thursday, 16 January 2014

एक गीत -शहर के एकांत में

चित्र -गूगल से साभार 

एक गीत -शहर के एकांत में  
शहर के 
एकांत में 
हमको सभी छलते |
ढूंढने से 
भी यहाँ 
परिचित नहीं मिलते |

बांसुरी के 
स्वर कहीं 
वन -प्रान्त में खोए ,
माँ तुम्हीं को 
याद कर 
हम देर तक रोए ,
धूप में 
हम बर्फ़ के 
मानिन्द हैं गलते |

रेलगाड़ी 
शोरगुल 
सिगरेट के धूँए ,
प्यास 
अपनी ओढ़कर 
बैठे सभी कूँए ,
यहाँ 
टहनी पर 
कंटीले फूल बस खिलते |

गाँव से 
लेकर चले जो 
गुम हुए सपने ,
गांठ में 
दम हो तभी 
ये शहर हैं अपने ,
यहाँ 

सांचे में सभी 
बाज़ार के ढलते |

भीड़ में 
यह शहर 
पाकेटमार जैसा है ,
यहाँ पर 
मेहमान 
सिर पर भार जैसा है ,
भीड़ में 
तनहा हमेशा 
हम सभी चलते |


[नवगीत की पाठशाला से साभार -मेरे इस गीत को आदरणीय पूर्णिमा जी ने नवगीत की पाठशाला में प्रकाशित किया था ]

Wednesday, 8 January 2014

एक गीत -इस मुश्किल मौसम में तुमने

चित्र -गूगल से साभार 
एक गीत -
इस मुश्किल मौसम में तुमने   
इस मुश्किल 
मौसम में तुमने 
माँगा मुझसे गीत प्यार का |
गीत तुम्हारे 
मन के होंगे 
पहले मौसम हो बहार का |

धुंध भरी 
संध्याएँ -सुबहें 
दिन उजले हो गए हाशिए ,
अनगिन 
भाषा अर्थ तुम्हारे 
कैसे पढ़ते हम दुभाषिए ,
शब्द थके हैं 
कलम न स्याही 
मन का सागर बिना ज्वार का |

हरियर सपने 
ढके ओस में 
कुछ दिन है बसंत आने दो ,
खुले गगन में 
खुली धूप में 
नये परिंदों को गाने दो ,
हिमपातों के 
बाद हंसेगा 
इस घाटी में वन चिनार का |

जूड़े में मत 
फूल टांकना 
मेरे गीत महक जायेंगे ,
गीत अगर 
कुछ जादा महके 
मेरे पांव बहक जायेंगे ,
पंचम  दा 
सा हम गायेंगे 
सुर मिलने दो इस सितार का |

एक पुराना होली गीत. अबकी होली में

   चित्र -गूगल से साभार  आप सभी को होली की बधाई एवं शुभकामनाएँ  एक गीत -होली  आम कुतरते हुए सुए से  मैना कहे मुंडेर की | अबकी होली में ले आन...